मनुष्य की भाषा निकलती भले मुँह के रास्ते गले से हो , लेकिन उसका जन्म मस्तिष्क में होता है। मस्तिष्क में भाषा का कोई एक ‘क्षेत्र’ नहीं होता ; कई अलग-अलग हिस्से अलग-अलग काम करते हुए भाषा को जन्म देने में अपनी भूमिका निभाते हैं।
- मोहन को सुनील ने उसका नाम लेकर पुकारा। उसने फिर पूछा कि खाना खाने चलोगे।
- मुमताज़ को तेजपाल से एक चित्र दिखाया। उसमें एक गैण्डा अपने परिवार के साथ घास चर रहा था। मुमताज़ ने तेजपाल से पूछा कि यह कहाँ का चित्र है।
- परीक्षा-हॉल में सामने प्रश्नपत्र के अन्तिम प्रश्न को देखकर गुरमीत ने उत्तर लिखना शुरू किया। समय अब ज़्यादा नहीं बचा था , बस बीस मिनट शेष।
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मंच पर खड़ी होकर प्रिया ने माइक को उँगलियों में कसा , आँखें बन्द कीं और मुँह से बोल फूट पड़े …
ये महज़ चार उदाहरण हैं भाषा के , जो यहाँ प्रस्तुत किये गये। चारों में अलग-अलग तरह से भाषा व्यक्त हो रही है। लेकिन अब यह जानना आवश्यक हो जाता है कि कोई जब बोलता या लिखता है ,तो उसकी शुरुआत मस्तिष्क के किस हिस्से में होती है।
कुछ देखा जाता है , या सुना जाता है। अथवा कई बार मन में स्वतः विचार पनपता है। देखने के लिए मस्तिष्क में विज़ुअल कॉर्टेक्स नाम का इलाक़ा सबसे पीछे होता है। दोनों आँखों से दृश्य-तरंग-सन्देश यहीं डिकोड किये जाते हैं , यानी ‘देखना’ यहीं से होता है। सुनने के लिए कानों से ध्वनियाँ तन्त्रिका-तरंगों की तरह ऑडिटरी कॉर्टेक्स में आती हैं। यहीं आवाज़ें ‘सुनी’ जाती हैं।
यानी अगर विज़ुअल कॉर्टेक्स और उस तक पहुँचने वाली तन्त्रिकाएँ नष्ट हो जाएँ , तो आदमी देख नहीं सकता। चाहे आँखें दुरुस्त हों , तब भी नहीं।
यानी अगर ऑडिटरी कॉर्टेक्स और उस तक पहुँचने वाली तन्त्रिकाएँ नष्ट हो जाएँ , तो आदमी सुन नहीं सकता। चाहे कान दुरुस्त हों , तब भी नहीं।
‘विचार’ मस्तिष्क में कई जगह पनप सकते हैं। लेकिन फिर जो भी दिखा , सुनायी पड़ा या विचार-रूप में जन्मा , उसके फलस्वरूप भाषा कैसे जन्मी?
दिखने वाले प्रश्न , सुनायी दिये प्रश्न और मस्तिष्क में जन्मे विचार जिस हिस्से में आकर एकत्रित होते हैं , वह वर्निक क्षेत्र कहलाता है। जर्मन चिकित्सक कार्ल वर्निक के नाम पर इसका यह नाम पड़ा है। फिर यह क्षेत्र तन्त्रिकाओं के एक बण्डल आर्कुएट फ़ैसिकुलस द्वारा आगे एक दूसरे क्षेत्र से जुड़ा रहता है , जिसे ब्रोका क्षेत्र कहते हैं। फ़्रांसीसी चिकित्सक पॉल ब्रोका के नाम पर इसका नाम पड़ा है।
शब्दों तक व्यक्ति वर्निक क्षेत्र द्वारा पहुँचता है , फिर उन्हें आर्कुएट फ़ैसिकुलस द्वारा ब्रोका क्षेत्र में पहुँचाता है। अब इन तीनों जगहों में त्रुटि होने से व्यक्ति की भाषा प्रभावित हो जाएगी। साथ ही अगर वर्निक क्षेत्र तक दृश्य-श्रव्य-विचार की जानकारी नहीं पहुँचेगी , तो भी भाषा पर दुष्प्रभाव पड़ेगा।
इस तरह के भाषिक दुष्प्रभाव अफ़ेज़िया के नाम से जाने जाते हैं। आगे हम अफ़ेज़िया के प्रकारों पर फिर से विस्तार से चर्चा करेंगे।
नोट : आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि भाषा का जन्म मस्तिष्क में जटिल है और कई हिस्से इसमें भूमिका निभाते हैं। लेकिन अभी हम सरल ढंग से विषय प्रवेश करते हुए आगे बढ़ेंगे।
बोलते हैं आप ? बाएँ दिमाग़ से कि दाहिने दिमाग़ से?
वाणी उन कुछ गतिविधियों में से है , जिसका सम्बन्ध अधिकांश लोगों में ( 95 % ) मस्तिष्क के बाएँ भाग से होता है। यानी भाषा को बरतने के ज़्यादातर काम प्रमुखता से दिमाग़ के बाएँ हिस्से द्वारा किये जाते हैं। 5-7 % लोग ही ऐसे होते हैं , जो मस्तिष्क के दाहिने भाग से भाषाई कामकाज करते हैं।
ब्रोका और वर्निक क्षेत्रों की और उन्हें जोड़ने वाले आर्कुएट फ़ैसिकुलस नामक तन्त्रिका-बण्डल की हमने पिछले लेख में बात की थी। ये दोनों क्षेत्र ज़्यादातर मस्तिष्कों में बाएँ हिस्से में ही होते हैं।
अब अगर मस्तिष्क के किसी हिस्से में रक्तस्राव हो जाए , या ख़ून जम जाए अथवा ट्यूमर या संक्रमण की गाँठ हो जाए , तो उसी हिस्से से सम्बन्धित विकार पैदा होने लगेंगे। भाषा-सम्बन्धी इन विकारों को अफ़ेज़िया नाम दिया गया है।
तो अफ़ेज़िया का रोगी क्या करने में दिक़्क़त महसूस कर सकता है , देखें :
- वह कोई शब्द या शब्दों को समझ न पाये।
- वह किसी भावना को शब्द-द्वारा कह न पाये।
- वह वाक्य पढ़-लिख न पाए।
- वह व्याकरण-सम्मत वाक्यों को समझ न पाये।
यहाँ दो अन्य समस्याओं से अफ़ेज़िया को अलग करना ज़रूरी हो जाता है : अप्रैग्ज़िया और डिसआर्थ्रिया।
अप्रैग्ज़िया के रोगी में समस्या भाषा के अधिशासन या एग्ज़ीक्यूशन की होती है। वह पढ़ रहा है मन में , समझ रहा है , कुछ कहना चाह रहा है , कह नहीं पा रहा है। वह शब्द-सम्बन्धी हरकत कर ही नहीं पा रहा। किस क्रम में किस तरह कैसे किन-किन मांसपेशियों को चलाकर भाषा पैदा करनी है , वह उसका त्रुटिपूर्ण है।
डिसआर्थ्रिया में दूसरी ओर कमी भाषा को बोलने के लिए इस्तेमाल होने वाली मांसपेशियों और अंगों में होती है। अतः भाषा निकलती तो है , लेकिन वह तरह-तरह से दोषपूर्ण होती है।
तो अप्रैग्ज़िया से पीड़ित व्यक्ति न सिर्फ़ बोलने में मुश्किल पाएगा , लिखने में भी उसे समस्या हो सकती है। जबकि डिसआर्थ्रिया वाला व्यक्ति लिखकर अपनी बात सामान्यतः बता देगा।
स्कन्द शुक्ल
लेखक पेशे से Rheumatologist and Clinical Immunologist हैं।
वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं और अब तक दो उपन्यास लिख चुके हैं