स्किजोफ्रीनिया के रोगी अंधविश्वासी होते हैं वे न केवल ईश्वर को देखते हैं बल्कि उनसे वार्तालाप भी करते हैं और कई बार उनके आदेशों को मानकर बलि देने जैसे कामों को भी अंजाम दे देते हैं। भारत में एक स्किजोफ्रीनिया के रोगी ने एक रात में लोहे की रॉड से सड़क के किनारे सो रहे इकतालीस लोगों की हत्या की और शांति से अपने घर में जाकर बैठ गया। पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। उस समय में उस रोगी के चेहरे पर असीम शांति थी। क्योंकि यह सब उसने सूर्य भगवान के निर्देश पर किया था। सूर्य भगवान रोज उससे बातें किया करते थे। यह रोगी दिल्ली की तिहाड़ जेल में है। पिछली जानकारी तक तो.. आज का पता नहीं।
खैर यहां डराने की नहीं बल्कि हकीकत तक पहुंचने की बात है। करीब दस साल पहले मैंने एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साइकोलॉजिस्ट (अब उनका निधन हो चुका है) से इस बारे में पूछा था। तब उन्होंने जो समझाया आज तक समझने के स्तर पर उससे बेहतर और कोई जवाब मिला नहीं है। इस बारे में मैंने न्यूरोलॉजिस्ट से लेकर साइक्रेटिस्ट और अन्य साइकोलॉजिस्ट से भी बातें की लेकिन किसी के दिमाग में इसकी स्पष्ट तस्वीर नहीं है।
लक्षण: स्पष्ट तौर पर सिर्फ एक संदेह। हर किसी पर, हर परिस्थिति पर और हर कोण से। बाकी बातें बाद में आती हैं।
कैसे होता है: इसे साइको सोमेटिक डिसऑर्डर कह सकते हैं। यानि शारीरिक क्षति का भुगतान मानसिक अवस्था करती है।
आम बोलचाल में: इसे समझिए कि दिमाग के दो हिस्से हैं। दांया और बायां। इन दोनों हिस्सों में या कह दें कि दिमाग में ऑक्सीजन पहुंचाने के लिए लाल रक्त कणिकाओं का इस्तेमाल नहीं होता। इसके लिए अलग से ऑक्सीजन कैरियर्स होते हैं। ये कैरियर दिमाग के पिछले हिस्से में जाकर ऑक्सीजन को आरबीसी से ले लेते हैं और फिर दिमाग के अलग-अलग हिस्सों में चलते जाते हैं। वहां ऑक्सीजन की सप्लाई हो जाती है। दिमाग के हर हिस्से के लिए कैरियर पहले से तय हैं। इनमें बदलाव नहीं होता।
अब चाहे किसी बाहरी चोट से, किसी मेंटल डिसऑर्डर से या वंशानुगत कारणों से ये ऑक्सीजन के वाहक बनना बंद हो जाते हैं। अब दिमाग का एक हिस्सा बिना ऑक्सीजन की अवस्था में आ जाता है। तो उस हिस्से के न्यूरॉन मरने के संदेश भेजने लगते हैं। इसे नीयर डेथ एक्सपीरियंसेज कहते हैं। मौत को बहुत करीब से देखने वाले बहुत से लोगों को चमक, भगवान और कई तरह की चीजें दिखाई देने लगती हैं। दायां मस्तिष्क इस कल्पना को जन्म देता है और बायां भाग उसे जस्टिफाई करता है। अब स्कीजोफ्रीनिया में अंतर यह होता है कि दिन के चौबीस घण्टे, सातों दिन और सालों तक यह प्रक्रिया चलती है। ऐसे में रोगी संदेह करने लगता है। हर तथ्य पर जो सामने आता है। इसी अवस्था में ईश्वर उसे एकमात्र सहायक के रूप में नजर आने लगते हैं और वह छद्म विश्वास बना लेता है कि ईश्वर उससे बात कर रहे हैं या ईश्वर उसके कांटेक्ट में है।
इन लोगों के केवल ईश्वर ही नहीं बल्कि अन्य ऐसी कई चीजों के प्रति छद्म विश्वास होता है जो आमतौर पर होती ही नहीं हैं। जैसे एक रोगी को लगता था कि उसके सामने रखे शीशे में दो ड्रेगन हैं, एक अन्य रोगी को दूसरों द्वारा की जा रही साजिश दीवार पर चित्रों के रूप में दिखाई देती है। एक अन्य दूसरों पर अनैतिक लांछन लगता है।
प्रभाव: इस सबका असर यह होता है कि रोगी के परिवार के लोग ही एक-दूसरे को गलत समझने लगते हैं और रोगी के रोग की वजह बताने लगते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि रोगी और भी अकेला पड़ जाता है। वह खुद यह डिसाइड नहीं कर पाता है कि कौन उसके पक्ष में है और कौन विरोध में।
ईलाज: सालों पहले तक इस रोग के बारे में चिकित्सकों की स्पष्ट राय नहीं होने के कारण पहले रोगी को संदमित करने की दवाएं दी जाती रहीं बाद में इलेक्ट्रिक शॉक की सहायता भी लगी गई लेकिन ये रोगी अनपेक्षित रूप से कभी भी ठीक हो जाते हैं और कभी भी गड़बड़। अब साइको सोमेटिक डिसऑर्डर कब होगा और कब नहीं कोई नहीं कह सकता। ऐसे में रोगी का व्यवहार की उसके ईलाज में आड़े आता है। यानि कभी पूर्ण संयत होता तो भी पूर्ण मैनिक होना।
दवाएं: पिछले कुछ समय में कम संदमन करने वाली और ऑक्सीजन कैरियर की कमी की पूर्ति करने वाली दवाएं बाजार में आई हैं। इससे रोगियों को बहुत हद तक आराम भी मिला है।
अब मैं कह सकता हूं कि अंध विश्वास और छद्म विश्वास में अंतर है। उम्मीद है आप भी समझे होंगे….
अंत में: अगर आपको एक स्किजोफ्रीनिया के रोगी की सुपरफीशियल तस्वीर देखनी हो तो आप ए ब्यूटीफुल माइंड फिल्म देखिए। गेम थ्योरी विषय में नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर चुके जॉन नैश ने इस रोग को पूरे जीवन भोगा है और अब उनका पुत्र भी इसी बीमारी से ग्रस्त है।