आंवला रसायन है और कल्प दृष्टा भी। उसके प्रति कायाकल्प जैसी रसायन सम्मत और आयुर्वेदिक मान्यता यूंही नहीं जुड़ गई। ऋषि च्यवन की कहानी में कितने सूत्र इस फल के गुण और उपयोग के हैं! आयुर्वेद की कहानियां हम कम ही सुनते सुनाते हैं। यह कार्तिक की कीर्ति कथा है।
चार युग हैं : कृत, त्रेता, द्वापर और कलि। इन युगों के प्रमाण कब से हैं और उनमें अवतार ही नहीं, प्रजा की स्थितियां कैसी थीं, यह बहुत रोचक वर्णन मिलता है। साथ ही चारों ही युगों के आरंभ होने की तिथियां निर्धारित की गई हैं। इनमें त्रेतायुग के आरंभ होने की तिथि कार्तिक शुक्ल नवमी को माना गया है :
कार्तिके शुक्लपक्षे तु त्रेयायां नवमेऽहनि।
(बृहद्दैवज्ञ रंजनम् 22, 29)
इसको अक्षय कहा गया है, वैशाख शुक्ला तीज भी अक्षय तृतीया के नाम से ख्यात है, क्योंकि उस दिन कृतयुग की शुरूआत मानी गई है। मत्स्यपुराण में भी इस बात का संकेत है, हालांकि पुराणकार मनु आदि संवत्सरों के आरंभ होने की तिथियों पर अधिक विश्वस्त है लेकिन वसिष्ठ संहिता (12, 36) और नारदसंहिता में भी युगादि तिथियों की मान्यता निश्चित है और इन तिथियों में किए जाने वाले कार्यों की ओर संकेत किया गया है। श्री अत्रिजी संकेत करते हैं :
विषुवन्तं द्विरभ्यस्तं रूपोनं षड्गुणीकृतम् ।
पक्षा यदर्धं पक्षाणां तिथिः स विषुवान् स्मृतः॥
माघ शुक्ल प्रतिपदा में पूरे तीन सौर मास जोड़ने पर युग की प्रथम विषुव तिथि प्राप्त होती है (वैशाख शुक्ल तृतीया)। इसमें पूरे छः सौर मास जोड़ने पर द्वितीय विषुव की तिथि कार्तिक शुक्ला नवमी प्राप्त हो जाती है।
पूर्वकाल में इन तिथियों के निर्धारण के मूल में क्या प्रयोजन था, संभवत: यज्ञ कर्म ही रहा हो लेकिन स्त्री स्मृति में इस दिन फलते आंवला के पेड़ के नीचे बैठकर भोजन करना है। बाद में आंवला की पूजा कर फल ग्रहण करने का विचार हुआ। स्त्रियों ने ही मन:पूर्वक आंवला की चटनी बनाई और अपने आत्मीय जनों को शक्ति और स्फूर्तिवान किया।
च्यवन ऋषि की कथा यही सच कहती है। दुनिया में चटनी (अवलेह) निर्माण की ये पहली कहानी है। आंवला से स्नान का महत्व हर कोई जानता है। लेकिन, कहानी कही जाती है कि नारायण के दर्शन को ब्रह्मा इतने आकुल हो गए कि आंखें छलक आई और जहां जहां आंसू गिरे, वहां वहां आंवले उत्पन्न हुए!
वास्तु में आंवला का अपना पक्ष है। जब मन्दिर बने, उनके शिखर पर आंवला को स्थापित किया गया। क्यों? क्योंकि शुंगकाल में आंवला आकर की पगड़ी, आंवले से सिर के आभूषण लोकप्रिय थे और यही आंवला पाषाण का बना कर देव गृहों को धारण कराया जाने लगा। वास्तु ग्रंथों में इसकी बड़ी महिमा है। कौन जानता है? अन्य बातों के संबंध में ग्रंथ मौन ही अधिक साधे हैं। हां, इनको पुण्यप्रद मानकर इनके साथ दान करने की प्रवृत्तियों का लेखन अवश्य मध्यकाल से जुडा दिखाई देता है :
युगारंभे तु तिथयो युगाद्यास्तेन कीर्तिता:।
तासु दत्तं हुतं किंचित्सर्वं बहुफलं भवेत्।।
पर्व त्यौहार विषयों की जानकारियों से संपन्न बृहत् नारद पुराण में इस दिन के लिए पीपल का प्रसंग आया है :
कार्तिक शुक्ल नवमी याऽक्षया सा प्रकीर्तिता।
तस्यामश्वत्थमूले वै तर्पणं सम्यगाचरेत्।।
देवानां च ऋषीणां च पितृणां चापि नारद।
स्वशाखोक्तैस्तथा मन्त्रै: सूर्यायार्घ्यं ततोऽर्पयेत्।। ( अ. 118, 23-24)
परंपरा में यह तिथि आंवला नवमी है और आक्खी नौमी भी। ये वनोत्पादन की स्मृतियों की साक्ष्य है। आंवला या आंवली के नीचे सकुटुंब भोजन की परंपरा लिए है। इस दिन त्रिपुरा सुन्दरी का आंवले से शृंगार होता है। त्रिपुरदहन की तैयारी भी। आंवला नवमी को ही गौ क्रीडन होता है। इस बार दीपावली पर सूर्य ग्रहण होने से उस पर्व के अनेक आयोजन आज हो रहे हैं।
इसके ‘अक्षय’ होने के मूल में इनको मुहूर्त के रूप में स्वीकारा जाना था। यह मान्यता संभवत: उस समय से रही हो जबकि कृत्तिका से नक्षत्राें की गणना की जाती रही हो और तब देवसेनापति कार्तिकेय के प्रभाव का दौर रहा हो, इस मास में कार्तिकेय के साथ जुड़ी तिथियों में लाभ पंचमी से लेकर पूर्णिमा तक रही है… लेकिन यह तिथि शुभ कार्यों के आरंभ करने के लिए उपयुक्त रही है। बाद में देवोत्थान एकादशी को पुण्यदायी मानकर उस दिन से शुभ, मांगलिक कार्य करने की मान्यता का विकास हुआ हो, जैसा कि वैष्णव पुराणों का झुकाव रहा है…।
इस युगारंभ तिथि की सब आत्मिक मित्रों और
परिजनों को शुभ कामनाएं।
संदर्भ : नवीन वृक्षायुर्वेद।
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लेखक : श्रीकृष्ण जुगनू, उदयपुर