वर्तमान दौर के फिल्‍मी इतिहासकार तो अब पैदा हुए हैं, बीकानेर में इनसे कई पीढ़ी आगे के और कहीं अधिक “समझदार” शोधकर्ता बीकानेर में हुए हैं।

कहानी कोई पचासेक साल पुरानी है। एक महाराज थे, हमेशा अंगरेजी का अखबार पढ़ा करते थे। हालांकि चौथे दर्जे में चार बार चक्‍कर लगाने के बाद आगे पढ़ने की इच्‍छा मर गई थी, लेकिन अंग्रेजी अखबार का खासा चस्‍का था। हमेशा अखबार को सीधा ही पकड़ते थे और पूरी गंभीरता से पहले से आखिरी पन्‍ना पलटते थे।

अभी कई दिन हुए कि महाराज तनाव में रहने लगे, अखबार पढ़ना शुरू करते तो पान की गिलौरी और पिछली रात की भंग की तरंग से मूड प्रसन्‍न होता, लेकिन अखबार के आखिरी पन्‍ने तक पहुंचते पहुंचते मुंह कसैला हो जाता, दो चार भारी वाली गालियां बड़बड़ाते हुए निकालते फिर वहीं पाटे पर ही पसर जाते।

ऐसे ही एक दिन दूसरे वाले महाराज पाटे पर आए हुए थे। ये दूसरे वाले महाराज भी अखबार के शौकीन थे, लेकिन हिंदी वाला ही पढ़ते थे, दसवीं फेल होने तक हिंदी पर पकड़ बना ली थी, सो अखबार के सहारे अध्‍ययन जारी रहा।

हिंदी वाले महाराज अभी आधा अखबार ही पढ़े थे कि अंग्रेजी अखबार वाले महाराज ने हिंदी वाले से धीरे से कहा “मुझे तो लगता है ये इंदिरा नेहरूजी से खाती पीती है!”

हिंदी वाले महाराज सनाका खा गए, पलटकर पूछा, तुझे कैसे पता, तो अंग्रेजी महाराज ने खुलासा किया कि मैं रोज अंगरेजी वाला अखबार पढ़ता हूं, उसमें हर खबर में दोनों की फोटुएं साथ ही आती हैं।

अब हिंदी वाले महाराज ताव में आ गए, बोले “भो#$# के इंदिरा नेहरूजी का खाती पीती नहीं है, उनकी बेटी है।”

ये खुलासा होते ही अंग्रेजी वाले महाराज सरेंडर हो गए बोले “मुझे क्‍या पता, रोज अखबार में देखता हूं, जहां कहीं परोगराम होता है, दोनों साथ ही दिखाई देते हैं, तो मैंने अनुमान लगा लिया। मैं तो फोटो देखकर ही खबर का मजमून भांपता हूं।”

हिंदी वाले ने अपना माथा ठोंक लिया…

अब फिल्‍मी इतिहासकार अगर इतिहास की व्‍याख्‍या करेंगे तो उन्‍हें यही सब तो दिखाई देगा ना, प्रेम, प्रलाप, पेड़ों के इर्द गिर्द नाचना, भांडगिरी, गाना, बजाना और कमर लचकाना। ये तो भारतीय मानस की समस्‍या है कि वे फिलम वालों में अपने आदर्श तलाश कर रहे हैं।