कालिदास त्रयी – तीन मुख्य कालिदास थे तथा अन्य तीन का उपनाम कालिदास था। तीन कालिदासों का उल्लेख राजशेखर की काव्य मीमांसा में किया है, जल्हण की सूक्ति मुक्तावली तथा हरि कवि की सुभाषितावली मे भी-

एकोऽपि जीयते हन्त कालिदासो न केनचित्। शृङ्गारे ललितोद्गारे कालिदास त्रयी किमु॥

एक ही कालिदास की बराबरी का कोई नहीं है, शृङ्गार तथा ललित वाक्यों में ३ कालिदास का क्या कहना?

कालिदास- १

इन्‍होंने तीन नाटक लिखे थे – मालविकाग्निमित्रम्, अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम्। मालविकाग्निमित्रम् के भरतवाक्य के अनुसार वे अग्निमित्र शुङ्ग (११५८-११०८ ई.पू.) के समकालीन थे।

मालविकाग्निमित्रम्-भरतवाक्य-आशास्यमीतिविगमप्रभृति प्रजानां सम्पत्स्यते न खलु गोप्तरि नाग्निमित्रे॥

दो अन्य नाटकों में कुछ लिखा नहीं है। वे अन्य के भी हो सकते हैं।

कालिदास- २

उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य (८२ ई.पू.-१९ ई.) के नवरत्नों मे एक थे। ज्योतिर्विदाभरण के अन्तिम २२वें अध्याय में विक्रमादित्य, उनकी सभा के विद्वानों का परिचय तथा अपनी कृति का समय दिया है।

श्लोकैश्चतुर्दशशतै सजिनैर्मयैव ज्योतिर्विदाभरण काव्य विधानमेतत् ॥ᅠ२२.६ᅠ॥
विक्रमार्कवर्णनम्-वर्षे श्रुति स्मृति विचार विवेक रम्ये श्रीभारते खधृतिसम्मितदेशपीठे।
मत्तोऽधुना कृतिरियं सति मालवेन्द्रे श्रीविक्रमार्क नृपराजवरे समासीत् ॥ᅠ२२.७ᅠ॥

१४२४ श्लोकों का यह ज्योतिर्विदाभरण मालवेन्द्र विक्रमादिय के आश्रय में लिखा गया जो १८० देशों पर श्रुति-स्मृति-विचार द्वारा शासन करते हैं।

नृपसभायां पण्डितवर्गा-शङ्कु सुवाग्वररुचिर्मणिरङ्गुदत्तो जिष्णुस्त्रिलोचनहरो घटखर्पराख्य।
अन्येऽपि सन्ति कवयोऽमरसिंहपूर्वा यस्यैव विक्रमनृपस्य सभासदोऽमो ॥ᅠ२२.८ᅠ॥
सत्यो वराहमिहिर श्रुतसेननामा श्रीबादरायणमणित्थकुमारसिंहा।
श्रीविक्रमार्कंनृपसंसदि सन्ति चैते श्रीकालतन्त्रकवयस्त्वपरे मदाद्या ॥ᅠ२२.९ᅠ॥
नवरत्नानि-धन्वन्तरि क्षपणकामरसिंहशङ्कुर्वेतालभट्ट घटखर्पर कालिदासा।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपते सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥ᅠ२२.१०ᅠ॥

मेरे अतिरिक्त कई विद्वान् हैं – शङ्कु, वररुचि, मणि, अङ्गुदत्त, जिष्णुगुप्त (नेपाल राजा अवन्तिवर्म १०३-३३ ई.पू. के पुत्र तथा ज्योतिषी ब्रह्मगुप्त के पिता), त्रिलोचन, हर, घटखर्पर, अमरसिंह, कालतन्त्र लेखक (कृष्ण मिश्र), सत्याचार्य (ज्योतिषी), वराहमिहिर, श्रुतसेन, बादरायण, मणित्थ, कुमारसिंह। उनकी सभा के ९ रत्न हैं-धन्वन्तरि (तृतीय, वर्तमान् सुश्रुत संहिता के लेखक), क्षपणक (वर्तमान् उपलब्ध जैन शास्त्रों के लेखक), अमरसिंह (अमरकोष), शङ्कु (भूमिति = सर्वेक्षण), वेतालभट्ट (पुराण का नवीन संस्करण), घटखर्पर (तन्त्र), कालिदास, विख्यात वराहमिहिर, वररुचि (पाणिनि व्याकरण पर वार्तिक, वाक्यकरण-ज्योतिष गणना के सूत्र जो स्मरण के लिये वाक्यों द्वारा प्रकट किये जाते हैं)

यो रुक्मदेशाधिपतिं शकेश्वरं जित्वा गृहीत्वोज्जयिनीं महाहवे।
आनीय सम्भ्राम्य मुमोच यत्त्वहो स विक्रमार्कः समसह्यविक्रमः ॥ २२.१७ ॥
तस्मिन् सदाविक्रममेदिनीशे विराजमाने समवन्तिकायाम्।
सर्व प्रजा मङ्गल सौख्य सम्पद् बभूव सर्वत्र च वेदकर्म ॥ २२.१८ ॥

विक्रमादित्य जैसा प्रतापी और कौन हो सकता है जिसने महायुद्ध में रुक्मदेश अधिपति (रोम के राजा जुलियस सीजर) को बन्दी बना कर उज्जैन लाये तथा नगर में घुमा कर छोड़ दिया? उनके वेदानुसार शासन के कारण लोगों में सौख्य और सम्पद है।

शङ्क्वादि पण्डितवराः कवयस्त्वनेके ज्योतिर्विदः सभमवंश्च वराहपूर्वाः।
श्रीविक्रमार्कनृपसंसदि मान्यबुद्घिस्तत्राप्यहं नृपसखा किल कालिदासः ॥ २२.१९ ॥

विक्रमार्क राजाकी संसद में शङ्कु आदि अनेक विद्वान् हैं। उनमें कालिदास तो मन्दबुद्धि है तथा राजा का मित्र है।

काव्यत्रयं सुमतिकृद्रघुवंशपूर्वं पूर्वं ततो ननु कियच्छ्रुतिकर्मवादः।
ज्योतिर्विदाभरणकालविधानशास्त्रं श्रीकालिदासकवितो हि ततो बभूव ॥ २२.२० ॥

सुमति होने के बाद (विद्योत्तमा से अपमानित होने के बाद) रघुवंश सहित ३ महाकाव्य लिखा, उसके बाद कर्मवाद (फलित ज्योतिष की पुस्तक कालामृत २ खण्डों में), उसके बाद मुहूर्त ज्ञान (कालविधान) यह ज्योतिर्विदाभरण लिखा)

वर्षैः सिन्धुरदर्शनाम्बरगुणै (३०६८) र्याते कलौ सम्मिते, मासे माधवसंज्ञिके च विहितो ग्रन्थक्रियोपक्रमः।
नानाकाल विधानशास्त्र गदित ज्ञानं विलोक्यादरा-दूर्जे ग्रन्थ समाप्तिरत्र विहिता ज्योतिर्विदां प्रीतये ॥

इस ग्रन्थ का आरम्भ कलि वर्ष (३०६८) के माघ मास में हुआ तथा कार्त्तिक मास में पूर्ण हुआ। यहां कालिदास ने संकेत दिया है कि पहले वे मूर्ख थे। सुमति होने के बाद ३ महाकाव्य लिखे। ये अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः के ३ शब्दों से आरम्भ होते हैं-

अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा (कुमारसम्भव), कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा (मेघदूत), वागर्थाविव संपृक्तौ (रघुवंश).

उत्तर कालामृत में भी अपने आश्रयदाता का नाम विक्रमादित्य लिखा है-

श्रीमद्वक्त्र चतुष्टयाच्युत हर स्वर्णायकाद्यैः सुरैः कार्यारम्भ विधौ समर्चित पद द्वन्द्वं द्विपेन्द्राननम्।
पाशाद्यायुश्च लड्डुक प्रविलसद्धस्तैश्चतुर्भिर्युतं श्रीमद्विक्रम सूर्य पालनपरं वन्दे भवानी सुतम्॥१॥
कामेशस्य सुवामभाग निलयां भक्ताखिलेष्टार्थदां शङ्खं चक्रमथाभयं च वरदं हस्तैर्दधानां शिवाम्।
सिंहस्थां शशिखण्ड मौलि लसितां देवीं त्रिनेत्रोज्ज्वलां श्रीमद्विक्रम सूर्य पालनपरां वन्दे महाकालिकाम्॥२॥

अंग्रेजों के नकली विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त-२ का आजतक किसी भी पुस्तक या शिलालेख में उल्लेख नहीं मिला है। पर हर साहित्य या खोज उसके नाम पर कर उसे स्वर्ण युग बनाया जाता है। कहीं किसी कुएं में पुरानी ईंट मिल गयी तो उसे गुप्तकाल का मान कर महान् पुरातत्त्व शोध द्वरा नकली स्वर्ण युग का बना देते हैं।

कालिदास- ३

यह भी मालवा राजा की सभा में थे। मालवा के सभी राजाओं को भोज कहते थे जैसे रघुवंश के इन्दुमती स्वयम्वर में उसे भोजकन्या, या महाभारत काल में रुक्मी को भोजराज कहा गया है। भोज-कालिदास वार्त्ताओं की आशु कविता इसी कालिदास की हैं। यह राजा भोज के साथ ईरान के बल्ख तक गये थे जहा मुहम्मद ने धर्मयुद्ध में उनसे सहायता मांगी थी।

भूपतिर्दशमो यो वै भोजराज इति स्मृतः॥दृष्ट्वा प्रक्षीण मर्य्यादां बली दिग्विजयं ययौ॥२॥
सेनया दशसाहस्र्या कालिदासेन संयुतः। तथान्यैर्ब्राह्मणैः सार्द्धं सिन्धुपारमुपाययौ॥३॥
जित्वा गान्धारजान् म्लेच्छान् काश्मीरान् आरवान् शठान्। तेषां प्राप्य महाकोषं दण्डयोग्यानकारयत्॥४॥
एतस्मिन्नन्तरे म्लेच्छ आचार्य्येण समन्वितः। महामद इति ख्यातः शिष्य शाखा समन्वितः॥५॥
नृपश्चैव महादेवं मरुस्थल निवासिनम्। चन्दनादिभिरभ्यर्च्य तुष्टाव मनसा हरम्॥६॥
इति श्रुत्वा स्तवं देवः शब्दमाह नृपायतम्॥९॥ महामद इति ख्यातः पैशाच कृति तत्परः॥१२॥
इति श्रुत्वा नृपश्चैव स्वदेशान् पुनरागमत्। महामदश्च तैः सार्द्धं सिन्धुतीरमुपाययौ॥१४॥
उवाच भूपतिं प्रेम्णा मायामद विशारदः। तव देवो महाराज मम दासत्वमागतः॥१५॥
तच्छ्रुत्वा कालिदासस्तु रुपा प्राह महामदम्। माया ते निर्मिता धूर्त नृपमोहनहेतवे॥१८॥

शालिवाहन (७८-१३८ ई.) की १०वीं पीढ़ी के भोजराज १०,००० सेना लेकर कालिदास के साथ बल्ख गये थे। वहां म्लेच्छ गुरु महा-मद (मुहम्मद) ने उनसे युद्ध में सहायता मांगी। वह धोखा देने में कुशल था पर कालिदास ने उसका भेद खोल दिया। मरुभूमि के महादेव (विक्रमादित्य द्वारा पुनरुद्धार किया हुआ मक्केश्वर महादेव-मक्का) का दर्शन कर लौट गये।

यह कालिदास तान्त्रिक तथा आशु कवि थे। जैन मुनि मानतुङ्ग (भक्तामर स्तोत्र के प्रणेता) उनके समकालीन हैं। स्फुट काव्यों के अतिरिक्त उनकी पुस्तक चिद्-गगनचन्द्रिका है जिसमें उन्होंने अपना स्थान महाराष्ट्र के पूर्णा के निकट कहा है-

इह कालिदासचन्द्रप्रसूतिरानन्दिनी स्तुतिर्व्याजात्।
चिद्गगनचन्द्रिकाब्धेः समयतु संसारदावदवथुं वः॥३॥
कालिदास पदवीं तवाश्रितः त्वत्प्रसादकृतवाग्विजृम्भणः॥३०६॥
त्वद्गुणान्यदहमस्तु वै जगत् तेन मोहमतिरद्य मुच्यताम्।
पूर्णपीठमवगम्य मङ्गले त्वत्प्रसादमकृते मया कृतः॥३०७॥

तीन अन्य नाटककार

(१) मालवा के विद्वान् राजा शूद्रक (मालव गण के अध्यक्ष, ७५६ ई.पू. से शूद्रक शक) ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् तथ ३ अन्य छोटे नाटक लिखे। यह समुद्रगुप्त (गुप्त वंश ३२०-२६९ ई.पू.) रचित कृष्ण चरित में है-

पुरन्दरबलो विप्रः शूद्रकः शास्त्रशस्त्रवित्। धनुर्वेद चौरशास्त्रं रूपके द्वे तथाकरोत्॥६॥
स विपक्षविजेताभूच्छास्त्रैः शस्त्रश्च कीर्तये॥ बुद्धिवीर्येनास्य वरे सौगताश्च प्रसेहिरे॥७॥
स तस्तारारिसैन्यस्य देहखण्डै रणे महीम्। धर्माय राज्यं कृतवान् तपस्विव्रतमाचरन्॥८॥
शस्त्रार्जितमयं राज्यं प्रेम्णाऽकृत निजं गृहम्। एवं ततस्तस्य तदा साम्राज्यं धर्मशासितम्॥९॥
कालिदास-तस्याभवन्नरपतेः कविराप्तवर्णः, श्री कालिदास इति योऽप्रतिमप्रभावः।
दुष्यन्त भूपतिकथां प्रणयप्रतिष्ठां रम्याभिनेय भरितां सरसां चकार॥१५॥
शाकुन्तलेन स कविर्नाटकेनाप्तवान् यशः। वस्तुरम्यं दर्शयन्ति त्रीण्यन्यानि लघूनि च॥१६॥

स्वयं कालिदास ने भी नाटक के आरम्भ में सूत्रधार द्वारा इसका निर्देश किया है-

नान्दीपाठ-सूत्रधार-आर्ये! इयं हि रसभावविशेषदीक्षागुरोर्विक्रमादित्यस्य (अन्य पाठ में विशेष-साहसाङ्कस्य) अभिरूप भूयिष्ठेयं परिषत्। अस्याञ्च कालिदास प्रयुक्तेनाभिज्ञानशकुन्तलेन नवेन नाटकेनोपस्थातव्यस्माभिः॥

शूद्रक को साहसाङ्क तथा विक्रमादित्य भी कहते थे। उनके अधीन १०० राजाओं के संघ का उल्लेख है (४ मुख्य अग्निवंशी राजा थे-परमार, प्रतिहार, चालुक्य, चाहमान)-

भरतवाक्य-भवतु तव विडौजाः प्राज्यवृष्टिः प्रजासु त्वमपि विततयज्ञो वज्रिणं भावयेथाः।
गणशत परिवर्तैरेवमन्योन्यकृत्यैर्नियतमुभयलोकानुग्रहश्लाघनीयैः॥

इस नाटक का एक श्लोक कुमारिल भट्ट (जिनविजय महाकाव्य के अनुसार ५५७-४९३ ई.पू.) ने अपने तन्त्र वार्त्तिक में उद्धृत किया है-

सतां हि सन्देहपदेषुवस्तुषु, प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः। (१/२१)

(२) मातृगुप्त कालिदास श्रीहर्ष (उनका शक ४५६ ई.पू. में) के आश्रित है। कृष्ण चरित के अनुसार इनका काव्य शूद्रक-जय है-

मातृगुप्तो जयति यः कविराजो न केवलम्। कश्मीरराजोऽप्यभवत् सरस्वत्याः प्रसादतः॥२१॥
विधाय शूद्रकजयं सर्गान्तानन्दमद्भुतम्। न्यदर्शयद् वीररसं कविरावन्तिकः कृतिः॥२२॥

राजतरङ्गिणी के प्रथम तरङ्ग के अनुसार कश्मीर के राजा प्रवरसेन की मृत्यु के बाद उनको ५ वर्ष के लिये कश्मीर का राजा बनाया गया था।

(३) हरिषेण कालिदास-इनका रघु चरित रघुवंश का आधार है। यह राज परिवार के थे तथा बाणभट्ट (हर्षवर्धन ६०५-६४७ ई. के आश्रित) की कादम्बरी में इनको भट्टार हरिश्चन्द्र कहा गया है-

हरिषेणः-तुङ्गं ह्यमात्यपदमाप्त यशः प्रसिद्धं भुक्त्वा चिरं पितुरिहास्ति सुहृन्ममायम्।
सन्धौ च विग्रहकृतौ च महाधिकारी, विज्ञः कुमार सचिवो नृपनीति दक्षः॥२३॥
काव्येन सोऽघ रघुकार इति प्रसिद्धो, यः कालिदास इति महार्हनामा।
प्रामाण्यमाप्तवचनस्य च तस्य धर्म्ये, ब्रह्मत्वमध्वरविधौ मम सर्वदैव॥२४॥

शंका : सपुष्ट आलेख में दो तीन बिंदु खटकते हैं प्रथम कि रुक्म देश को रोम कहा गया जबकि रुक्म राज्य तो वर्तमान विदर्भ छेत्र में था पुनश्च मोहम्मद का काल १३८ईसवी तक बताया जबकि इस्लामी इतिहास मात्र चौदह सौ साल का माना जाता है तीसरे एकाधिक कालिदास की परख उनकी रचनाओं की भाषा शैली से आसान होना चाहिये किंतु साहित्यिक जगत में ऐसा विभेद दर्शित नहीं है आभार मानूंगा यदि मेरी जिग्यासा शांत्यर्थ कुछ प्रकाश डालेंगे।

उत्‍तर : (१) रुक्म देश के अधिपति को शकेश्वर कहा गया है। शक क्षेत्र का रुक्मदेश रोम ही होगा। ईरान के राजा मित्रदत्त ने रोम को हराने के लिये विक्रमादित्य की सहायता मांगी थी। सीरिया के सेला युद्ध में जुलियस सीजर को बन्दी बनाया गया था। कृतज्ञता के लिये मित्रदत्त ने शामी नगर में विक्रमादित्य की प्रतिमा स्थापित की थी। आज तक किसी भारतीय राजा ने अपनी प्रतिमा नहीं स्थापित की थी। मनुष्य प्रतिमा का आरम्भ अंग्रेजों ने गान्धी का सम्मान बढ़ाने के लिये शुरु किया, जिसकी नकल नेहरू-मायावती ने की। अभी शामी की विक्रमादित्य प्रतिमा लन्दन म्यूजियम में है-जिसे इण्डियन प्रिन्स नाम दिया है। विल डुरण्ट ने लिखा है कि सीजर को बन्दी बनाने की घटना छिपाने के लिये अधिकांश रोमन इतिहासकारों ने उसे मिस्र में ६ मास का अज्ञातवास बताया है। सुमेरिया के बेरोसस (३०० ई.पू.) के अनुसार हेरोडोटस केवल ग्रीस की प्रशंसा के लिये झूठा इतिहास लिखता था, उसे वास्तविक जानकारी नहीं थी। इतिहास की जालसाजी रोमन संस्कृति की परम्परा है जिसमें विलियम जोन्स ने ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीच्यूट तथा १८३१ में औक्सफोर्ड का बोडेन पीठ स्थापित हुआ। १५ वर्ष पहले इसी कड़ी में इराक का परमाणु बम भी था जिसकी कहानी ब्रिटेन ने बनायी।

(२) शालिवाहन का समय १३८ ई तक था। मुहम्मद का काल उसकी १० पीढ़ी बाद लिखा है।

(३) केवल साहित्य शैली से लेखक का निर्नय कठिन है। स्वयं लेखक का या उसके बारे में कुछ समय बाद के लेखकों का साक्ष्य सटीक है। एक ही लेखक विषय् के अनुसार शैली बदल देगा। महाकाव्य, नाटक तथा ज्योतिष पुस्तकों की एक ही शैली नहीं हो सकती है। इसके अतिरिक्त शैली और भाषा शास्त्र की मनमानी व्याख्या अपनी इच्छानुसार निष्कर्ष निकालने के लिये ही हुआ है। इन लोगों ने लिपि रचना का विज्ञान, उनसे शब्द बनाने की निरुक्त और व्याकरण विधियां, शब्दों के पद और वाक्य तथा उनकी १२ सक्तियां, तथा ७ संस्थाओं-४ स्रोतों के अनुसार अर्थों में अन्तर के बारे में कभी नहीं सोचा।

लेखक : अरुण उपाध्‍याय, आईपीएस, पूर्व डीजीपी कटक उड़ीसा