अगर किसी को लगता है कि बाबा रामदेव हिंदुत्व का चेहरा है तो यह उसकी समस्या है बाबा रामदेव की नहीं। बाबा रामदेव साधू हैं और समाज और घर छोड़े हुए उन्हें अर्सा हो चुका है। सन्यास लेने के बाद भी बाबा रामदेव ने एफएमसीजी कैटेगरी में जो बाजार खड़ा किया है, वह न तो उनकी किसी संतान के काम आने वाला है और न ही बहुत अधिक लंबे समय तक टिकने वाला है।
जैसा कि ओशो कहते है “भारत में सतत क्रांति होती है”। इसी क्रम में बाबा रामदेव भी आए, लगभग 1996 का साल रहा होगा कि इंडिया टुडे मैग्जीन ने बाबा को कवर पेज पर लेते हुए लंबा चौड़ा फीचर उन पर छाप दिया। इसके साथ ही बाबा रामदेव जो कि शहर शहर में तंबू लगाकर छोटे छोटे प्राणायाम शिविर कर रहे थे, अचानक देशव्यापी बड़ा नाम हो गए।
परन्तु बाबा की कहानी इससे भी दशकों पहले शुरू होती है। बाबा रामदेव का सन्यास आसान नहीं था, मन में कई ख्वाहिशें पाले बाबा रामदेव ने कई आश्रमों के चक्कर लगाए और अपनी आदतों के कारण उन आश्रमों से धकेल कर निकाले गए। बाबा की महत्वाकांक्षा सन्यास आश्रम में भी शीघ्रता से शीर्ष पद पर पहुंचने की ही रही। यही कारण था कि साधुओं के आश्रम में जहां हायरकी पहले से तय होती है, वहां घुसने के साथ ही उन्होंने वहां उथल पुथल मचाई और परिणाम धकियाए जाने के रूप में सामने आया।
बाबा रामदेव अच्छे शिष्य रहे हैं, सो जहां भी गए, वहां उन्होंने सबकुछ बहुत तेजी से सीखा, कारण स्पष्ट था कि उन्हें सीढि़यां तेजी से चढ़नी थी। इसी का परिणाम है कि हठ योग और वेदांत के बहुत से सूत्र बाबा ने बहुत तेजी से ग्रहण कर लिए।
आश्रमों में जगह नहीं मिलने पर दूसरी समस्या यह हुई कि अब सिर पर कोई छतरी नहीं है तो खुद का विस्तार किस प्रकार किया जाए, इसी क्रम में उन्हें मिले राष्ट्रवादी जमात के कुछ लोग। मैं किसी का नाम नहीं लूंगा, लेकिन उस दौर में बाबा के पास एक तगड़ी टीम बन गई थी, एक धर्म अध्यात्म का जानकार, दूसरा आयुर्वेद का सिद्धहस्त जो कि अब भी बाबा के साथ है, तीसरा प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक और चौथे बाबा खुद। इस चौकड़ी में दूसरे नाम जुड़ते और हटते रहते, लेकिन करीब चौदह पंद्रह साल तक इस चौकड़ी ने जमकर जमीन पर काम किया।
विचार, अध्यात्म, आयुर्वेद और बाबा का कॉकटेल इस प्रकार था कि दक्षिणपंथ और वामपंथ को किनारे कर पहले केवल स्वास्थ्य को शीर्ष पर लिया गया। परिणाम यह हुआ कि कांग्रेसी हो या भाजपाई, वामपंथी हो या दक्षिणपंथी, सभी ने बाबा को अपने मंच पर चढ़ा लिया। जिस प्रदेश में गए वहां के सरकारी अतिथि बनकर गए। हर जगह पहले केवल योग और प्राणायाम की ही बात की।
सिर पर छतरी नहीं होने पर बाबा पहले से ही खुले में था, खुले में सबसे ताकतवर चीज होती है बाजार, बाबा ने उसी बाजार पर धावा बोल दिया। परिणाम यह हुआ कि किसी भी राजनैतिक पार्टी का पल्लू पकड़ने से पहले ही बाबा ने बाजार की चूलें हिलानी शुरू कर दी। पहले उन उत्पादों पर काम किया गया, जो पहले से बाजार में उपलब्ध नहीं हैं और जिन उत्पादों को देश के हर कोने में उपलब्ध कराया जा सकता है और उपयोग में लेने पर दिखाई देने वाले परिवर्तन आ सकते हैं। मसलन ग्वारपाठा, गिलोय, शहद और लौकी। सस्ता सुंदर और प्रभावकारी उपचार।
ध्यान दीजिए, उस दौर में बाबा ने किसी भी एफएमसीजी उत्पाद के खिलाफ नहीं बोला, केवल शीतल पेय, चिकित्सा जगत की खामियों और हानिकारक उत्पादों के प्रति ही सचेत करते नजर आए। अब बाबा के सामान्य उत्पाद बिक रहे थे, लेकिन उपलब्धता हमेशा कम रही। परिणाम यह हुआ कि हर शहर में उनके समर्थकों ने माल रखना और बाबा से जुड़े लोगों तक पहुंचाना शुरू किया। गुणवत्ता श्रेष्ठ और टीवी पर चल रहे बाबा के प्रवचनों का असर।
दूसरे क्रम में बाबा ने सामान्य जड़ी बूटियों को उपलब्ध कराया, इसके बाद कुछ कम काम में आने वाली आयुर्वेदिक दवाओं को अपने स्टोर्स पर रखा। इसके साथ ही फौरी तौर पर तैयार किए गए आयुर्वेद विशेषज्ञ भी बैठा दिए, जो बताते थे कि बाबा का यह उत्पाद काम में लो तो जल्दी ठीक हो जाओगे। वास्तव में प्रभावकारी औषधियां थी, असर करती थी, लोग जुड़ गए।
अब जो विश्वास जमा उसे भुनाते हुए बाबा ने एफएमसीजी पर धावा बोला। बाबा से पहले जो भी कंपनियां आई हैं, उन सभी ने गुणवत्ता और प्रचार दोनों के माध्यम से बाजार में अपनी पैठ बनाई है, इसी कारण उनके उत्पाद चलन में बने हुए हैं, लेकिन उन सभी कंपनियों के पास वह चीज नहीं थी, जो बाबा के पास थी, राष्ट्रवाद का झुनझुना। वह केवल बाबा ही सुना सकते थे।
बाजार में बाबा की पैठ बनने के साथ ही बाबा के लिए दो चीजें बोझ हो गईं, अध्यात्म और राष्ट्रवाद। चौकड़ी का जो सदस्य धर्म, अध्यात्म और सनातन दर्शन पर पकड़ रखता था, वह साधू ही था, बाबा ने अपने आश्रम में ही उसे किनारे लगा दिया। यहां तक कि स्वीपर तक उसकी बात नहीं सुनते थे। ऐसे में एक दिन वह साधू महाराज चुपके से आश्रम से निकले और एकांतवास कर लिया। दूसरा राष्ट्रवादी सदस्य अकाल मौत का शिकार हुआ, जिसे लेकर अब भी कई प्रकार की कांस्पिरेसी चलती रहती है। हकीकत क्या है, मैं नहीं जानता, लेकिन कुछ भाग ऐसा है जो प्राकृतिक नहीं था। जो भी हो चौकड़ी में से दो लोग रवाना हो चुके थे। ऐसे में बाबा के पास जड़ी बूटियां और बाजार बच गए, ये दोनों तगड़ा मुनाफा देने वाले सिद्ध हो रहे हैं।
बाबा की मंशा यह साम्राज्य खड़ा करने की भी नहीं है। हजारों करोड़ की संपत्ति बनाने के बाद भी बाबा ने कुंभ में अपने अनुयायियों को लेकर अपनी गद्दी को आधार बनाते हुए यात्रा निकालने का प्रयास किया। यानी अब भी बाबा के भीतर कुछ ऐसा था जो हासिल होना बाकी है। हालांकि उस यात्रा को साधू समाज ने स्वीकार नहीं किया और बाबा को सबसे पहले कुंभ स्नान करने वाले महामण्डलेश्वरों की कतार तक नहीं पहुंचने दिया। यह दौर बाबा के लिए पूरा ही खराब ही था। साधू समाज में मार खाने के बाद बाबा ने दिल्ली में कांग्रेस को घेरने का प्रयास किया, इससे पहले कथित तौर पर एक लाख किलोमीटर की भारत यात्रा भी की, लेकिन प्रचार तंत्र कांग्रेस के साथ था, और नतीजे में सलवार सूट वाले बाबाजी में नजर आए।
सलवार सूट प्रकरण से पहले मैं बाबा रामदेव से मिला था, वे अपनी योजना के प्रति बिल्कुल स्पष्ट थे, उन्हें पूरे देश में पतंजलि के एमएलए चाहिए थे। कोई किंतु परंतु नहीं। महामण्डलेश्वर न बन पाएं तो क्या, प्रधान ही बन जाएंगे।
बाबा का प्रचार जारी था कि टाइम मैग्जीन में आवरण पृष्ठ पर छपा कि भारत का अगला प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी होगा, संभवत: यह 2013 की बात है, जब मोदी गुजरात में ही थे और प्रचार काम अभी शुरू भी नहीं किया था। बाबा की घंटी बज गई।
राजनीति और साधू समाज दोनों स्थानों पर बुरी तरह मार खाए बाबा ने पूरी ताकत बाजार में ही झोंक दी और अपना आकार चार से पांच गुना तक बढ़ा लिया। पिछले पांच सालों में बाबा ने अपना जितना विस्तार किया है, उतना उससे पहले के 18 सालों में भी नहीं किया था।
चूंकि रामदेव बाबा के लिए योग, धर्म, अध्यात्म, राष्ट्रवाद या आयुर्वेद कभी ध्येय थे ही नहीं, तो इतने बड़े साम्राज्य का कैसे। दरअसल यह साम्राज्य अब भी जनता की भावनाओं पर ही खड़ा है। जब तक लोगों के पास कोई दूसरा राष्ट्रवादी विकल्प नहीं आ जाता, लोग बाबा का ही सामान खरीदते रहेंगे। कल को अगर रिलायंस बाबा के सभी उत्पादों की नकल में अपना माल बाजार में उतार दे, तो रातों रात बाबा का साम्राज्य अब की तुलना में 10 प्रतिशत रह जाएगा।
इसके कई कारण है, पहला तो यही कि जब आधार देसी और विदेशी है तो इसमें कोई भी देसी कंपनी टक्कर दे सकती है। दूसरा बाबा अपना आकार बड़ा करने के चक्कर में रिटेलर्स को न्यूनतम मार्जिन दे रहा है और एंड यूजर यानी कंज्यूमर से अधिकतम वसूल रहा है। ग्वार पाठे से लेकर टूथपेस्ट तक और आंवला कैंडी से लेकर घी तक सभी उत्पाद अपनी श्रेणी में अधिकतम कीमत पर चल रहे हैं।
इसके साथ ही बाबा ने अपने उत्पादों की लागत कम रखने के लिए उत्पादों को वहीं खरीदो, वहीं बेचो की नीति अपनाई है। यानी राजस्थान में जो घी बिक रहा है, बाबा ने लोकल लोगों से खरीदा है और क्वालिटी कंट्रोल या बटर ऑयल के मिश्रण, जो भी हो, करने के बाद राजस्थान में ही बेच दिया है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि हर क्षेत्र में लोकल प्रॉड्यूसर पैदा हो रहे हैं। जिन लोगों ने कभी जीवन में दस किलो रोजाना माल नहीं बेचा वे लोग बाबा को रोजाना तीन सौ किलो की सप्लाई दे रहे हैं। उनकी क्षमता लगातार बढ़ रही है। परिणाम यह हो रहा है कि वे अपना सामानान्तर बाजार बना रहे हैं, कम कीमत पर। एक ही उत्पाद बाबा की दुकान से लेने पर छह सौ रुपए का है और वही उत्पाद उस लोकल प्रॉड्यूसर के जरिए लेने पर पांच सौ का।
यह केवल घी की बात नहीं है, लगभग हर उत्पाद में इस प्रकार के छोटे उद्यमी आ रहे हैं और अपना देसी उत्पाद ला रहे हैं। जैसे जैसे ये छोटे उद्यमी ताकतवर होते जाएंगे, बाबा के प्रति निर्भरता भी कम होती जाएगी और परिणाम यह होगा कि लोकल उत्पादन ही लोकल बाजार को सस्ते दाम पर क्वालिटी उत्पाद मुहैया करवा पाएगा।
मुझे ग्वारपाठे का जूस लेना है तो आज की तारीख में बाबा के सामानान्तर बीसीयों लोगों ने बेहतरीन उत्पाद लगा लिए हैं और उनका माल बिक रहा है। आज से दस साल पहले यह स्थिति नहीं थी, पूरे शहर में इक्का दुक्का दुकानों पर ही ऐसा माल मिलता था।
अब इतने सालों के प्रचार और व्यवसाय का परिणाम यह भी हुआ है कि बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों ने भी आयुर्वेदिक डिवीजन बना लिए हैं। जिन लोगों का कंपनी पर भरोसा है, उन्हें भी देसी उत्पाद मिलने लगे हैं। कुछ समय पहले पता चला था कि कई फार्मा कंपनियों ने भी अलग से आयुर्वेद डिवीजन बना लिए हैं, अभी वर्तमान में उनकी क्या स्थिति है मुझे नहीं पता, लेकिन फार्मा सेक्टर भी आयुर्वेद में कूदने को तैयार है।
जब स्थानीय स्तर पर उत्पादक और राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी कंपनियां इस नए बाजार में बेरहमी से घुसेगी तो पंतजलि का बंद होने के कगार पर आना तय है। क्योंकि एफएमसीजी में उत्पाद को रिटेलर ही चलाता है और रिटेलर ही बंद करता है। बाबा जितना न्यून मार्जिन देता है और जिन शर्तों पर देता है, उसका विकल्प आते ही रिटेलर्स सबसे पहले बाबा को लात मारेंगे।
अब देखें कि बाबा की इस कवायद का फायदा क्या हुआ, बहुत स्पष्ट है कि योग, आयुर्वेद और स्थानीय बाजार ये तीनों ही खड़े हो गए हैं। इसके लिए भारत बाबा रामदेव का हमेशा ऋणी रहेगा। चाहे कोई माने या ना माने, आज किसी सार्वजनिक पार्क में बैंच पर बैठा बुजुर्ग अगर प्राणायाम कर रहा है तो यह बाबा की ही देन है। कुछ सालों पहले तक वह मजाक का विषय होता था, आज मेनस्ट्रीम फैशन है।