विपत्ति आने पर मनुष्य का उस विपत्ति के प्रति पांच स्तर का प्रभाव होता है। यह इसी क्रम में होता है। पहले वह खण्डन करता है, फिर क्रोध करता है, फिर मोल भाव करता है, इसके बाद अवसाद में चला जाता है और आखिर में स्वीकार कर लेता है।
इसका उदाहरण किसी कैंसर पीडि़त अथवा उसके संबंधियों पर आसानी से समझा जा सकता है। पहली बार पता चले कि परिवार के सदस्य को कैंसर है, तो दूसरी या तीसरी बार जांच करवाते हैं, चिकित्सक बदलते हैं, रोग के लक्षणों को लेकर वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति अपनाते हैं, लेकिन रोग अपनी गति से बढ़ता चला जाता है। खण्डन की कोई सूरत नहीं बचती तो रोग के कारणों पर बहुत क्रोध आता है। पॉलिथिन से लेकर पेस्टिसाइड तक सभी कारकों को गालियां निकाली जाती है। परन्तु रोग को कोई फर्क नहीं पड़ता। वह बढ़ता चला जाता है। क्रोध से रोग को कोई फर्क नहीं पड़ता वह बढ़ता चला जाता है, तो तीसरा स्तर आता है मोलभाव का।
यह मोलभाव लौकिक और आध्यात्मिक दोनों स्तर का हो सकता है। लेकिन कैंसर को उससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता, वह बढ़ता चला जाता है, शरीर पर उसके लक्षण स्पष्ट दिखाई देने लगते हैं। रोगी का शरीर साथ छोड़ने लगता है। जब किसी प्रकार का मोलभाव असर नहीं करता, तो रोगी और उसके परिजन अवसाद में चले जाते हैं। यहां न तो रोग के ईलाज की सुध रहती है और न उससे बचाव का कोई तरीका दिखाई देता है। हतप्रभ परिवार हताशा के दौर से गुजरता है। आखिर में रोगी और परिवार दोनों ही कैंसर को स्वीकार करते हैं और उसका सटीक उपचार करने का प्रयास करते हैं।
पहले से पांचवे स्तर तक पहुंचने में जितना अधिक समय लगता है, रोग से होने का वाला नुकसान उतना ही अधिक बढ़ता चला जाता है। जो सजग होते हैं, वे शीघ्र पहले से पांचवे स्तर तक पहुंच जाते हैं, लेकिन खण्डन से लेकर अवसाद तक अटक जाने वाले रोगी और उनके परिजन बहुत भयानक परिणाम भुगतते हैं।
वैचारिक स्तर पर 1400 साल पहले एक कैंसर ऐसा ही पैदा हुआ। लाह को सबसे बड़ा मानने वाला। रेगिस्तान के बीच पैदा हुए इस विचार कैंसर की विशिष्टता थी कि हमला करने वाले के लिए नैतिकता के सभी स्तर टूट जाते और माल ए गनीमत के लिए एक से दो और दो से चार के एक्सपोनेंशियल दर से जांबीज बढ़ते चले गए।
सबसे करीबी सभ्यता जो कंबोडिया से ईरान तक सनातनी मूल्यों को लिए अपना स्वर्णकाल भोग रही थी, डिनायल यानी खण्डन मोड में रही, कि ऐसा कैसे हो सकता है। ये लोग हमारे ही जैसे हाड मांस के पुतले हैं, इन्हें भी ईश्वर ने ही बनाया है, ये लोग ऐसा नहीं कर सकते। इनमें से कुछ गलत होंगे, लेकिन अधिकांश सही ही होंगे। मध्यपूर्व की जांबीज की आंधी सातवीं शताब्दी में जब सिंध पहुंची तब हमारे पुरखे राजा दाहिर ने उन्हें दम बचने तक रोके रखा, परन्तु आखिर इम्युन सिस्टम की महत्वपूर्ण कड़ी टूट गई और कैंसर पूरे शरीर में पसरने लगा। भारत भूमि की सुखमयी गोद में पसरे लोगों ने क्रोध किया, कुछ हद तक रोके रखा, लेकिन कैंसर को पसरना था, सो पसरता गया।
बाद में मोलभाव शुरू हुए। कुछ हिस्सा तुम रखो, कुछ हिस्सा हम रखते हैं। वहद् तंत्र छोटे छोटे हिस्सों में बंटा था, हाथ ने हाथ को सुरक्षित करने का प्रयास किया, पैर ने पैर को, खोपड़ी ने खोपड़ी को और पेट ने पेट को। इससे कैंसर कहां रुकने वाला था, पसरता रहा। कैंसर को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि कितना मोल लगाया जा रहा है और किस भाव लगाया जा रहा है। आखिर मोलभाव भी सिरा पा गए।
तब अवसाद का दौर शुरू हुआ। अवसाद में लोगों ने अपनी आस्था ईश्वर के प्रति समर्पित की और होनी को देखते रहे। किंकर्तव्यमूढ़ बड़ा समूह जैसी स्थिति थी, उसी में खुद को ढालता रहा। ब्राह्मण अपने ज्ञान को बचाने का प्रयास करते रहे, क्षत्रिय लड़ते रहे, वैश्यों ने सामानान्तर रास्ते निकाल लिए और शूद्र पहले की तरह सेवा कर्म करते रहे।
इसी दौर में अंग्रेज आ गए, उन्हें जो भारत मिला वह कैंसर से पीडि़त और जड़ हो रखा था। लगभग लाश हो चुके राष्ट्र को उन्होंने जीभरकर लूटा। कुछ लोग बताते हैं 45 ट्रिलियन डॉलर की लूट हुई। कुछ बताते हैं कि इतनी लूट के बाद भी 1925 तक भारत का सकल घरेलू उत्पाद उस जमाने में पूरी दुनिया का 24 प्रतिशत था। यह कितना अधिक था, इसका अनुमान इससे लगा सकते हैं कि अभी अमरीका का सकल घरेलू उत्पाद पूरी दुनिया का 15 प्रतिशत है।
जब आजादी मिली तो राजतंत्र समाप्त हुए और पूरी दुनिया में लोकतंत्र आने लगा। यह तंत्र भी अपनी खूबियां और अपनी कमियां लिए हुए है। चूंकि राष्ट्र के शरीर को निचोड़ा जा चुका था तो कैंसर भी उसके साथ ही ऑटोफैजी का शिकार हो रहा था। आजादी के बाद ज्यों ज्यों राष्ट्र में प्राण फिर से आ रहे हैं, कैंसर फिर से खड़ा हो रहा है और फिर से वही क्रम जारी है। खण्डन, क्रोध, मोलभाव और अवसाद। स्वीकृति के स्तर पर बहुत कम लोग हैं। मंदिरों को ध्वस्त कर उन पर बनी मीनारें कैंसर की गांठों की तरह उठी हुई दिखाई देती हैं, लेकिन फिर भी बहुत से लोग इसे स्वीकार करना नहीं चाहते, वे खण्डन मोड में रहते हैं, नहीं ऐसा नहीं हो सकता।
सिंध से भागकर थार के बीहड़ रेगिस्तान में शरण लेने वाले पुष्करणा समुदाय में आज भी सिंधी कढ़ी बनती है। इस कढ़ी में दही की खटाई नहीं पड़ती, एक प्रकार का फूल डाला जाता है, जो खट्टा होता है और खूब सारी सब्जियां होती हैं। रेगिस्तान के बीच बहुत सारी सब्जियों वाली कढ़ी पारंपरिक खान पान का हिस्सा कैसे हो सकती है। इस क्षेत्र में कैर सांगरी जैसी सूखी सब्जियां और बाजरी जैसे धान ही हो सकते हैं, वहां पर पुष्करणा समुदाय में सिंधी कढ़ी बनती है, तो सातवीं शताब्दी में हुए अत्याचार की कहानी खुद कह देती है। फिर भी डिनायल मोड या कहें खण्डन समाप्त नहीं होता।
सनातन को गालियां देने वाले योगाचार्य बनकर हिंदु कन्याओं को योग के नाम पर गलत तरीके से छू रहे हैं तो हम खुश हों या दुखी हों, यह सोचने वाले वास्तव में अभी खण्डन से लेकर मोलभाव के मोड में है। विपत्ति को जितना देरी से समझेंगे, जितना अधिक दूसरे मुद्दों को हवा देकर इससे ध्यान हटाते रहेंगे, तब तक आंधी को देखकर कबूतर की तरह बंद की गई आंखें ही दिखाई देंगी।
कैंसर से लड़ना है तो हर स्तर पर और शीघ्र लड़ना होगा, जितनी देर करेंगे, जितना खण्डन करेंगे, जितना क्रोध करेंगे, जितना मोलभाव करेंगे, जितना अवसाद करेंगे, उतना ही नुकसान बढ़ता चला जाएगा।