दक्षिणपंथ का उदय और वैश्विक गांव

rise of right wing and global village

दक्षिणपंथ का उदय और वैश्विक गांव rise of right wing and global village

दुनिया विभिन्‍न तरीकों से बंटी हुई है, हर देश के बनने की अलग वजह है, सभी देश भारत की तरह अंग्रेजों से गुलामी से मुक्ति के बाद नहीं बने हैं। अंग्रेजों और मुगलों के आने से बहुत पहले तक भारत सांस्‍कृतिक रूप से एक था। हर राज्‍य की अपनी सीमाएं थी, लेकिन शोध, अनुसंधान, अध्‍ययन अध्‍यापन, धार्मिक स्‍थानों के केन्‍द्र अलग अलग अपना स्‍वतंत्र अस्तित्‍व लिए हुए थे।

बाकी दुनिया में अधिकांशत: लोग या तो अपनी शक्‍ल और कद काठी के कारण, अपनी भाषा के कारण, अपनी भौगोलिक स्थिति आदि कारणों से स्‍वतंत्र अस्तित्‍व बनाए हुए थे। इन सभी देशों के पास अपना विशिष्‍ट क्षेत्र था, जिसका अतिक्रमण नहीं के बराबर होता था। समय के साथ तकनीक और बाजार दोनों ने विकास किया और इस सीमा पर आ खड़े हुए कि राष्‍ट्र की सीमाएं विस्‍तार को बांधने लगी तो इन सीमाओं को तोड़ने के लिए वैश्विक गांव की भूमिका बननी शुरू हो गई। यानी कोई भी कहीं भी आ जा सके और सांस्‍कृतिक आदान प्रदान से पूरी दुनिया एक दूसरे से सीखे और आगे बढ़े।

इसके लिए लिबरल होना जरूरी था। भारत में ऐसे लिबरल तंत्र नालंदा और तक्षशिला के रूप में याद किए जाते हैं, जहां पूरी दुनिया के लोग आते रहे हैं।

लेकिन बाजार निर्मम होता है, प्रथम और द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद शक्तिशाली स्थितियों में आए राष्‍ट्रों ने अपनी सीमाओं का सुरक्षित किया, अपने देश में घुसने की शर्तों को कठिन और कठिनतर किया और दूसरे देशों पर अनावश्‍यक बोझ लादते गए। दुनिया में प्रथम श्रेणी के देश,‍ द्वितीय श्रेणी के देश और तृतीय श्रेणी के देश बन गए।

भारत जैसे लिबरल वातावरण से ओत-प्रोत देशों को स्‍वाभाविक रूप से तृतीय श्रेणी के देशों में शुमार कर दिया गया, जबकि द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद लगभग सभी प्रमुख देशों के पास आगे बढ़ने के समान अवसर थे, लेकिन भारत को वह मौका नहीं दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि देश को जबरन लिबरल ही रहना पड़ा, चाहे इस देश के चाहे जैसे सांस्‍कृतिक हमले किए जाएं, चाहे जितना धर्मांन्‍तरण किया जाए और विकास के रथ के पहियों को कीचड़ में फंसाया रखा जाए। ताकि तैयार माल खरीदने वाले बचे रहें।

इस बीच भारत का मानवश्रम कमाल का निकला, उसने लगभग हर देश में पहुंचकर सेवाएं दी। पिछली दो पीढि़यों की सर्वश्रेष्‍ठ मेधा ने किसी ने किसी विदेशी जमीन पर ही कमाल किया है और अब भी कर रहे हैं। यहां तक कि दुनिया के सबसे बड़े तंत्र में अधिकांश भारतीय मशीनरी का महत्‍वपूर्ण भाग बने हुए हैं।

लिबरल होने के कुछ फायदे हैं तो बहुत से नुकसान भी हैं। सबसे बड़ा नुकसान यह है कि विदेशी धरती से आए व्‍यवसायियों का उस देश के प्रति प्रतिबद्ध नहीं होना। यह कैसे नुकसान करता है, इसके बारे में जानने के लिए आपको ऑफशोर बैंकिंग सिस्‍टम गूगल पर सर्च करके पढ़ना चाहिए।

यानी एक देश की सर्वश्रेष्‍ठ व्‍यवस्‍थाओं को एक विदेशी कंपनी अपने पैसे के दम पर इस्‍तेमाल करती है और मुनाफा इस तरह से हवा में गायब कर देती है कि देश को कुछ प्रतिशत करों के अलावा कुछ लाभ नहीं होता, अधिकांशत: कर के मामलों में भी यह देश ठगे जा रहे हैं। संचार क्रांति ने देशों की निजी व्‍यवस्‍था में कोढ़ की खाज का काम किया है।

पहले यह दिखाई नहीं देता था, लेकिन समय के साथ सूचनाओं के अदम्‍य प्रवाह ने यह स्‍पष्‍ट कर दिया है कि किसी देश के आधारभूत संसाधन (जमीनी और मानव श्रम और इंटेलेक्‍चुअल प्रॉपर्टी आदि सभी कुछ) विदेशी संस्‍था इस्‍तेमाल कर मुनाफा हवा में उड़ा रही है। इसका दुष्‍परिणाम यह आ रहा है कि राष्‍ट्रों में अधिकांश जनता सेवा क्षेत्र में सिमट रही है, वह भी नौकरों की तरह, न कि उद्यमियों की तरह। आईटी क्षेत्र के लोगों को यह बात बहुत तरीके से और बहुत जल्‍दी समझ में आई, यही कारण रहा कि आईटी क्षेत्र में स्‍टार्ट अप शब्‍द सबसे पहले चलन में आया। अभी दूसरे क्षेत्रों में तो स्‍टार्ट अप की आहट भी सुनाई नहीं देती है, वहीं आईटी क्षेत्र में यह जुमला पुराना हो चला है।

अब देशों की सीमाओं से परे लाभ अर्जित करने वाली कंपनियों की संख्‍या अधिक होने और राज्‍य के शीर्ष पर बैठे लोगों के नियंत्रण से बाहर होने लगी है तो अब हर राष्‍ट्र को यह समझ आने लगा है कि बजाय कि अपने संसाधनों को दूसरे देशों द्वारा इस्‍तेमाल किए जाने की सुविधा देने के बजाय सीधे लाभ अपने लोगों द्वारा अपने लोगों को ही दिए जाने की कवायद शुरू करनी चाहिए।

यही आधार बना है वैश्विक दक्षिणपंथ का। अमरीका में ट्रंप गोरी चमड़ी वाले लोगों के अधिकारों की रक्षा का आश्‍वासन देकर जीतते हैं और भारत में मोदी स्‍वर्णिम भारत और विकास का नारा देकर, दोनों में आधारभूत अंतर नहीं है। रूस में पुतिन जब राष्‍ट्रवाद के नाम पर दूसरे देशों को सबक सिखाने की बात करते हैं, तो वह किसी कोण से दक्षिणपंथ से इतर नहीं है।

अब बताओ कामरेड वैश्विक स्‍तर पर लिबरलिज्‍म क्‍यों फेल हुआ, तुम्‍हारे हिसाब से देशों की सीमाएं कठोर होने पर क्‍या विकास रुक जाएगा, या विकास की आइस कैंडी पर जमी नमक की परत चाटते हुए ही कुछ पीढि़यां और कुर्बान करनी है?