सरस्वती वन्दना

Maa sarswati

यह चिद्गगन-चन्द्रिका के लेखक कालिदास (सप्तम सदी) की रचना है। यहां कवि ने अपनी पदवी कालिदास कही है तथा साधना स्थान पूर्णपीठ (महाराष्ट्र के विदर्भ में) कहा है।

ॐकारपञ्जरशुकीमुपनिषदुद्यां केलिकलकण्ठीम्,
आगमबिपिनमयूरीमार्यामन्तर्विभावये गौरीम्॥।१॥
दयमान दीर्घनयनां दैशिकरूपेण दर्शिताभ्युदयाम्,
वामकुचनिहित वीणां वन्दे संगीत मातृकाम्॥२॥
अवटुतट घटित चूली तालीपलासताटङ्काम्,
वीणा वरानुसंगं विकचमदामोदमाधुरी भृङ्गम्।
करुणापूरतरङ्गं मलये मातङ्गकन्यकायाङ्गम्॥३॥ (सम्भवतः कुछ लुप्त है)
माणिक्यवीणामुपलालयन्तीं मदालसां मञ्जुलवाग्विलासाम्।
माहेन्द्रनीलद्युतिकोमलाङ्गीं मातंगकन्यां सततं स्मरामि॥४॥

अर्थ – (१) ॐकार पिंजड़ा है जिसमें सरस्वती सुग्गी के समान हैं। उपनिषद् रूपी उद्यान की कोयल हैं तथा आगम (तन्त्र, वेद भी-परम्परा से प्राप्त साहित्य) रूपी विपिन (वन) की मयूरी हैं। उनका ध्यान भीतर में गौरी के रूप में करता हूं।

टिप्पणी – वाणी के ४ पद हैं जिनमें ३ गुहा में हैं तथा चतुर्थ पद कथन या लेखन में निकलता है। भीतर के ३ पद गौरी (ग= तीसरा व्यञ्जन) हैं-परा, पश्यन्ती, मध्यमा। बाहर व्यक्त या वैखरी वाणी में कुछ लुप्त हो जाता है अतः उसे तम कहते हैं। गौ तथा तम का सम्बन्ध गौतम का न्याय दर्शन है।

चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः। 
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥ (ऋग्वेद १/१६४/४५) 
परायामङ्कुरीभूय पश्यन्त्यां द्विदलीकृता ॥१८॥ 
मध्यमायां मुकुलिता वैखर्या विकसीकृता॥ (योगकुण्डली उपनिषद् ३/१८, १९)
अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते। मूलाधारगता शक्तिः स्वाधारा बिन्दुरूपिणी॥२॥
तस्यामुत्पद्यते नादः सूक्ष्मबीजादिवाङ्कुरः। तां पश्यन्तीं विदुर्विश्वं यया पश्यन्ति योगिनः ॥३॥
हृदये व्यज्यते घोषो गर्जत्पर्जन्यसंनिभः। तत्र स्थिता सुरेशान मध्यमेत्यभिधीयते॥४॥
प्राणेन च स्वराख्येन प्रथिता वैखरी पुनः। शाखापल्लवरूपेण ताल्वादिस्थानघट्टनात्॥५॥ (योगशिखोपनिषद् ३/२-५)

(२) सरस्वती दया-युक्त हैं, दीर्घ नयन वाली हैं। दैशिक (या देशिक, जो दिशा दिखाये, गुरु) रूप में अभ्युदय का मार्ग दिखाया है। वाम स्तन पर वीणा है तथा सभी संगीत की मातृका (वर्णमाला) हैं।

टिप्पणी-मीमांसा दर्शन के आरम्भ में अभ्युदय तथा निःश्रेयस के लिये यह दर्शन कहा गया है। युधिष्ठिर ने जब परीक्षित को राज्य देकर संन्यास ग्रहण किया (२२-८-३१०२ ईसा पूर्व), उस दिन जय संवत्सर आरम्भ हुआ था तथा अभ्युदय के लिय्र् निकले, अतः इसे जयाभ्युदय-शक कहा गया है। जनमेजय के सभी दानपत्रों में इसी शक का प्रयोग है। अभ्युदय = धर्ममार्ग, निःश्रेयस = मोक्ष।

वर्णों से सभी प्रकार के शब्द-वाक्य आदि से युक्त साहित्य बनते हैं, अतः इसे मातृका (माता समान) कहा गया है।

(३) वटु (छात्र) को सरस्वती के पास जाने पर और किसी तट (आश्रय) की जरूरत नहीं होती। वह चूली (चूल = चोटी) अर्थात् शिखर पर पहुंच जाता है। ताली (ताल =संगीत का स्वर) अर्थात् संगीत शिक्षा की मूल हैं। पलास (वेद) रूपी ताटङ्क (कान का कुण्डल) है। श्रेष्ठ वीणा के साथ हैं। अर्थों के मूल में पहुंचने वाली (वि-कच = बिना केश का, बाल की खाल निकालना)। शास्त्र-माधुरी का आनन्द लेने वाली भृङ्ग (भ्रमर) हैं। वह करुणा ती तरङ्ग से भरी हैं। मलय (चन्दन सुगन्ध युक्त) मातङ्ग (१० वीं महाविद्या, रामायण काल के एक ऋषि की कन्या रूप में) की कन्या रूप में हैं।

टिप्पणी – वट वृक्ष गुरु शिष्य परम्परा का प्रतीक है अतः वह आदि गुरु शिव का चिह्न है। जैसे वट वृक्ष की शाखा जमीन से लग कर उसी के जैसा वृक्ष बन जाती है, उसी प्रकार गुरु शिष्य को अपना ज्ञान देकर अपने जैसा बना देता है। (दक्षिणामूर्ति स्तोत्र का अन्तिम श्लोक)। अतः शिष्य को वटु कहते हैं। वट के मूल द्रुम से जो अन्य द्रुम निकलते हैं, उनको दुमदुमा कहते हैं – सोमनाथ में दुमियाणी, भुवनेश्वर में दुमदुमा, कोलकाता के दक्षिणेश्वर के निकट दुमदुमा (दमदम हवाई अड्डा), कामाख्या के निकट दुमदुमा (बंगलादेश सीमा पर), वैद्यनाथ धाम का दुमका।

मुण्डकोपनिषद् के अनुसार मूल अथर्व वेद से ३ अन्य शाखायें निकलीं-ऋक्, यजु;, साम, जैसे पलास की टहनी से ३ पत्ते निकलते हैं (फिर वही ढाक के ३ पात)। अतः पलास ब्रह्मा या वेद का चिह्न है। शाखा निकलने से मूल नष्ट नहीं होता, अतः त्रयी का अर्थ ४ वेद होते हैं, १ मूल + ३ शाखा।

मतङ्ग का अर्थ हाथी भी होता है। व्यक्त वैखरी वाणी स्थूल है अतः उसे मतङ्ग भी कहते हैं। वह सुनने पर शुद्ध अर्थ सरस्वती की कृपा से ज्ञात होता है।

(४) माणिक्य की वीणा को गोद में रख कर बजा रही हैं (उपलालयन्तीम्)। मञ्जुल वाणी के विलास में मग्न या मदमस्त हैं। उनकी शोभा माहेन्द्र-नील है, तथा कोमल अंग हैं। ऐसी मातंग कन्या का मैं सतत् स्मरण करता हूं
टिप्पणी-सामान्यतः गौरी वाक् के रूप में सरस्वती को सदा गौरी कहा गया है। किन्तु व्यक्त वाणी तम है, अतः इस रूप में नील वर्ण का कहा गया है।

पूर्व तट का पर्वत महेन्द्र पर्वत है, ओडिशा के फूलबानी से आन्ध्र के राजमहेन्द्री तक। रामायण में रामेश्वरम तक महेन्द्र पर्वत कहा गया है। उसके निकट जगन्नाथ का स्थान नीलाचल कहलाता है। उनकी या कृष्ण की जैसी श्याम शोभा है, वैसी हई मातङ्गी रूप में सरस्वती की शोभा है।


अन्यतः संकलित पूर्ण श्यामलानवरत्नमालिकास्तोत्र

ओङ्कारपंजरशुकीमुपनिषदुद्यानकेलिकलकण्ठीम् ।
आगमविपिनमयूरीमार्यामन्तर्विभावये गौरीम् ॥१॥

दयमानदीर्घनयनां देशकरूपेण दर्शिताभ्युदयाम् ।
वामकुचनिहितवीणां वरदां संगीतमातृकां वन्दे ॥२॥

श्यामतनुसौकुमार्यां सौन्दर्यानन्द सम्पदुन्मेषाम् ।
तरुणिमकरुणापूरां मदजलकल्लोललोचनां वन्दे ॥३॥

नखमुखमुखरितवीणानादरसास्वादनवनवोल्लासम् ।
मुखमम्ब मोदयतु मां मुक्ताताटंकमुग्धहसितं ते ॥४॥

सरिगमपधनिरतां तां वीणासंक्रांतकांतहस्तां ताम् ।
शांतां मृदुलस्वांतां कुचभरतान्तां नमामि शिवकांताम् ॥५॥

अवटुतटघटितचूलीताडिततालीपलाशताटंकाम् ।
वीणावादनवेलाऽकम्पितशिरसां नमामि मातङ्गीम् ॥६॥

वीणारवानुषङ्गं विकचमुखाम्बोजमाधुरीभृन्ङ्गीम् ।
करुणापूरतरङ्गं कलये मातङ्गकन्यकापांगम् ॥७॥

मणिभङ्गमेचकाङ्गीं मातङ्गीं नौमि सिद्धमातङ्गीम् ।
यौवनवनसारङ्गीं सङ्गीताम्भोरुहानुभव भृङ्गीम् ॥८॥

मेचकमासेचनकं मिथ्यादृष्टान्तमध्यभागं ते ।
मातस्तव स्वरूपं मंगलसंगीतसौरभं मन्ये ॥९॥


Arun Upadhyay IPS Formar DGP Cuttack, Orissa

लेखक : अरुण उपाध्‍याय, आईपीएस, पूर्व डीजीपी कटक उड़ीसा