“स्तोत्र पाठ क्या है? बस कुछ ऐसा मामला है ज्यों प्रियतम से प्रियतम की बातें करनी हैं। उसमे भाषा उनकी (प्रियतम) की रहेगी भाव निज हिय का होगा”
शुरूआती समय था उम्र शायद सोलह सत्रह साल। स्तोत्र पाठ का औचित्य पूछा नवरात्र के दौरान तो कृपानाथ ने उपर्युक्त उत्तर दिया था। चंडी पाठ करने के बाद गुरूनाथ मध्यान्ह काल मे अधलेटे उनींदे से हो रहे थे। यह समय प्रश्न करने और जिज्ञासा शमन होने के लिए बेहतरीन होता था काहे कि उनींदे होने के कारण उनके स्वभाव पर बना अतिक्रोध का दूर्वासामय आवरण हट जाता था। क्या दोपहरें थी वो, कोई पूछे तो हमारा जवाब होगा कि इतनी कीमती मानों अशरफियों को केसर के इत्र मे डूबो दें।
बात सप्तशती पर चली थी सो वापस उसी पर ही आते हैं। बाद मे कितनी ही तरह की सप्तशतियां देखने और छूने को मिलीं। अनहोनी, अनूठी, विलक्षण। मातृोपासना या कहें मातृलीला का यह क्षेत्र सुदूर मिस्र से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैला रहा। हर जगह उन विलक्षण स्वरूपो के विभिन्न गाथायें रहीं लोक भाषा में , देवभाषा मे , या उस क्षेत्र की परिमार्जित भाषा में। ऋषि प्रज्ञा ने उनको जितना समेटा जासका पुराणो में और तंत्र ग्रंथो मे देवभाषा मे अनूदित कर एकत्र कर दिया। पर फिर भी दर्जनो कल्प , सैकड़ो गाथायें हस्तलिखित पोथियों मे रह गई।
सप्तशती को ही लीजिए। छोटे से जीवन मे सौ से ऊपर ग्रंथ देख चुके हम ही। हर ग्रंथ ने चमत्कृत कर दिया। सामान्य जो गीता प्रेस की सप्तशती है उसका मूल ग्रंथ है पंडित सरयू प्रसाद द्विवेदी कृत सप्तशती सर्वस्वम्। कात्यायनी तंत्र केअनुसार पाठ भेद करके श्लोको को व्यवस्थित किया था। गीता प्रेस चूंकी वैष्णव (कृष्णायत) प्रभाव की थी सो उस मूल पाठ मे कई जगह कुछ श्लोक हटाये गये कुछ बढ़ा भी दिये गए।
सप्तशती का जो रूप सर्वाधिक सराहा गया शाक्तो मे वह थी चंडीप्रेस से निकली “विशुद्ध चंडी”। पं देवीदत्त शुक्ल जो समर्थ शाक्त थे उन्होंने प्रमाणिक रूप से यह संपादित की थी। एक प्रज्ञा चक्षु विद्वान (शुक्ल जी) द्वारा समाज को दी अनुपम भेंट थी यह। उसी तरह सप्तशती के वर्णात्मक रूप, मंत्र प्रतिलोम सप्तशती, विलोम सप्तशती के अलावा प्रत्येक वर्ण को विलोम पाठ करके की जाने वाली सप्तशती की पोथी भी देखी जिसको करना अभ्यासियों के लिये ही सहज था।
तेरहों अध्याय को उल्टा- सीधा करके, अलग अलग क्रम में रखने के भी दर्जनो विधियां हैं। चंडीक्रम, महाचंडी क्रम, उत्कीलन क्रम और मेघनाद द्वारा उपासित अनूठा निकुंभला क्रम अध्यायों और सम्पुटों के भेद से जाने जाते हैं।
स्पतशती का मूल पाठ गर्भ चंडी, गुप्त सप्तशती सरीखे मध्यम आकार के पाठ तो लगभग सबने देखे ही होंगे। पर बीजमंत्रात्मक जैसी सप्तशती लघु सप्तशती भी। वर्तमान मे बीबी बच्चे धारी रक्तवर्णी परिधानधारी अवधूत शिवानंद ने जो अपने नाम से छापी है वह सीधी ही चंडीप्रेस से सत्तर साल से छप रही बीजात्मक सप्तशती की नकल है। यहां तक कई पिक भी ज्यू के त्यूं उठा लिए। और भक्तो मे धौंक दिया की बाबा रीसेंटली हिमालय के सिद्धों से लेकर लौटे हैं। अभी अभी रैपर खोला है बस खैर।
चंडी प्रेस को बीजात्मक सप्तशती दी थी पूज्य नानतीन बाबा ने शायद आजादी से भी पहले। हमने गुरूनाथ के पास बीजात्मक सप्तशती की एक ऐसी प्रति देखी थी जिसे एक असमवासी साधक जो विंध्याचल मे रह रहा था छपवा कर साधको को वितरीत की थी।
दतिया के पूज्य स्वामी जी के पास भी एक बीजात्मक सप्तशती थी जो गुप्तावतार बाबा की प्रति से साम्य रखती थी उसकी हस्तलिपी हमने गुरूनाथ के पुस्तकालय मे देखी।
बृहदाकार सप्तशतियों मे पहला नाम है गुप्ता वतार पूज्य मोतीलाल मेहता ( भृतहर्यानंदनाथ ) द्वारा दी गई मंत्रात्मक सप्तशती का। सात सौ श्लोकों के हर श्लोक को मंत्र स्वरूप देकर सबके ऋषि, छंद, देवता, बीज, शक्ति कीलक, मुद्रा, तत्व अलग अलग दिए हैं हर देवता का ध्यान भी हालांकि कई ध्यान समान है, पर फिर भी यह अद्भुत ग्रंथ है। इसका अनुष्ठान पूज्य बाबा ने कराया था जो सालभर तक चला था।
दूजी पुस्तक है सीहोरा निवासी पूज्य विद्यारण्य जी द्वारा दी गई “अद्भुत दूर्गा सप्तशती” जिसमें किसी अर्ध श्लोक या उवाच मंत्र की गिनती नही वरन पूरे सात सौ श्लोक है। अलग ही इसका पाठ करने मे साढ़े चार से पांच घंटे लगते हैं। रूद्र चंडी जिसका प्रचलन गौड़ क्षेत्र मे है वह विलक्षण अनुष्ठान पद्धति और पुस्तक है जिसको करने की विधी और योग्यता हर किसी पर संभव नहीं। विलक्षण पाठ, त्वरित अनुभव मे आने वाली यह रूद्र चंडी आज भी साधकों की सिरमौर है। इसकी पुस्तक तो मिल जाती है पर पूर्ण विधी अब भी मुखाग्र ही है गुरू परंपरा के पास।
यह परम पवित्र और प्रभावी स्तोत्र गुरूमुखगम्य है यानि श्री गुरू से आज्ञा लेकर उच्चारण सीखे जायें तब संस्कृत मे पाठ करने की हिम्मत करें। यद्यपि निष्काम पाठ बिना गुरोपदेश के किया जा सकता है, पर उच्चारण सुस्पष्ट ही हों, यहां कोई ढील नहीं हो सकती। अब तो यूट्यूब पर दर्जनों आडियो हैं, आराम से सुनकर सीखा जा सकता है। जो यह भी ना कर सके उनके लिए इसके कई शब्दशः हिन्दी अनुवाद है, प्रेम से सुनाईये, माई हिन्दी भी समझ लेती हैं। शर्त वही है भाषा कोई हो भाव निजी हिय के ही हों विशुद्ध, क्योंकी जिन साधको ने या ऋषि सत्ताओं ने इसे प्रथम बार गाया उन सब की यह भाव वाणी ही थी।
पर वह भाव था प्राकृत योग्यता से उपजा। समाधि की अवस्था मे उनके करूण हृद /ह्रद मे जो भाव लहर उठी वह उनके मुखो के तट पर जाकर शब्दाकार हो गयी। अनेकानेक जिज्ञासु, मुमुक्षु और आर्त जनों नें इसे सुनकर मानस और कर्म मे उतारा और अपनी देह में इस विलक्षण गाथा को घटित होते देख कृतार्थ हुये और देवत्व पा गए। इसको कुछ यूं कह सकें कि…
“वो गुफ्तगू मेरी जो सिर्फ अपने आप से थी
तेरी निगाह तक पहुंची तो शायरी हुई “
सो सुहृदो गाथा अशेष है और रहेगी काहे की इसके जाने कितने प्रसंग लुप्त होगये नये उदय होंगे और साधन -भाव -ज्ञान की यह धारा चिरंतन बहती रहेगी।
लेखक : अविनाश भारद्वाज शर्मा