मैंने 2005 में पत्रकारिता शुरू की, वास्‍तव में यह कहना भी हास्‍यास्‍पद है, क्‍योंकि उस समय में मैंने राजस्‍थान पत्रिका की नौकरी शुरू की थी, बाद में पत्रकारिता शुरू करने में मुझे तीन साल लग गए थे, हालांकि उससे पहले मेरी बाइलाइन लगनी शुरू हो गई थी, परन्‍तु मैं खुद जानता हूं कि पहली कायदे की रिपोर्ट बनाने में मुझे तीन साल का समय लगा था। लेकिन पत्रिका ज्‍वाइन करने के साथ ही पत्रकारिता और पब्लिक लाइफ से जुड़े मेरे शहर के अधिकांश लोगों को पता लग चुका था कि पत्रिका में नया संपादकीय विभाग का बंदा आया है। मैं कभी गर्मी में छाछ की मांग या कर्मचारी यूनियन के धरने की कालजयी रिपोर्टिंग करने निकलता तो जो लोग चेहरे से नहीं जानते थे, वे भी नाम बताने पर थोड़ा तरजीह देकर बात करने लगते।

अब मेरे साथ निजी तौर पर त्रासदी यह थी कि चिकित्‍सक बैकग्राउंड वाले परिवार में पला बढ़ा, पढ़ाई छोड़ते ही मेडिकल रिप्रजें‍टेटिव लगा दिया गया, माइक्रो लैब में। करीब नौ महीने टाई पहनकर नौकरी भी, दवाई की दुकान में पीछे खड़ा रहने वाला मुलाजिम भी कुत्‍ते की तरह हड़का देता था। वहां से सीधे पत्रिका में अचानक मिला महत्‍व। एक तरह की शॉक स्‍टेज थी। जिन चिकित्‍सकों के चैम्‍बर के बाहर बैग लिए खड़ा रहता था, वही चिकित्‍सक कॉल तक पर अदब से बात करते। प्रेस कांफ्रेंस में कुछ ऊट पटांग पूछ भी लिया तो उनके चेहरे की विनम्रता सायस बनी रहती।

केवल मैं ही नहीं, लगभग हर पत्रकार ऐसे माहौल का अभ्‍यस्‍त होता है। एक सामान्‍य सरकारी बाबू से लेकर आईएएस तक पत्रकारों से सलीके से ही पेश आते हैं। उन्‍हें पता होता है कि पत्रकार खुद न्‍यूसेंस का घर है। कुछ अक्‍खड़ और भ्रष्‍ट लोगों को भी देखा कि पत्रकारों के सामने तोहफा कबूल करो स्‍टाइल में खड़े रहते।

पिछले बीस सालों में पत्रकारों को दी जाने वाली तनख्‍वाह इस हद दर्जे तक कम हुई है कि कुछ पत्रकार तो सरकार द्वारा घोषित न्‍यूनतम वेजेज से भी कम पर काम कर रहे हैं, इसके बावजूद पत्रकारों के लिए पत्रकारिता की नौकरी छोड़ना मुश्किल होता है। उन्‍हें पता होता है कि नौकरी छोड़कर बाहर हो गए तो जितनी पूछ बनी हुई है, एक दिन में मिट्टी में मिल जाएगी।

अब वापस आते हैं इस तस्‍वीर पर, इसमें रवीश कुमार और कन्‍हैया कुमार हैं। कन्‍हैया कुमार रवीश को मुग्‍ध भाव से देख रहे हैं और रवीश कुमार आत्‍ममुग्‍धता की पराकाष्‍ठा पर पहुंचे हुए वे पत्रकार हैं जो पत्रकारिता से उधार में मिली इज्‍जत के फूस के ढेर पर खड़े हैं।

एनसीआर में अरविंद केजरीवाल के साथ वे इसी तरह लगे हुए थे, तब मैंने एक पोस्‍ट लिखी थी कि आज पत्रकारिता अपनी साख दांव पर लगाकर केजरीवाल के साथ खड़ी हो गई है, अगर केजरीवाल जीतता है, तो पत्रकारिता की साख की कीमत पर जीतेगा, बाद में यही हुआ, जिस रवीश कुमार को देश का बड़ा तबका एक गंभीर पत्रकार मानता था, वह उसे दलाल और आप पार्टी का नुमाइंदा मानने लगा। वह साख रसातल में मिल चुकी है।

आज रवीश कुमार सड़क पर अपना माइक हाथ में लिए घूम रहे हैं, लेकिन न तो पहले जैसी साख है और न पहले जैसा करिश्‍मा। फिर भी उधार की इज्‍जत के भरोसे यह आदमी बिहार की सड़कों पर इस उम्‍मीद में घूम रहा है कि आज नहीं तो कल यह किंग मेकर बनेगा।

मेरा चिंतन यह है कि पत्रकारिता महज 200 साल पुराना पेशा है, संचार क्रांति के बाद इसका स्‍वरूप बदलता जा रहा है, प्रिंट और टीवी माध्‍यम का दम घुटने में कुछ ही समय बचा है, तब तक क्‍या रवीश कुमार किंग मेकर बनकर पत्रकारिता से अलग हो चुके होंगे।