अण्डे से जीव की उत्पत्ति की बात सदियों से लोगों को पता है । यूनिवर्स को हम आज बिग बैंग से पैदा भले मानते हों , लेकिन पुराने लोग किसी स्वर्णिम अण्डे से समस्त सृष्टि का जन्म मानते रहे हैं। यहाँ तक कि बिग बैंग को भी कॉस्मिक एग कह दिया जाता है , भले ही उसमें सामान्य अण्डे-जैसा दिखने में कुछ भी न हो। भारतीय शब्द ‘ब्रह्माण्ड = ब्रह्म का अण्ड’ इसी सोच के आधार पर गढ़ा गया है।
फिर लेकिन आम आदमी की सोच अण्डे को मुर्गी से जोड़ कर देखती है। बावजूद इस सत्य के कि अण्डे तो हम भी देते हैं। यह अलग बात है कि मानव-अण्ड सुई के सिरे के बराबर आकार का होता है और हर महीने स्त्री-देह में बनता है। निषेचन हुआ तो ठीक , नहीं तो उसे मासिक रक्त-स्राव के साथ बाहर निःसृत कर दिया जाता है।
अण्डे को समझना सृष्टि को समझना है। जीव के अण्डे से आप उसके विकास के कई रहस्यों के इशारे पा सकते हैं। मनुष्य-जैसे स्तनपाइयों के अलावा पक्षी , सरीसृप , उभयचर और मछलियाँ भी अण्डे देती हैं। लेकिन सारे अण्डे एक-से नहीं हैं। न उनके आकार एक हैं , न रूप-रंग , न आकृति। आदमी (औरत) के अण्डे को आप शुतुरमुर्ग के अण्डे के बगल में रख कर कल्पित कीजिए कभी!
मानव-स्त्री का अण्डा अण्डाणु कहलाता है और वह उसकी (स्त्री की) आनुवंशिक सामग्री भीतर समेटे है। अगर उसका मिलन किसी शुक्राणु से हुआ , तो एक नये जीव का आरम्भ स्त्री-गर्भ में होने लगेगा।
अगर मैं आपसे पूछूँ कि स्त्री के अण्डाणु और मुर्गी के अण्डे में आपको कैसी भिन्नताएँ लगती हैं , तो शायद आप आकार के अलावा बाहरी सफ़ेद खोल की बात करें। तमाम जीवों के अण्डे कैल्शियम कार्बोनेट के छिलके से ढँके होते हैं , मानव-अण्डाणु के चारों ओर यह छिलका नहीं होता।
फिर प्रश्न उठता है कि हमारी स्त्रियों को कैल्शियम कार्बोनेट के इस खोल की आवश्यकता क्यों नहीं है। तो इसके लिए अगला प्रश्न यह पूछिए कि वे कौन-कौन से जीव हैं , जिन्होंने अपने अण्डों के बाहर कैल्शियम या किसी अन्य तत्त्व से बने रसायन का खोल रचा है। साथ ही कैल्शियम कार्बोनेट की रासायनिक प्रकृति की समझ भी कुछ इशारे करती है।
मछली या मेढक के अण्डे कैल्शियम कार्बोनेट से ढँके नहीं होते। यह कैल्शियम-खोल सबसे पहले आपको सरीसृपों में मिलेगा। साँप-मगरमच्छ-छिपकलियाँ विकासक्रम में पहले जीव हैं , जो अण्डों के बाहर कैल्शियम का खोल रचते हैं।
मछलियाँ पूर्ण जलचर हैं , मेढक-जैसे उभयचर भी अण्डे पानी में देते हैं। जल में रहने वालों को किसी कड़े खोल की बहुत ज़रूरत नहीं। लेकिन थल में अण्डे देते ही बात बदल जाती है। जलधार में अण्डों की लड़ियाँ इधर-उधर जलमग्न लहराती रहेंगी, लेकिन धरती पर हवा चल रही है — वह गीले कोमल अण्डे को सुखा कर भीतर पनपते जीव को मार देगी। शुष्कता मृत्युकारिणी है , इसलिए ऐसा एक कवच चाहिए जो हवा का प्रहार नन्हें जीव पर रोके। ऐसे में सृष्टि खोल का खेल रचती है।
लेकिन फिर कैल्शियम कार्बोनेट ही क्यों? इस बात का एक महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध वातावरणीय अम्लीयता से है। अम्ल के प्रहार से विकसित होता जीव न मरे , इसलिए एक ऐसा रसायन ज़रूरी था जो ज़रूरत पड़ने पर अम्लों से रासायनिक अभिक्रिया करके उन्हें निष्क्रिय ( उदासीन ) कर सके। ऐसे में कैल्शियम का यह रसायन बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ।
मुर्गी का अण्डा हमें पक्षियों के संसार के अद्भुत रहस्य-लोक में ले जाता है। यह बात पुरानी हो चुकी कि पहले मुर्गी हुई कि अण्डा। कभी इस बात पर भी ग़ौर कीजिए कि मुर्गी से अण्डा किस सिरे से बाहर आया और क्यों। और अण्डे के निकलने के इस ढंग को मुर्गी के प्रजनन-तन्त्र की महत्त्वपूर्व जानकारी से जोड़ कर समझिए।
अण्डे चौकोर क्यों न हुए ? चौकोर अण्डे का क्या नुकसान हो सकता है ?
ध्यान से संरचना पर थोड़ा ग़ौर किया जाए तो पता चल जाएगा कि नुकीले चार कोनों वाले चौकोर अण्डों की दीवारें कितनी कमज़ोर होंगी और वे आसानी से टूट जाएँगी। लेकिन फिर एकदम गोल भी तो हुआ जा सकता था।
मुर्गी का अण्डा गोल भी हो सकता था : जैसे उल्लुओं-बाज़ों का होता है। लेकिन मुर्गी ने एक ख़ास नुकीला अण्डाकार अपने अण्डों में विकसित किया। इन्हें बाहर निकालते समय पहले अण्डे का नुकीला सिरा बाहर निकलता है और फिर चौड़ा सिरा बाद में।
इन नुकीले अण्डाकार अण्डों के इस आकार का कोई और फ़ायदा ? कभी मुर्गी के अण्डे को लुढ़का कर देखिए : वह अपने नुकीले सिरे के चारों ओर एक चक्कर लगा कर वहीं रुक जाता है , दूर नहीं जाता। यह एक आकृति से होने वाला बचाव है।
फिर नुकीले अण्डाकार अण्डों को संग रखने में आसानी होती है। अण्डों का परस्पर साथ उन्हें गर्म रखता है और उन्हें ठण्ड से सुरक्षा देता है।
पक्षिजगत् विचित्र है। अपेक्षाकृत छोटी चिड़ियाँ अपनी देह की तुलना में बड़े अण्डे देती हैं और बड़ी चिड़ियों के अण्डे छोटे होते हैं। एक हमिंगबर्ड से उसके अण्डे के आकार की तुलना कीजिए और फिर शुतुरमुर्ग से उसके अण्डे का मिलान करिए !
यह भी सत्य है कि तेज़ और ऊँचा उड़ने वाली चिड़ियों के अण्डे अधिक अण्डाकार व लम्बे होते हैं , ताकि उनमें विकसित होते भ्रूण लम्बे-पतले आकार विकसित कर सकें जो उड़ने में मददगार हों। जितना मज़बूत उड़ाकू , उतना लम्बा अण्डाकार अण्डा !
गोल अण्डों के निर्माण में कम कैल्शियम का ख़र्चा है , उन्हें बनाना किफ़ायती है। सम्भवतः उल्लुओं-बाज़ों ने कैल्शियम की कमी से निपटने के लिए अपने अण्डों को अनजाने इस आकार में ढाल लिया हो।
अण्ड-संसार अद्भुत है ! जीवन के अनगिनत उड्डयन-रहस्य स्थिर-निष्क्रिय अण्डों को पढ़कर जाने जा सकते हैं!
अण्डा ज़मीन पर निष्क्रिय पड़ा है , लेकिन उससे हमें जीवन की उम्मीद है। हो सकता है उसमें जीवन हो , जीवन का पोषण भी।
पहलवानजी हॉलीवुड-फ़िल्में देखते हैं। मैं जब उनसे अण्डे का फण्डा पूछता हूँ , तो वे कैप्सूल का ध्यान करते हैं। ज़िन्दगी का कैप्सूल जिसमें कोई जान बन्द है। उसके भीतर वह पनप रही है। कभी बाहर निकलेगी। फिर पंख फड़फड़ाएगी। उड़ सकेगी तो उड़ जाएगी।
पहलवानजी जानते हैं कि अण्डे में जो चूज़ा है , वह खाता क्या है। अण्डे में उसकी मम्मी उसके लिए काम भर का आहार रख छोड़ती है। उसे खाते जाओ , विकसित होते जाओ। परिन्दे बनने की तैयारी करो। फिर चोंच मारकर खोल तोड़ दो। बस फिर दुनिया तुम्हारी है। फुर्र !
लेकिन हर अण्डा जीवधारी नहीं होता — यह सुनने पर पहलवानजी के चेहरे पर शंका की सलवटें उभरती हैं। आप साइंस वाले हर बात में पेंच डाल देते हो ! अजी क्यों नहीं होता जीव ? बिलकुल होता है !
जवाब में मैं पहलवानजी के सामने अपनी उँगली की खाल दाँतों से काटकर उनके सामने रख देता हूँ और पूछता हूँ : “इसमें जीव है ?” वे नकारते हुए जवाब देते हैं। आपकी खाल आप थोड़े ही हो। वह बेजान है , उसमें जीवन नहीं है।
मैं पहलवानजी से अपनी खाल के बेजान होने का कारण नहीं पूछता , इतनी गहराई तक वे शायद न जा पाएँ। लेकिन फिर उनसे यह कहता हूँ कि मेरी चमड़ी के इस टुकड़े में मेरी त्वचा की जीवित कोशिकाएँ हैं। वे कुछ देर मुझसे अलग होकर जीवित रहेंगी और फिर मर जाएँगी। उन कोशिकाओं से मेरा डीएनए लेकर कोई नया स्कन्द बना सकता है। लेकिन फिर भी मेरी त्वचा के इस टुकड़े का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। कोशिकाओं का समूह होकर भी वह जी नहीं सकता। जल्द दम तोड़ देगा।
फिर मैं पहलवानजी से दूध के बारे में पूछता हूँ। क्या दूध में जीवन है ? वे फिर ‘न’ कहते हुए सिर हिलाते हैं। जबकि सत्य यह है कि दूध की एक बूँद को अगर सूक्ष्मदर्शी के नीचे देखा जाए तो ढेरों कोशिकाएँ तैरती मिलेंगी। आँख को नहीं दिखीं , तो हमने दूध को पदार्थ-मात्र मान लिया।
पहलवानजी माइक्रोस्कोप से जीवन होने- न होने को नहीं तय करते। वे आँखों से दिखने वाले जीवन पर ही ममता महसूस कर पाते हैं। लेकिन फिर दीखते तो शुक्राणु भी नहीं हैं। उन्हें भी माइक्रोस्कोप से ही देखा जा सकता है। उनके जीवित होने में कोई सन्देह नहीं है , लेकिन दूध में तैरती या खाल में मौजूद कोशिकाओं को जीवित मानने में है।
मुर्गी का अण्डा दरअसल एक कोशिका है। जी हाँ , वन सिंगल सेल। वह मुर्गी के डीएनए को भीतर लिये मुर्गे के शुक्राणु का इन्तज़ार करता है। अगर निषेचन हुआ तो भी बाहर निकलता है और नहीं हुआ तो भी।
पहलवानजी के एक दोस्त कच्चे अण्डे दूध में फेंटकर पीते हैं। मैं कच्चे अण्डों को फेंटकर पीना तो दूर , छूने के लिए भी मना करता हूँ। कारण साल्मोनेला नामक जीवाणु हैं। वे अण्डों के कैल्शियम-खोल से होते हुए भीतर प्रवेश कर जाते हैं। ऐसा तब हो सकता है , जब मुर्गी अण्डे देती है। लेकिन अपनी देह में साल्मोनेला होने के बाद भी मुर्गी को उससे कोई हानि नहीं पहुँचती। हानि उन्हें कच्चा खाने पर इंसानों को सकती है : पेट में दर्द , उल्टियाँ , दस्त-इत्यादि साल्मोनेला-संक्रमण के लक्षण हैं।
अण्डा अगर जीवन लिये है , तो उसमें हवा जा रही है। अगर नहीं , तो भी। कैल्शियम के खोल में कई छेद हैं और खोल के भीतर दो झिल्लियाँ। उनके बीच में एक हवा की थैली है , जिसमें ऑक्सीजन रखी जाती है और कार्बन-डायऑक्साइड निकाली। चूज़ा इसी हवाई गुब्बारे के माध्यम से वायुमण्डल से सम्पर्क में रहता है।
अण्डे में बैठा चूज़ा शायद हमारी बातें सुन रहा हो। या शायद अण्डे में चूज़ा हो ही नहीं। मुर्गी-फ़ार्म में उसका मुर्गे के शुक्राणु से मिलन हुआ हो या शायद न हुआ हो। पहलवानजी उसे नहीं खाएँगे , यह वे कह चुके हैं। उनके लिए जीवन वही है जो आँखों को दिखता या दिख सकता है। माइक्रोस्कोपीय मौतें उनके लिए महत्त्व नहीं रखतीं। हाँ , शुक्राणु की बात और है : उसके लिए सारे नियम दरकिनार हो जाते हैं।
स्कन्द शुक्ल
लेखक पेशे से Rheumatologist and Clinical Immunologist हैं।
वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं और अब तक दो उपन्यास लिख चुके हैं