Home Economics गरीबी मां और बाबा का ढाबा

गरीबी मां और बाबा का ढाबा

baba-ka-dhaba

बाबा और बाबा का ढाबा बहुत ही जोरदार एपीसोड है, इसे होना चाहिए था, एक बार नहीं, बार बार होना चाहिए। भविष्‍य में जब भी कोई यूट्यूबर, कोई मीडियाकर्मी, कोई ब्‍लॉगर या कोई दूसरों का दुख देखकर जार जार रोने वाला, ऐसे किसी बंदे को देखे तो उसे बजाय सहानुभूति होने के नेपथ्‍य में बाबा खड़ा नजर आए।

1928 में जे टी सुंडरलैंड (यह ब्रिटिश था और इकोनॉमी विशेषज्ञ था) ने “इंडिया इन बांडेज” पुस्‍तक में स्‍पष्‍ट बताया है कि 1924 तक भारत की जीडीपी कुल दुनिया की जीडीपी के चौथाई के बराबर थी। इसका अर्थ ऐसे समझिए कि अभी वर्तमान में अमरीका की जीडीपी वैश्विक जीडीपी की 15 प्रतिशत के आस पास है। ऐसे देश को गरीब बनाने के लिए ब्रिटेन और शेष विश्‍व के साथ स्‍थानीय पिस्‍सुओं ने बड़ी मेहनत की।

वर्ग संघर्ष की जमीन गरीबी पर तैयार होती है। वर्ग संघर्ष की जमीन पर वामपंथ खड़ा रहता है। वामपंथ धर्म का विरोध करता है, धर्म की खिलाफत से धर्मांतरण (वास्‍तव में यह संप्रदायीकरण है) को बढ़ावा मिलता है। राजनीतिक पार्टियां और एनजीओ गरीबी को अक्षुण्‍ण बनाए रखने में पूरी ताकत झोंककर रखते हैं और गरीबी हटाने के नाम पर गरीबों को हटाते जाते हैं और स्‍वयं सुदृढ़ होते चले जाते हैं।

इस बीच एक कमाल का ट्रांसफार्मेशन होता है। गरीब अपनी गरीबी से प्रेम करने लगता है। मानव का यही गुण है, वह ढल जाता है। जीवन का यही गुण है कि वह जीने के लिए रास्‍ता निकाल लेता है।

गरीब के लिए गरीबी अभिशाप नहीं होती, हो भी नहीं सकती, क्‍योंकि गरीब को गरीबी के साथ ही जीना है, उसे उसी स्‍टेट में बना रहना है। कुछ दिन भले ही वह गरीबी का मजाक उड़ा ले, कुछ दिन भले ही वह अपनी स्थिति से नाखुश रह ले, लेकिन आखिरकार गरीबी और गरीब एक दूसरे को अंगीकार कर लेते हैं। गरीब को गरीबी बुरी नहीं लगती, गरीबी के दौर में जो इच्‍छाएं अधूरी रहती है, केवल उनकी टीस होती है। यह टीस लगभग वैसी ही टीस होती है, जैसी अमीर को अमीरी भोगते हुए कुछ चीजें नहीं मिलने या अधिक मिलने से हो सकती है। कुल मिलाकर संतुष्टि और असंतुष्टि दोनों स्‍तर पर गरीब और अमीर एक ही मचान पर खड़े नजर आते हैं।

अगर किसी को यह वहम हो किसी गरीब को धन दे दिया जाए तो वह सुखी हो सकता है। गरीब की बात छोडि़ए अगर एक निम्‍न मध्‍यवर्गीय परिवार भी कुछ प्रयास करके उच्‍च मध्‍यमवर्ग में पहुंच जाए तो वह वह पुराने दिनों को याद कर, सूखी रोटी और छाछ को याद कर तड़पने लगता है। क्‍योंकि उसमें भी रस था, भले ही वह जवानी का रस हो या अच्‍छे वातावरण का रस हो, लेकिन उस परिवार या व्‍यक्ति के लिए वह रस अधिक महत्‍वपूर्ण हो उठता है धन की तुलना में।

पुष्‍पक फिल्‍म देखी है?? उसमें इस रूपक को बहुत खूबसूरती से दिखाया गया है। कमल हासन किसी करोड़पति को अगवा कर अपने घर में कैद कर लेता है और उसके स्‍थान पर खुद फाइव स्‍टार होटल के कमरे में ऐश करने चला जाता है। दिन तो चमकचौंध में बीत जाता है, लेकिन रात की नीरव शांति उसे चुभने लगती है। रात को वह मखमली बिस्‍तर पर एकांतिक शांति के बीच सो नहीं पाता। इसका तोड़ वह इस तरह निकालता है कि अगले दिन एक टेपरिकॉर्डर लेकर पुराने घर जाता है, वहां दिनभर की चिल्‍ल पौं रिकॉर्ड करता है, रात को होटल में लौटने पर अपने सिराहने टेप को चलाकर चैन की नींद सो लेता है।

एक कहानी बचपन से सुनता रहा हूं, कभी क्रॉस चैक नहीं किया कि कितनी सही है लेकिन कहानी कुछ इस तरह है कि चीन के एक शासक की मां शासन में अच्‍छा दखल रखती थी। उसने जहां तहां गरीबों को देखा तो बहुत द्रवित हो गई। एक दिन उसने फैसला किया कि सभी अमीरों को पकड़कर बुलाया और उनकी संपत्ति जब्‍त कर ली। चीन के सभी समृद्ध लोगों का पैसा जब्‍त कर उसे चीन के सभी नागरिकों में बराबर बराबर बांट दिया। यानी अमीरों के पास भी उतना ही धन था जितना गरीबों के पास था। शासक की मां संतुष्‍ट हुई। गिरफ्तार अमीरों को छोड़ दिया गया। कुछ साल बाद पता किया तो स्थिति फिर से पहले की तरह हो गई थी। अमीर फिर से अमीर थे और गरीब अपने धन को खर्च कर फिर से गरीब हो गए थे। शासक की मां को अमीरों पर बहुत क्रोध आया, उसने फिर से यही प्रक्रिया दोहराई, लेकिन दो चार साल में फिर वही स्थिति हो गई। अमीर अमीर हो गए और गरीब फिर से फाके करने लगे। ऐसा शासक की मां ने सात बार तक किया, इसके बाद बताते हैं शासक ने अपनी मां की ही हत्‍या कर दी।

गरीबी स्‍टेट ऑफ माइंड है, यह बात अधूरा सत्‍य है, लेकिन गरीब गरीबी में खुश हो सकता है और अमीर अमीरी में दुखी हो सकता है, इसमें कोई दो राय नहीं। अपने प्रोफेशन के कारण मैं दोनों पक्षों से रूबरू होता रहता हूं। अगर किसी गरीब की सहायता करनी है तो केवल इतनी की जा सकती है कि उसके दुख के तात्‍कालिक कारण को हल कर दिया जाए, इससे उसका ध्‍यान एकबारगी अपनी दुश्‍वारी से हट जाएगा और वह दूसरे मुद्दों पर असंतुष्‍ट होने के लिए तैयारी करने लगेगा।

हमारे नेता यह बात बहुत पहले से जानते हैं, यही कारण है कि पांच साल तक गरीबी हटाने के प्रयास करने के बजाय चुनावों से ऐन पहले वे गरीबों के तात्‍कालिक दुखों का हल करने के लिए थोड़ा सा रुपया और थोड़ी सी दारू देते हैं और वोट खरीद लेते हैं। ये पार्टी यूं ही चलती रहेगी।

भूतकाल में भी ऐसा हुआ है, बाबे के ढाबे में भी यही हुआ और भविष्‍य में भी ऐसा ही होगा कि किसी गरीब को उसकी गरीबी से दूर किया जाएगा तो वह रिटेलिएट करेगा, क्‍योंकि गरीबी उसकी मां है…