नायक तो निर्दोष नहीं हैं , लेकिन …

responsibility of role model Child health and habits

नायक तो निर्दोष नहीं हैं , लेकिन… Responsibility of role models

आरम्भ के साथ ही जीवन के सूत्र हमें नायकों के बीच ले जाते हैं। हर उम्र का अलग हीरो, हर उम्र की अलग दृष्टि के अनुसार।

छोटे बच्चों के नायक अपने पन्थ से निकालकर उनके माँ-बाप देते हैं। जो पन्थहीन सजग परिवारों में पल रहे हैं , वे कार्टून-किरदारों को नायक मान लेते हैं। बचपन में पौष्टिक भोजन के साथ पुष्ट नायकत्व भी चाहिए होता है। वह जिसके पास हर समस्या का त्वरित समाधान हो। वह जो अजेय हो और हमसे स्नेह भी रखे। संसार की सबसे बड़ी शक्ति हमारे पक्ष में खड़ी हो , नहीं तो हमें संसार में भय लगेगा।

छोटा बच्चा रात को सूसू करने से डरता है। बाथरूम कुछ दूर है , लेकिन गैलरी अँधेरी है। शंका के निवारण के लिए नेपथ्य में चलना तो पड़ेगा ही। लेकिन वह भय से रुका झिझक रहा है। पीछे से मम्मी आवाज़ देती हैं : फलाने का नाम लेकर चलते चले जाओ , शंका का निस्तारण निर्भय रूप में सम्पन्न हो जाएगा। बच्चा हिचकते-अटकते आगे बढ़ता है और शंका से बच्चे की तरह निवृत्त हो जाता है। उसकी माँ ने सारा ध्यान उसकी सूसू पर लगाया , उसकी वृद्धि उनके लिए महत्त्वपूर्ण नहीं रही।

बच्चे का क़िरदार रोमैंटिक है : रूसो लिखते हैं। रूमानियत के साथ भय का सहज सम्मेल है। संसार में रूमानियत आपको कम होती भले लगती हो , मुझे नहीं लगती। ( भयभीत करने के लिए तो पर्याप्त कारण ख़ैर हैं ही ! ) रूमानी होना मनुष्य के स्वभाव में है। वह अपने भीतर के भयभीत बच्चे को बड़ा नहीं करना चाहता। बचपन रहे , भय-मुक्ति की जगह सुविधा-अवलम्ब ले ले , देवता-पैगम्बर-सुपरहीरो की जगह भी बनी रहे।

चिकित्सा की पढ़ाई करते समय नये लड़के विस्तार से रोगी की समस्याओं का वर्णन करते हैं। समस्या उनकी जद में जल्दी आती है , समाधान नहीं आता। वहाँ निदान-उपचार की दहलीज़ पर वे ठिठकते हैं , रोगी जबकि कान गड़ाये सुन रहा है। तभी प्रोफ़ेसर साहब एक गम्भीर स्वर में कहते हैं : सम डे द चाइल्ड हैज़ टु ग्रो अप टु बी अ मैन।”

उम्र बढ़ने के साथ प्रकाश हर अँधेरे कोने में पहुँच जाता है। हर गुह्य-गुप्त स्थान दिखने लगता है। नायक पहले से पूरा नज़र आता है , बेहतर मैं नहीं कहूँगा। लेकिन पूरा देख लेना-जान लेना , बच्चों का दिल तोड़ देता है। यही वह क्षण है जब कुछ बच्चे एकदम से बड़े होने लगते हैं और कुछ रुक जाते हैं या उलटे लौट पड़ते हैं ।

रुकना या रिवाइंड होना अप्राकृतिक है। यह प्रकृति से उतना ही बड़ा विरोध है , जितना ग़ैर-रूमानी होकर समय से पहले बड़े होना। लेकिन बच्चे हैं कि मानते नहीं। वे इस बात को स्वीकृति देने को तैयार नहीं कि नायक भी सदोष हो सकते हैं। वे सदोषत्व को ही दोषी सिद्ध करने लगते हैं। साथ में आरोप मढ़ने लगते हैं उनपर जो बड़े हो चुके हैं और जो अब नायकहीन जीवन जी रहे हैं।

प्रणयी चन्द्रमा जितना आपको पूर्णिमा को दिखता है , आधा दिखता है। उस आधे में भी वह दाग़दार है। बाक़ी का आधा आप नहीं देख सकते। संसार के सबसे बड़े रूमानी प्रतीक की यही सत्यता है।

मैं नहीं मानता कि प्रेम प्रेमी से मिलने-मात्र से मन में जग कर खिल जाता है। सच बल्कि यह है कि प्रेमी से मिलना प्रेम की शिक्षा का आरम्भ है : आप प्रेम करते-करते सीखते हैं। पिता बनते ही न पितृत्व आता है , न माता होते ही मातृत्व। शादी हो जाने भर से परिणय-तत्त्व नहीं जाग्रत हो जाता। सम्बन्धों में कोई लक्ष्य नहीं होते होते , केवल मार्ग होते हैं। रिश्ते अनवरत सींच-सींच कर पोसे-पनपाये जाते हैं , अन्यथा सबसे अच्छे बीज भी बंजर ज़मीन पर कुछ उपज नहीं लाते। और जब प्रेम रोज़ की सीख हो जाता है जो उसमें सुखद उत्तीर्णताएँ और दुखद अनुत्तीर्णताएँ भी संग घटती हैं।

संसार में जितनी असुरक्षा बढ़ेगी , लोग अवलम्ब के लिए दौड़ेंगे। कुछ मन्दिरों-मस्जिदों में पनाह लेंगे , कुछ सिगरेट-शराब-गाँजे के आगे स्वयं को समर्पित कर देंगे। ऐसे में दोनों के आगे न प्रस्तुत होने वालों पर बड़ी ज़िम्मेदारी है। समाज उनकी ओर बड़ी उम्मीद और आश्चर्य से देख रहा है कि तुम अगर और जब कभी बचपन को लौटे , तो नायकहीन कैसे जियोगे। बड़ों के मूल्यों के साथ जब दरकोगे-टूटोगे , जब सिसक कर रोने का मन होगा — कहाँ जाओगे तब , किसके यहाँ ? धर्मग्रन्थ में नहीं , धुएँ में नहीं। तो कहाँ ? तुम किस समूह की इकाई कहलाओगे मेरे भाई ?

मुझे उन बच्चों की चिन्ता ज़रूर है , जो अपने नायकों से चिपके खड़े हैं और उनके ख़िलाफ़ तर्क का एक शब्द नहीं सुन सकते। लेकिन मैं उन बच्चों के लिए अधिक और पहले फ़िक्रमन्द हूँ , जिन्होंने नायकों-तले जीवन जिया ही नहीं और ग़लत राहों पर निकल गये। नायकहीन बच्चे नायकहीन बड़े बन सकते थे और बनना चाहते थे , लेकिन वे कुछ भी न बन सके। समस्याओं से किया गया पलायन हमें सदैव के लिए बचपन और उसके नायकत्व के साथ क़ैद कर देता है। धर्म समाज की अफ़ीम रहा है , लेकिन अधर्म ने सीधे अफ़ीम खाने को प्रेरित किया है। यह लक्षणा की मार से बचने के लिए अभिधा का घाव लेना था।

दोनों घाव बुरे हैं , दोनों के उपचार आवश्यक। और विज्ञान की वह पुस्तक जिस पर नीति की जिल्द है , दोनों को पूर सकती है। यद्यपि इस सिद्धान्त की अनन्तिम-अन्तिम परीक्षाएँ मेरे जीवन में भी अभी बाक़ी हैं क्योंकि अपूर्ण जीवन अपूर्ण सिद्धान्त ही गढ़ पाता है।

इसलिए सर्चलाइट लिये आगे बढ़ता हूँ , धीरे-धीरे…


Dr Skand Shukla

स्‍कन्‍द शुक्‍ल

लेखक पेशे से Rheumatologist and Clinical Immunologist हैं।
वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं और अब तक दो उपन्‍यास लिख चुके हैं