आपने पिछले पांच छह सालों में एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों स्थानों पर इस आशय का लेख पढ़ा होगा कि सेल्फी खींचना किस प्रकार गलत है, या सेल्फी से क्या नुकसान होता है या सेल्फी इस सदी की सबसे बड़ी त्रासदी है। चलिए इस मुद्दे पर आगे बात करने से पहले आपको रिसर्च इंस्टीट्यूट के बारे में बताना चाहूंगा। हर रिसर्च इंस्टीट्यूट में एक भाग आवश्यक रूप से होता है, उसे कहते हैं एक्सटेंशन एज्युकेशन यानी शिक्षा प्रसार। इसका क्या अर्थ है, इसका अर्थ है कि वैज्ञानिकों ने जो शोध करके उपलब्धि हासिल की है, उसे आम जनता तक पहुंचाया जाए ताकि लोग उससे लाभान्वित हो सकें।
ये रिसर्च इंस्टीट्यूट भारत में केवल सरकारी होते हैं और विदेशों में सरकारी और प्राइवेट दोनों प्रकार के होते हैं। अगर किसी वैज्ञानिक ने काम की चीज का शोध कर लिया है तो वह तुरंत भागता है और अपने शोध को पेटेंट करा लेता है, ताकि दूसरा को उसका उपयोग नहीं कर सके।
भारत में यह स्थिति है कि अधिकांश शोध संस्थानों के शिक्षा प्रसार कार्यालय कमोबेश फेल साबित होते हैं और वैज्ञानिकों द्वारा की गई शोध जिसका कि बड़े पैमाने पर लाभ हो सकता था, फाइलों की धूल खाते रहते हैं। कुछ खोजी लोग अपने काम की चीज निकाल लेते हैं, लेकिन फील्ड में काम कर रहे लोगों के लिए यह अनछुआ पहलु ही रहता है।
अब वापस लौटते हैं सेल्फी की त्रासदी की ओर, पूर्व के किसी इंस्टीट्यूट ने आज तक सेल्फी पर शोध नहीं किया है। लेकिन पश्चिम के एक नहीं बल्कि कई रिसर्च इंस्टीट्यूट ने बारंबार ऐसे शोध पेश किए हैं…
- सेल्फी लेने वाले अपने दिमाग में खुद की अच्छी इमेज नहीं बना पाते हैं
- जिम में सेल्फी लेने वाले मेंटल डिसऑर्डर का शिकार होते हैं
- सेल्फी आपकी फेक इमेज बनाता है
- सेल्फी गंभीर मनोवैज्ञानिक समस्याएं पैदा करता है
इस प्रकार के ढेरों लेख आपको फोर्ब्स से लेकर हफिंगमैंन पोस्ट तक मिल जाएंगे। इन लेखों में कहीं भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह नहीं बताया गया है कि इस प्रकार की समस्या क्यों पैदा होती है, हो सकता है कि इसका कारण बहुत अधिक तकनीकी कारण होना रहा हो और समाचारपत्र जैसे मनोरंजक माध्यम में उसे देना संभव नहीं रहा हो, फिर भी पश्चिमी मीडिया अर्से से सेल्फी के खिलाफ अपना अभियान जारी रखे हुए है।
अच्छी बात यह है कि अज्ञात स्रोतों से हो रहे इस प्रकार के शोधों को मीडिया भी बहुत गंभीरता और प्रमुखता के साथ पेश करता रहा है। अब समाचारपत्र का इसमें क्या इंटरेस्ट है ?? यह हम आगे विचार करेंगे, कुल मिलाकर जो दिखाई देता है वह यह है कि अनाम रिसर्च इंस्टीट्यूट और मीडिया मिलकर सालों से इस तथ्य को आम जनता के सामने रखते रहे हैं।
फ्रंट कैमरा जो कि संचार क्रांति की एक सहायक उपज के रूप में तेजी से फैला, हालांकि पहला फ्रंट कैमरा सोनी कंपनी ने 2003 में ही बना लिया था, लेकिन आईफोन ने पहली बार 2007 में कुछ अच्छी इमेज वाला फ्रंट कैमरा दिया जो कि आईफोन के फेसटॉक के काम आ सकता था। हालांकि संचार क्रांति ने सरकारों को परेशान करना शुरू कर दिया था, सो कायदे से इस क्रांति पर लगाम लगाई गई। तकनीक का गला तकनीक से ही घोंटा गया और आज भी हम शोध और संसाधन के बावजूद बेहतर इंटरनेट सेवाएं नहीं ले पा रहे हैं, इसका नतीजा यह हुआ कि वीडियो चैटिंग की गरज से मोबाइल के अग्र भाग में चस्पा हुआ कैमरा केवल सेल्फी के काम का रह गया।
जैसा कि जुरासिक पार्क में एक मशहूर कथन है “जिंदगी अपना रास्ता तलाश लेती है” उसी प्रकार फ्रंट कैमरे ने भी अपने अस्तित्व का रास्ता वीडियो कॉलिंग से हटाकर सेल्फी में तलाश लिया। अब यही सेल्फी त्रासदी साबित हो रही है कॉर्पोरेट बाजार के लिए…
यही टर्निंग प्वाइंट है। आज जहां हर छोटा बड़ा शोध आम लोगों तक पहुंचने से पहले दम तोड़ू उपेक्षा का शिकार होता है, वहीं इस प्रकार के फर्जी शोध जो सेल्फी को समस्या बताते हैं, बार बार हमारी आंखों के सामने से गुजरते रहते हैं। आखिर क्या कारण है…
अगर आप अपना आपा खो दें, या कहें कि आप अपनी क्षमताओं को भूलने लगें तो साइकोलॉजी की एक पुरानी ट्रिक है “पॉजिटिव सेल्फ इमेज”। सालों पहले क्लिनिकल साइकोलॉजी में रोगी को कांच के सामने खड़े होकर खुद के बारे में बेहतर बोलने के लिए कहा जाता था। इससे रोगी अपनी समस्या से बाहर आ जाता। सेल्फी यहीं पर कॉर्पोरेट का सबसे बड़ा नुकसान कर रही है। हम कभी दुखी, उदास या चिंता में होन पर सेल्फी नहीं लेते हैं, सेल्फी लेने का सबसे सही वक्त होता है जब हम प्रसन्न, संतुष्ट और दिखावा करने की मुद्रा में होते हैं। ऐसे में सुखद क्षणों के चित्र हमारे पास सुरक्षित रह जाते हैं। यही सेल्फी की खासियत है।
इससे कॉर्पोरेट को क्या नुकसान है ?
यही मिलियन डॉलर का सवाल है (डॉलर की आज की रेट पता करना भाई) कॉर्पोरेट कभी अपने उपभोक्ता को टेलर मेड सॉल्यूशन नहीं देता, वह हमेशा मॉस (समूह) के लिए काम करता है। ऐसे में उसे एक उत्पाद के साथ आम आदमी की छवि बनानी पड़ती है, ताकि संदेश से अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे और लोग उस उत्पाद को खरीदने लगें। सेल्फी खींचने वाला शख्स उस आम आदमी से खुद को अलग करने लगता है। इसका परिणाम यह होता है कि कॉर्पोरेट का प्रचार भोथरा होने लगता है। अब अगर विशिष्ट छवि लिए विशिष्ट लोगों होंगे तो उन्हें अपने लिए टेलर मेड सॉल्यूशन चाहिए होंगे, जो देना कॉर्पोरेट के लिए संभव नहीं है।
Illustration : Pawel Kuczynski