तो हर्बर्ट स्पेंसर ने डार्विन को पढ़ा और उसमें से निकाला ‘सर्वाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट’। जो फ़िट है , वह सर्वाइव करेगा। लेकिन फ़िट कौन है ? और कैसे जाने कि वह फ़िट है ?
फ़िटनेस को हिन्दी में अनूदित करते समय भाषाई मजबूरी महसूस होती है। फ़िटनेस चुस्ती है ? फ़िटनेस स्वास्थ्य है ? या फिर फ़िटनेस कुछ और है ? क्योंकि जब तक फ़िटनेस का पता नहीं चलता , सर्वाइवल की बात हम कर नहीं सकते।
डार्विन ने यह जुमला नहीं गढ़ा था। उन्होंने तो जीवन के सन्दर्भ में प्राकृतिक चुनाव की बात कही थी। यह मन्त्र स्पेंसर ने अपनी मति-अनुसार निर्मित किया। और फिर यह मन्त्र-भर ही न रहा है , यह हिंसक चील-कौवों का शोर बन गया।
विज्ञान से विज्ञानेतर मन्त्र और नारे गढ़ना बुरी बात है। विज्ञान विशुद्ध ज्ञान है , उसमें तनिक उत्तेजना नहीं है। वह नीरस है , तो ठीक ही है। सरसता उसमें मिलाने से वह विज्ञान से विज्ञानेतर हो जाता है। फिर लोग उसका अनर्थ करते हैं। और अनर्थ से अत्याचार उपजता है और फिर संहार।
डार्विन के विकासवाद के अनुसार ‘फ़िट’ वह है , जो पर्यावरण के अनुसार ढल सके। समझौता फ़िटनेस है। बाढ़ में झुकी जाती घास फ़िट है , टूट कर छिन्न-भिन्न हो जाता विशाल वृक्ष अनफ़िट। आप चाहे उलटा समझते आये हों।
हम मनुष्य हैं। चिन्तनशील होना हमारा सबसे बड़ा गुण है। लेकिन चिन्तनशीलता आपको अपने से दूर हटाकर स्वयं को देखना सिखाती है। वह आत्ममुग्धि को नष्ट करती है। लेकिन संसार के सभी धर्म आपको पैम्पर करते हैं। वे आपको ‘वेरी गुड , यू आर द बेस्ट’ बताते हैं। हालांकि इसके पीछे भी एक मनोविज्ञान काम करता है।
धर्म आपको इसलिए पुचकार कर श्रेष्ठ बताता है कि आप अच्छे काम करें। यह किसी को साधु-साधु कहकर उसे उत्तरदायित्व बताने की कोशिश है। तुम मनुष्य हो , इसलिए उसके समान आचरण करो। लिव अप टू योर ह्यूमन स्टैंडर्ड्स। ये ही वे बातें हैं , जो ‘बड़े भाग मानुस तन पावा’ और ‘मानव तुम सबसे सुन्दरतम’ जैसी काव्य-पंक्तियों में ध्वनित होती हैं।
अगर संसार जलमग्न हो जाए , तो मानव संसार का श्रेष्ठतम जीव नहीं रहेगा। तब फ़िटनेस तैराकी की योग्यता से नापी जाएगी। तब ह्वेलें और मछलियाँ संसार के सर्वश्रेष्ठ जीव होंगे। आपका-मेरा मेधावी होना किसी काम न आएगा। हम सभी मेधा के साथ समुद्र की तलहटी पर पड़े होंगे।
संसार में अगर बिल-ही-बिल हों और बाहर खुले में हानिकारक माहौल , तो चूहे-छछूँदर-साँप विजेता होंगे। वे फ़िटेस्ट होंगे , इसलिए सर्वाइव करेंगे। तब जीवन सुराखों में पलेगा , वहीं बड़ा होगा। हम-मानव नष्ट हो जाएँगे क्योंकि हम बिल बनाना न जानते हैं और न उसमें समा सकते हैं।
तो जब शक्ति के उपासक दार्शनिक नीत्शे ‘ईश्वर मृत है’ कहते हैं , तो वे दरअसल चार्ल्स डार्विन की ही बात का दार्शनिक ध्वनन कर रहे होते हैं। सामाजिकी के लिए डार्विन को स्पेंसर दुहते हैं , दर्शन के लिए नीत्शे और राजनीति के लिए ? हिटलर।
विकासवाद शक्तिशाली का राज्याभिषेक नहीं है। डार्विन ईश्वर को हटा कर किसी अन्य को सृष्टि का राज्य नहीं दे रहे। वे मात्र चुनौतियाँ देती प्रकृति के अनुरूप ढलते जीव को बेहतर बता रहे हैं , जो आगे प्रजनन के अधिक अवसर पाएगा। उसके ही वंशज आगे दिखायी देंगे। जो नहीं ढल सके , वे नष्ट हो जाएँगे।
डार्विन विक्टोरियाई काल की सन्तान थे। यह वह समय था जब फ़्रांसीसी क्रान्ति की पृष्ठभूमि में नेपोलियन का सितारा उदीयमान् हुआ और अस्त भी हो गया। सारे मनुष्य बराबर हैं ! समता-स्वाधीनता-बन्धुत्व का नारा अब भी मेटरनिखों के कान में चुभ रहा था। अब भी राजे-महाराजे राज्य पर अपने दैवीय अधिकार से मुक्त न हो पा रहे थे। चारों ओर राजा के व्यापारी दौड़ लगा रहे थे। दुनिया कच्चे माल का बाग़ान और तैयार सामान की मण्डी बन चुकी थी।
ऐसे में एक आदमी आता है और वैज्ञानिक अध्ययन के बाद कहता है कि सभी जीवों का पूर्वज एक है। सभी एककोशिकीय जीव से बँटते-बँटते और जटिल होते हुए बने हैं। सभी जुड़े हुए हैं। सभी एक परिवार हैं। प्रकृति किसी ईश्वर से संचालित नहीं है। किसी दिव्य शक्ति ने जीवों का निर्माण नहीं किया। जीवन किसी दिशा की ओर नहीं जा रहा , वह मात्र वर्तमान में ढल रहा है।
धर्मगुरुओं को बुरा लगना ही था। क्यों न लगता। उनके हज़ारों-हज़ार के मत पर यह नया लेकिन सबसे शक्तिशाली कुठाराघात था। इस आदमी के पास चिड़ियों की , कछुओं की , मछलियों की , कीड़ों , पेड़ों की , पौधों की ताक़त थी। वह अध्ययन करता था और वर्गीकरण करता था। ध्यान से बनाये ऑब्ज़र्वेशनों के बल पर उसने धर्मों से कहा कि सर्जना-शक्ति तुम्हारी नहीं है। प्रकृति स्वयं स्पीशीज़ की रचना करती है।
मनुष्य से उसका ईश्वर छीनना एक बड़े जोखिम का काम है। ईश्वर के तले जितने भी शोषण किये गये हैं , वे सभी विज्ञान का साथ पाकर द्विगुणित हो जाते हैं। डार्विन का मनुष्य को जन्तु के स्तर पर ‘गिराने’ ने उन लोग की बाँछें खिला दी थीं , जो कमज़ोरों के दोहन के लिये नयी तकनीकी की फ़िराक़ में थे।
धर्मसत्ता को डार्विन ने नाराज़ कर दिया था। राजसत्ता को लेकिन उन्होंने नया असलहा दे दिया था। वैज्ञानिक बीसवीं सदी के नये पादरी बन कर उभर रहे थे।
विज्ञान को तब धर्म नहीं होना था। विज्ञान को आज भी धर्म नहीं होना है। विज्ञान को संवाद करना है — स्वयं से , सभी से। उसे प्रयोगजीविता से आगे बढ़ना है और उस प्रयोगजीविता में कल्याणभाव पिरोना है।
स्कन्द शुक्ल
लेखक पेशे से Rheumatologist and Clinical Immunologist हैं।
वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं और अब तक दो उपन्यास लिख चुके हैं