सूर्य जगत की आत्मा है

Surya Yantra Shreenath udoop

उद्वयं तमसस्परि सवः पश्यन्त उत्तरम्।
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरूत्तमम्।।

“हम अंधकार से ऊपर आकर देवताओं और उनके लोकों में अत्यंत विलक्षण सूर्य को देखते हुये सर्वोत्कृष्ट प्रकाशवान परमात्म तत्व को प्राप्त हों”

सूर्य को प्रत्यक्ष देवता भी कहा गया और आदिदेव भी। वेदो के काल से लेकर मध्यकाल तक सूर्य के अर्चक कुलों और उनकी उपासना कांड का भरपूर उल्लेख मिलता है। संध्या वंदन जो एक संस्कारी कुल की पहली उपासना होती है उसका तो मुख्य आधार ही सूर्य हैं। हमारे यहां कहते हैं की जब कोई द्विज बालक जन्म लेता है तो सूर्य प्रसन्न होते हैं की उनको अर्घ्य देने वाला एक और व्यक्ति धरा पर आ गया।

“सूर्य आत्मा जगत:तस्थुषश्च ”

सूर्य जगत की आत्मा है। सूर्योपासना से आत्मा कोबल मिलता है या कहें आत्मबल बढ़ता है भौतिक और आध्यात्मिक दोनो अर्थो में संध्योपासना का एक गुण गुरूजन बताते थे की बाकी जो लाभ हैं इसके उसके साथ साथ यह मनुष्य मे भय का नाश करके अभयत्व लाती है। हमको लगता है संध्या वंदन का यह लाभ संध्यावंदन मे सूर्य के भौतिक आवरण और अंतः के आध्यात्मिक रूप की उपासना के कारण ही है।

हम तो अपनी कहें हमारे मन मे ये ज्ञात अज्ञात भय हैं उनका कारण हमारा संध्यावंदन मे नियमितता ना होना है जबकी शास्त्र इतना भी कह रहा है सबसे की। जो सम्पूर्ण संध्या ना करसके उसे केवल प्राणायाम, अर्घ्यदान और जप कर ले। पर हम सरीखे मूर्ख शिरोमणी कभी आलस्य , कभी प्रमाद कभी इस मुंहझौंसे मोबाइल के कारण अमृत फल छोड़कर आक के फल को चाट रहे हैं।

चलिये खल वंदना पूरी हुई अब देव वंदना करेें। जब संप्रदाय गत सूर्योपासना की ओर देखते हैं तो संध्या गत अर्घ्य और सूर्योपस्थान के साथ साथ। जबकी हर वेद की शाखा के अनुसार सूर्योपस्थान के मंत्र अलग अलग हैं। इनके अलावा भी कई वैदिक सूक्त हैं जिनमे से दो की हमे जानकारी है।

“हंस कल्प नमस्कार” और “तृचा कल्प नमस्कार ”

ये दो प्रयोग का नाम खूब सुने, हंस कल्प नमस्कार को तो देखने का मौका मिला पर तृचाकल्प आज तक नही मिल पाया। सोलह या सत्रह साल की उम्र मे हमने हंसकल्प करा भी एकाध बार। पर इतनी बार दंडवत से घबरा गये जल्दी ही। भानुकुल भूषण राम के जब रावण सेयुद्ध मे थके तब महर्षि अगस्त्य ने उनको जिस महाप्रभावी आदित्य हृदय स्तोत्र का उपदेश दिया वह अभी भी भाविको का सिरमौर हैं जिसका पाठ स्वस्थ लाभ के लिये किया जाता है।

परंतु एक और आदित्यहृदय स्तोत्र है जो जिसका उपदेश युधिष्ठिर के लिये किया गया वह आकार मे बड़ा है और कहते हैं वो संपदा , भूमि प्राप्ति इत्यादि का हेतु बनता है पाठ किये जाने पर। और फिर चाक्षुषी उपनिषद जिसके लिये कहा जाता है की जो उसका पाठ नित्य करेगा उसको अंधत्व नही होगा और जो उसका विधीवत पुरश्चरण करलेगा उसके कुल मे कोई अंधा नही होगा सात पीढ़ी तक। उसके साथ एक अंक यंत्र का भी प्रचलन है कहीं कहीं।

पर दतिया पीतांबरा पीठ मे श्री स्वामी जी इस पाठ के साथ अपनी दवा “ज्योतिष्मति “भी सेवन करवाते थे। भगवीन कृष्ण के शाप से जब उनके पुत्र साम्ब के कुष्ठ हुआ तो उनके उपचार के लिये भगवान ने शाकद्वीप से मग ब्राह्मणो को बुलाया सूर्योपासना हेतु क्योंकी वे समग्र सूर्योपासना के ज्ञाता थे।

साम्ब ने फिर मथुरा , मुलतान और चंद्रभागा तट जिसे कोणार्क माना गया वहां पर सूर्यविग्रह स्थापित करवाए। मुलतान का सूर्यमंदिर जिसमे भगवान की स्वर्ण प्रतिमा थी उसका भंजन महमूद गजनी के द्वारा. करने का उल्लेख अलबरूनि ने किया है।मथुरा मे मिली बहुतायत सूर्यमूर्तियों को देख कर यहां करि जाने वाली सूर्योपासना को बल मिलता है। कोणार्क मे लांगूलीय नरसिंह देव ने अपनी विजयो के उपलक्ष्य मे भव्य सूर्यमंदिर बनवाया जिसके बारे मे अनेक संभव असंभव बातें प्रचलित हैं।

जब वो नष्ट हुआ तो उसकी मूल सूर्य प्रतिमा जगन्नाथ मंदिर पुरी के भंडार मे. सुरक्षित रख दी गई ऐसी किवदंती है। वहां के अरूण स्तंभ को मराठो ने वहां से लाकर पुरी के श्री मंदिर मे स्थापित कर दिया। और नवग्रह मंडल पट्टिका अभी भी किसी देवालय मे पूजित हो रही है। 

आदिशंकर भगवत्पाद के समय भी सौरोपासको का वर्णन किया गया जिनसे भगवत्पाद ने शास्त्रार्थ किया। बाद मे उनकी गृहस्थ परंपरा के शिष्य और अभिनव शंकरावतार श्री भास्करराय भारती महोदय ने अपने शिष्य चंद्रसेनजाधव के सुपुत्र को पुंसत्व प्रदान करने हेतु सूर्य का बृहद अनुष्ठान करा। और उसी पर सूर्योपासना के इस समय के सबसे बड़े ग्रंथ “तृच भास्कर ” की रचना की। जिसको मौका लगे वह जरूर पढ़े।

अगर विषय को समझाने वाला कोई आचार्य आपके पास हैं तो रोंगटे खड़े होगें अर्थ समझने में। कहतें हैं की वृद्धावस्था के कारण श्री भास्करराय जी को सूर्योपासना मे खूब शारीरीक कष्ट हुआ सो खीज कर उनने भगवान सूर्य की दो नामो से स्तुति की…

“धीः चोद ” और “गदहा”

धीः चोद की अर्थ हुआ बुद्धि को प्रेरित करने वाला और गदहा का अर्थ हुआ गद यानि पापो का हनन करने वाला। इनके शब्दो के अर्थ अलग है पर सुनने मे अपशब्द ही लगते हैं परंतु अपने देवता को यह कहना भी श्री भास्करराय सरीखेमहापुरूष के बस की है हर किसी या हम तुम से चूतियों की नही। हमारे क्षेत्र मे सूर्यो पासना का बहुत चलन नही है पर बुंदेलखंड मे दतिया के पास उन्नाव मे एक सूर्य मंदिर है जिसमे मूर्ति की जगह प्रस्तर का सूर्य यंत्र प्रतिष्ठित है वो यंत्र कितना पुराना है ये तो जानकारी नही क्योंकी वह लगभग घिस चुका है पर झांसी के नारू शंकर पेशवा ने उसका जीर्णोद्धार करवाया था ऐसा उल्लेख मिलता है।  

सुनते थे की गुजरात मे सूर्योपासको की बृहद परंपरा थी. पर अब वहां भी कोेई विशेष चिन्ह नही मिलते सिवाय मोधेरा के सूर्यमंदिर के। हमारे शहर के पास ही झालरापाटन का सूर्य मंदिर प्रसिद्ध है जो वास्तव मे शंखोद्धार तीर्थ है जहां पर अंधकासुर वधोपरांत महादेव ने शंखनाद किया था। वहां पर बाद मे सूर्य मंदिर का निर्माण हुआ पर बाद मे मंदिर मे कृष्ण जी का विग्रह स्थापित कर दिया गया। हमारे अनुमान मे केवल दक्षिण का आरसाविल्ली सूर्यक्षेत्र है जहां के मंदिर पर सूर्योपासना अविछिन्न चल रही है। बाद मे कहते हैं की यह सौर संप्रदाय अधिकतर वैष्णव संप्रदाय मे अंतर्भुक्त हो गया। सूर्य के एक ध्यान मे सूर्यमंडल मे नारायण को ही विराजित मानकर नमस्कार किया गया।

“ध्येय सदा सवृितमंडल मध्यवर्ती
नारायण सर सिजासन सन्निविष्टम् ”

कुछ हिस्सा शैव संप्रदाय मे भी गया यह हमको लगा। शैवो और शाक्तों मे सूर्य को मार्तंड भैरव के रूप मे स्वीकारा गया। जहां शाक्तो मे उनकी संध्यापद्धति मे अर्घ्यदान मार्तंड भैरव को ही किया जाता है वहीं शैव धारा मे इन मार्तंड भैरव के अवतार महाराष्ट्र के प्रसिद्ध लोकदेवता खंडोबाराय हुये जो सारे महाराष्ट्र के कुलदैवत हैं योद्धा मराठो का महायोद्धा और रणसन्नध प्रतापी देवता। सो सूर्य लुप्त नही हुये बस भेष बदल लिये।

ज्योतिष मे भी सूर्योपासना आत्मबल के लिये बताते हैं अकसर ज्योतिखी बाबा लोग महंगा माणक पहनना , फलाना यंत्र वगैरह उपचार बताते हैं पर कोई संध्यावंदन और समंत्रक सूर्यनमस्कार को नही कहता क्योंकी अव्वल तो उससे पैसे कमाने के अवसर क्षीण हैं दूजे वे बता भी दें तो करने को कौन राजी होगा।

आज रथ सप्तमी थी सूर्योपासना का सर्वोत्कृष्ट पर्व सो अर्घ्य और उपस्थान तो नही पर यह बकवास करके हमने सूर्यनारायण के सामने अपनी उपस्थिती दिखा दी। यहीं देख लीजीये सूर्योपासना पर इतनी बड़ा खर्रा लिखने वाला महानुभव इतनी रात तक जगा बैठा है क्या सोचते हैं वो क्या खाकर अलसुबह उठ कर संध्यावंदन और सूर्यनमस्कार करेगा या सूर्य नारायण खुद नौ बजे उसके पलंग के पास के गवाक्ष पर आकर उसपर अपनी धूप डालकर कहेंगे…

“उठिये ज्ञानी महाराज!


Avinash Bhardwaj Sharma

लेखक : अविनाश भारद्वाज शर्मा