राजस्थान ही क्या, मालवा और गुजरात आदि में बसाए गए अधिकांश नगर (पुर, मेरु : मेर, नेर, गढ़, पाटन, वाड, सर, पाल… आदि नामांत वाले) वैशाख शुक्ला बीज और तीज की स्थापना वाले हैं। ये अबूझ मुहूर्त हैं। अन्य सभी मुहूर्त शोधन के लिए बड़ा प्रयास करना पड़ता है जबकि अक्षय तृतीया को स्वयं सिद्ध माना गया है। इस दिन कुछ न कुछ नवाचार करने की परंपरा थी और वैसा किया भी जाता। बहुत बाद में लोगों को इसका पता चलता। नगर निवेश के लिए तब कोई आधिकारिक आदेश नहीं जारी होता था।

पश्चिमी भारत में वाड़, बाड़, गोर, गोरमा, हेड़ा, ढीया, ढूहा, रूण, कूण, खूण आदि शब्द अनेक रूपों में सीमाओं के सूचक हैं और नदी, प्राकृतिक स्रोत, पहाड़, किसी प्राचीन चैत्य वृक्ष, चट्टान, अरण्य अथवा महाशिला ( हाथी भाटा) से किसी क्षेत्र की सीमा को निर्धारित मानकर उसकी पहचान की जाती। माही नदी की वाड़ से मेवाड़ ( माहीवाड़) नाम हुआ। मरु ( रेतीले क्षेत्र) से मारवाड़ (मरुधन्व), आबू पर्वत के नीचे विस्तार से गोड़वाड़ आदि। धुंध के पहाड़ की आड़ से ढूंढाड़! जल की शिराओं और जलस्रोत के कारण सर नामांत मिलता है। लूणकरणसर, जैतसर, नांदेसर, भदेसर आदि।

नगरों के नामों में पुर के पीछे भरण पोषण, मेरु सुमेरु जैसे पौराणिक पर्वत और नेर ( जिसका स्मरण मेगास्थनीज ने भी किया है) सीमा जैसे कारण है। भागल, खेड़ा, हेड़ा, बाड़ियां, आदि नाम मुख्य गांव की ताले जैसी उप बस्तियां होती हैं और कई उपबस्तियां मुख्य गांव से अलग होकर आसपास बसती हैं। बामनियां गांव से अलग होकर गांव ही नहीं, लोग भी अपनी पहचान बामनिया रखते हैं। यह परंपरा सिंधु हड़प्पा काल से ही चली आ रही है। पछमता, गिलुंड, राज्यावास जैसे गांवों की बसावट बहुत कुछ कहती है। महिलाएं जानती हैं कि अलग हुए पहले चूल्हे पर कब और क्या पकाया जाता है!

मैंने जब उदयपुर की स्थापना तिथि के अक्षय तृतीया होने का निश्चय किया तो सबसे पहले नगर निवेश के मुहूर्त देखे। वराहमिहिर ( 587 ई.) और श्रीपति भट्टाचार्य ( 1029 ई.) ही नहीं, सर्वाधिक वास्तु ग्रंथों में भी इसके निर्देश देखे : उत्तरायण हो लेकिन चैत्र नहीं हो, मासदग्ध, वारदग्ध आदि तिथियां, उत्पात, दूषित नक्षत्र, भद्रा, व्यतीपात, वैधृति जैसे योग नहीं हो तो ऐसा मुहूर्त युगादि तिथि अक्षय तृतीया का मिला। उदयपुर ही नहीं, मारवाड़ में जोधपुर, पाली, बीकानेर, नागौर, चुरू, अजमेर, पुष्कर, मेड़ता और अनेक ठिकाने तथा गांव भी। फिर, इनके शिलालेख और अन्य दस्तावेज़ भी मिल जाते हैं।

यह अलग बात है कि समय समय पर दैवज्ञों ने शासकों को विश्वास दिलाया कि वैशाख मास और द्वितीया तथा तृतीया तिथियों में विस्तार और वैभव की संभावना रहती है। यह मान्यता गुजरात के लूनावाड़ा, पाटन, भावनगर, कर्णावती, वंथली, साबर कांठा, ईडर, भुज, जामनगर… आदि से भी जुड़ी है।

कितना रोचक तथ्य है जिसकी पुष्टि अभिलेखों से होती है। द्वितीया को दो और तृतीया को तीन काम करने का श्रेय भी लिया गया, जैसे द्वितीया की नगर और जलस्रोत की बुनियाद। तृतीया को नगर, सरोवर और देवमंदिर। महाराणा उदयसिंह ने एक ही दिन तीन काम संपादित किए : उदयपुर, उदयसागर और उदय श्याम मंदिर। इसके बाद, यही क्रम महाराणा राजसिंह ने ( माघ मास में) दोहराया : राजसमंद, राजनगर और राज राजेश्वर। महाराणा जयसिंह ने तो कुंवरपदे से ही ये काम किए लेकिन नाम हुआ : जयसमंद, जयनगर और जयसिंह श्याम मंदिर से।

अनोखी मान्यताएं हैं नगर निवेश की। बड़ी ही गंभीर और जोखिमों से भरी लेकिन एक जनश्रुति सब कुछ आसान कर देती है : राजाजी ने खरगोश मारा और नगर की नींव रख दी! देश भर में ऐसी बातें भी चलाई गईं। इस जनश्रुति के पीछे कई पिचकारियां होती हैं।


( पंडित हेमाद्रि द्वारा 1260 ई. में देवगिरि में संकलित “चतुर्वर्ग चिंतामणि” मुहूर्तों का कोश और धर्मशास्त्र है। एक मुहूर्त कितने ग्रंथ में किन – किन रूप में लिखा गया है, सबको पाठ भेद सहित हेमाद्रि ने उद्धृत किया है। हेमाद्रि ने मत्स्यपुराण, विश्वकर्मा, अपराजित, सिद्धार्थ आदि सभी के मत संग्रह किए और कहा की घर हो या नगर, मंदिर हो या शाला…
1. चैत्र में स्थापना से गृही को व्याधि और शोक होता है,
2. वैशाख में धन और रत्न प्राप्ति,
3. ज्येष्ठ में मरण,
4. आषाढ़ में सेवक और रत्न सहित पशुधन प्राप्ति,
5. श्राण में सेवक लाभ,
6. भादौ में महा हानि,
7. आश्विन में पत्नी मरण,
8. कार्तिक में धन धान्य,
9. मार्गशीर्ष में भोजन,
10. पौष में चोरों और आतंकियों का भय,
11. माघ में बहुत लाभ और ऊर्जा और
12. फाल्गुन में सोना और पुत्रादि।
ये काल बल से संभव होते हैं। इसको सभी वास्तुकारों ने स्वीकार किया है।)

लेखक : श्रीकृष्‍ण जुगनू