हमें जीना है और तुक्के मारने हैं : डार्विन और विकासवाद – 8

Darwin and theory of evolution and conflict

मैं एक चिकित्सक हूँ और डार्विन हर रोज़ मरीज़ों से भेंट के समय मेरे बगल में आकर आहिस्ता से अपना स्थान ले लेते हैं। सहजता से उनका विकासवाद मुझे बताता है कि आज के मानव को आज-जैसा बनने में जो करोड़ों वर्ष लगे हैं , उसके साथ चरण-चरण पर उसकी कमियाँ-खामियाँ और शत्रु भी विकसित होते रहे हैं।

मानव के विकास की कहानी के साथ उसके रोगों की कहानी संलग्न है। तरह-तरह के लोग क़िस्म-क़िस्म की बीमारियों से नित्य जूझा करते हैं। वे या तो बिलकुल ठीक हो लेते हैं , या रोग के साथ जीना सीख जाते हैं और या फिर मर जाते हैं। थोड़े-पूरे नुकसान के साथ रोग का यह क्रम उनपर बीत जाता है।

लेकिन जब डार्विन की बात चल पड़ी है ‘Pharma Bro’ Martin Shkreli ordered to return million in profits gleaned from boosting price of life-saving drug – Alternet.org ovidac 5000 iu performance enhancing anabolic steroid abuse in ladies – فيكتور ديزاين , तो रोगों की इस फेहरिस्त को हम मनुष्य के सापेक्ष क्या समझें ? कहाँ और कैसे जानें कि बीमारियाँ मनुष्य के विकास-क्रम में कैसा अच्छा-बुरा योगदान दे रही हैं। शायद आप चौंक पड़े हों : बीमारियाँ और अच्छा योगदान दे सकती हैं ! लेकिन फिर इस बात को याद करिए कि कुदरत के लिए रोग केवल एक पर्यावरणीय बदलाव है। एक चैलेंज आपके शरीर के लिए कि झेल सकते हो इसे ! है हिम्मत ! पार पा सकते हो इससे ?

रोग को जो झेल जाएँगे वे पर्यावरण के अनुसार अपने आप को ढाल ले गये। बीमारी के हिसाब से उनकी देहें बदलाव ग्रहण कर ले गयीं। वे जिएँगे। प्रजनन करेंगे। उनके ही बच्चे आगे के मानव होंगे। शेष न झेल पाने वाले मृत्यु की गोद में गुमनाम समा जाएँगे।

विकासवाद की सूक्ष्मताएँ आपको रोगों की बेहतर समझ देती हैं। चार वर्गों में आप मनुष्य के तमाम रोगों को बाँटने में सफल हो पाते हैं। पहली बिरादरी उन बीमारियों की है जो मनुष्य के अपने रक्षण की उपज हैं। यानी खाँसी-उल्टी-बुख़ार-दर्द-दस्त-उलझन-जैसे अनेकानेक लक्षण जो मानव में पैदा होते हैं , किसी-न-किसी रोग से लड़ने के लिए विकसित हुए थे। लेकिन फिर वे इतने अधिक सक्रिय हो गये कि स्वयं में कष्टकारक हो गये।

न्यूमोनिया में आती खाँसी का उद्देश्य फेफड़ों के बलगम को निकला फेंकना है। जो खाँस न पाएँगे , न्यूमोनिया उनके लिए अधिक घातक सिद्ध होगा। दर्द का उद्देश्य आपको चेतावनी देना है। जिन्हें दर्द नहीं होगा , वे अपनी बर्दाश्त की हद पार कर जाएँगे और बड़े घाव पाएँगे। बुख़ार तो फिर शरीर की कोशिकीय-रासायनिक प्रतिक्रिया है ही। उलटी और दस्त भी किन्हीं अग्राह्य पदार्थों को बाहर निकालने का प्रयास दर्शाते हैं।

गर्भावस्था के पहले तीन महीनों में भ्रूण के अंगों का निर्माण बहुत सक्रियता से चलता है। यही वह समय है जब कई महिलाएँ उल्टी की शिकायत करती हैं। यह वह घटना है जो आमाशय और जठर-तन्त्र में किसी भी प्रकार के ऊटपटाँग भोजन को नहीं आने देना चाहती। उसका उद्देश्य भ्रूण के अंगों को निष्प्रभावी एयर सुचारु रूप से पूरा करना है ताकि एक स्वस्थ शिशु जन्म ले सके।

संक्रमणों के समय शरीर अपने लौह-भाण्डार छिपा देता है ताकि वह खज़ाना जीवाणुओं के हाथ न लगे। उन्हें भी पनपने के लिए लोहे की ज़रूरत होती है। यह एक प्रकार का आत्मरक्षा में उठाया क़दम है।

दूसरे समूह में अन्य जीवों के साथ मानव का विकास-संघर्ष आपको दिखायी देगा। जीवाणु हमसे पहले से पृथ्वी पर हैं। वे हमसे तेज़ पनपते हैं। एक मनुष्य अपना बच्चा पैदा करने में जितने साल लेता है , उसकी तुलना तनिक एक जीवाणु के दो प्रतियों में बँटने से कीजिए ज़रा। हम कितना भी प्राकृतिक चुनाव द्वारा विकसित और उन्नत होते जाएँ , उनसे पार नहीं पा पाते।

हम एंटीबायटिक बनाते हैं , टीके पैदा करते हैं — जीवाणु-विषाणु उनसे पार पा लेते हैं। उन्हें भी जीना है , हम पर पनपना है। वे भी जीव ही तो हैं। सफलतर परजीवी वह नहीं है जो किसी मनुष्य में घुसे और उसे कुछ ही दिनों में मौत के घाट उतार दे। सफलता तो इसमें है कि देह के भीतर ख़ूब समय तक रहो , उसे मरने न दो। उसका उपभोग करो , उपयोग करो। मनुष्य एक सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी है, अधीरता और जल्दबाज़ी में तुम अपनी ही जाति की हानि कर रहे हो अदने कीटाणु !

सो सदियों से हम बदलते रहे हैं और हमारे परजीवी भी। हमें उनको मार कर अपनी मानव-जाति बढ़ानी है , उन्हें अपनी संख्या बढ़ानी है।

फिर तीसरा सम्बन्ध जीवन-चर्या में बदलाव से जुड़ा है। हमें अपना भोजन बदल लिया है , रहन-सहन बदल लिये हैं। व्यायाम हम पहले से कम करते हैं , नशे नये-नये बनाते जा रहे हैं। शरीर कैंसर से भी जूझ रहा है , हृदयरोग से भी और मधुमेह से भी। वह इन सब के साथ सन्तुलन बिठाने का प्रयास नित्य कर रहा है। वह जीना चाहता है , दुष्प्रभावों से पार पा कर उसे प्रजनन करना है। लेकिन ये बदलाव हमेशा तुरन्त एक-दो पीढ़ियों में अमूमन नहीं होते , धीरे-धीरे होते हैं। आप बर्गर खाते हैं , शराब जम कर पीते हैं। देह में इनके प्रतिकूल प्रभावों से निपटने के लिए रोज़ कोशिशें होती हैं। लेकिन जब तक कामयाबी मिलेगी , तब तक न जाने कितने लोग मौत के घाट उतर जाएँगे।

कभी-कभी एक ही जीन जो किसी रोग के लिए उत्तरदायी है , किसी अन्य रोग से मनुष्य को बचाता भी है। सिकल-सेल-अनीमिया से सम्बन्धित जीन की मौजूदगी जिन मनुष्यों में होती है , वे मलेरिया से रक्षित रहते हैं। नन्हीं एपेंडिक्स हमारे किसी काम की नहीं , खरगोश उसके भीतर सेल्यूलोज़ पचाने वाले जीवाणुओं को निवास देता है। हम घास नहीं खाते , प्रोसेस्ड भोजन लेने लगे हैं। हमें अपेंडिक्स की उतनी आवश्यकता नहीं। नतीजन वह छोटी-पतली-सँकरी होने लगी। अब जब उसमें कोई अवरोध हुआ और रक्त-प्रवाह बाधित हुआ तो वह सूज कर दर्द देने लगी। यही अवस्था एपेंडिसाइटिस है।

शरीर नित्य इस समस्या से जूझने में लगा है। मनुष्य के लम्बे जीवन के रास्ते में बाधा बने इस अंग को कुदरती चुनाव एक दिन ग़ायब कर देगा और मनुष्य बिना अपेंडिक्स के पैदा हुआ करेंगे। लेकिन फिर एक दूसरे पहलू पर भी विचार करिए। चुनाव के दबाव के कारण अगर हम वापस अपने पूर्वजों के आहार की ओर लौटने लगे तो अपेंडिक्स फिर से अपने उपयोग के आधार पर खरगोश-सी लम्बी होने का प्रयास करेगी।

जीव-विज्ञान में भौतिकी की तरह नियम नहीं चलते। इतनी सारी गतिविधियाँ एक साथ चल रही हैं कि आप दो-गुणे-दो-चार के तरीक़े से चीज़ें नहीं समझ सकते , न समझा सकते हैं। बस यह समझिए कि एक संघर्ष है जीने का और प्रजनन करने जीते जाने का , जो अनवरत चल रहा है।

परम्परा कहती है कि आप अपने कर्मों से संसार में यश कमाते हैं। आपको आपके कामों से आपके मरने के बाद याद रखा जाता है। लेकिन जीव-विज्ञान के लिए आप जीवन की वह इकाई हैं जो अपनी आनुवंशिक सामग्री अगली पीढ़ी को हस्तान्तरित करने आये हैं। प्रकृति के लिए आप सिकन्दर हों या अशोक, हाइपेशिया हों या लीलावती , एलिज़ाबेथ हों या मैरी क्यूरी , समुद्रगुप्त हों या नेपोलियन , चंगेज़ हों या वोल्टायर , नेहरू हों या गोर्बाशेव —- आपकी क़ीमत केवल आपका जेनेटिक हस्तान्तरण है। आपके अच्छे-बुरे जीनों का वह पुलिन्दा जो विपरीत लिंगी जीव के साथ रैण्डम अन्दाज़ में मिलेगा और एक नया जीव बना देगा वह जीव भी जुए का एक मोहरा है।

और उस मोहरे के सामने उसकी पर्यावरणीय चुनौतियाँ हैं। उसे अब उनसे जूझना है। बड़ा होना है आवश्यक बदलावों के साथ। फिर प्रजनन करना है। उसी तरह जैसे उसके माँ-बाप ने किया। अपने जीनों का पुलिन्दा अपने बच्चों में पहुँचाना हैं।

कुदरत ने आपको वैज्ञानिक-डॉक्टर-इंजीनियर-दार्शनिक-कवि-आतंकवादी-नेता-सैनिक बनने के लिए नहीं भेजा। कुदरत का बल्कि आपको लेकर कोई ‘ध्येय’ ही नहीं है। वह आपको कुछ लक्ष्य देकर पैदा नहीं कर रही। उसे तो आपको बस जीने देना है चुनौतियों के बीच , ताकि आप प्रजनन कर सकें और अपने-से और बना सकें।

संसार की सारी लड़ाइयाँ पर्यावरण की चुनौतियाँ और प्रजनन का संघर्ष नज़र आएँगी आपको — अगर ध्यान से सोचेंगे। राजा-महाराजा-बादशाह-सुलतान जो इलाक़ों पर कब्ज़ा करते थे , वे पर्यावरण और प्रजनन को अपने कब्ज़े में लेने के प्रयास-भर ही थे। कामिनी-कंचन का भोग कहकर जिसकी लालसा और कदर्थना लोलुप और विरागी करते रहे हैं , वह क्या विकासवाद के इन दो बिन्दुओं की बात नहीं कर रहा ?

पैसा क्या है ? वह पर्यावरण को सुखमय बनाने के संसाधनों को जुटाने का साधन है। पर्यावरण सुखमय होगा तो संघर्ष कम करना पड़ेगा। संघर्ष कम करना पड़ेगा , तो विकास सहज होगा। पुष्टि-तुष्टि मिलेगी। और प्रजनन ?

प्रजनन विचित्र गुण है। स्त्री की बात पहले। एक ओर वह पैसे वाले तोंदू को देख रही है तो दूसरी ओर छरहरे एथलीट को। उसे सुरक्षा के कुछ मायनों के लिए पहली पसन्द भा रही है और कुछ अन्य के लिए दूसरी। तोंद वाले भैया पैसों से सुरक्षा ख़रीद कर डार्लिंग को दे सकते हैं , लेकिन ख़ुद कुछ नहीं कर सकते। एथलीट खुद जान-ए-मन के लिए भिड़ सकता है , लेकिन उसकी व्यक्तिगत शक्ति की भी एक सीमा है।

फिर पुरुष की सोच में प्रजनन के लिए स्त्री की भरी-पूरी देह पारम्परिक रूप से स्थान बनाती है। वह जो शिशुओं को पोस सके , पहले भीतर और फिर बाहर। पुष्ट नितम्बों-उन्नत स्तनों के मूल में यही पर्यावरणीय-प्रजननीय बातें हैं। लेकिन फिर आधुनिक आत्मनिर्भर स्त्री में पुरुष को भी सुरक्षा-बोध दिखने लगा है। वह भी धन-प्राचुर्य और सामाजिक प्रतिष्ठा को स्त्री में ढूँढ़ने और पाने लगा है।

समाज बदला है , सुरक्षा और पोषण के सामाजिक दायित्व बदले हैं , बँटे हैं। जितना वह जटिल से जटिलतर हुआ है , पर्यावरण की चुनौतियाँ कम नहीं हुई हैं। वे बदली भर हैं। हज़ार साल पहले के स्त्री-पुरुष हैजे से जूझते थे , आज के स्त्री-पुरुष प्लास्टिक के प्रदूषण से संघर्ष कर रहे हैं।

मनुष्य सोच रहा है कि वह पर्यावरण को बदल कर उसकी नकेल अपने हाथों में ले रहा है। दरअसल पर्यावरण को पकड़ते समय एक सिरा आप कसते हो , तो दूसरा छूट जाता है। पहले आप ‘जाही बिधि राखे राम’ के ढंग से कुदरत के सामने हाथ जोड़कर जीते थे , संघर्ष तब भी था। आज आप उसकी आँखों के आँखें डालकर उससे भिड़ते हो , तब भी संघर्ष करते हो।

और फिर आप कहते हो कि डार्विन का विकासवाद कहाँ है !


Dr Skand Shukla

स्‍कन्‍द शुक्‍ल

लेखक पेशे से Rheumatologist and Clinical Immunologist हैं।
वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं और अब तक दो उपन्‍यास लिख चुके हैं