विस्फोट में बीज जहाँ-तहाँ गड़े पड़े हैं। कहीं भी, कभी भी वे फट सकते हैं। जीवन के प्रति वे निर्मम हैं , उनके सम्पर्क में आने वाले के चीथड़े पल-भर में उड़ सकते हैं। ऐसे में कोई उन्हें तलाशने का, उनसे बचने का रास्ता निकाल लेता है।
एक ऐसी विधि जिससे उनके अस्तित्व का पता चल जाए और कोई आपदा आने न पाए। यह घ्राण की हिंसा पर जीत है : एक रसायन की क्रिया दूसरे रसायन की काट बनकर सामने आती है।
अंगोला एक देश है अफ्रीका में। दशकों गृहयुद्ध की आग में झुलसा। लोग मरे , जानवर भी। अफ़्रीका के युद्ध आधुनिक काल में अधिक प्रलयंकर हो जाते हैं : वहाँ आदमी जब लड़-मरते हैं तो प्रकृति पर बीतती है। आप कहेंगे तो क्या प्रकृति अन्य स्थानों पर नहीं। है , अवश्य है। पर अन्य स्थानों का मनुष्य प्रकृति में अपने उद्गम से जितना दूर आ गया है , अफ़्रीका का मानव अभी उतना नहीं आया है। वह अब भी कुदरत की सन्तति होने का बोध भूला नहीं है , उसमें अब भी हरीतिमा के रेशों की जगह तकनीकी के तारों से स्थान नहीं बनाया है।
तो अंगोला में मारकाट हुई। जब भी मनुष्य लड़ते हैं , वे पैसे का अपव्यय करते हैं। पैसे पेड़ों पर लगते नहीं , उन्हें कहीं से हासिल करना पड़ता है। नतीजन वहाँ के शिकारियों ने गैण्डों के सींग और हाथियों के दाँतों के लिए उन्हें मारना शुरू किया। यह मनुष्य की नीचता का चरमतम बिन्दु था। लड़ना है , आदमी मारना है , इसलिए पहले जानवर मारेंगे। उसकी सींग-दाँत बेचेंगे , पैसे कमाएँगे। फिर हथियार ख़रीदेंगे और नाशलीला का खेल करेंगे।
यह सब होता देखकर बेचारे जानवर वहाँ से भगे। उन्होंने सरहदें पार कीं , देश बदले। अपनी जानें जैसे-जिस तरह बच सकती थीं , बचायीं। अन्ततः आदमी का पागलपन ख़त्म हुआ। गृहयुद्ध समाप्त हुआ। जानवरों को लगा , अब वे वापस अपने पुराने जंगल लौट सकते हैं।
तो हाथी वापस अपने पुराने देश लौटे। लेकिन एक बड़ी समस्या उनकी जान लेने लगी। वहाँ तमाम ज़मीनी माइनें बिछी थीं , जो हटायी न जा सकी थीं। नतीजन कई हाथियों के उनपर पैर पड़े और उन्होंने अपनी जान से हाथ धोया। आदमी के किये-धरे से उनका पीछा अब भी नहीं छूट रहा था।
फिर धीरे-धीरे एक विचित्र बात सामने आयी। हाथियों ने अपनी इन भूमिगत मौतों से बचना शुरू कर दिया। वे अब कम मरते थे , उनके पैर उन इलाक़ों में पड़ते ही नहीं थे , जहाँ लैण्डमाइनें थीं।
यह बात शुरू में लोगों को साधारण लगी। फिर लेकिन विज्ञान का इसपर ध्यान गया और लोगों ने हाथियों को पढ़ना शुरू किया। निष्कर्ष यह निकला कि उनकी घ्राण क्षमता उन्हें बता दे रही थी कि ट्राई-नाइट्रोटॉल्यूइन वाली वे माइनें कहाँ-कहाँ हैं। उन्होंने सूँघ कर उनकी उपस्थिति जान ली और उनसे बचना शुरू कर दिया।
हम कुत्तों को उनकी घ्राणशक्ति के कारण जानते हैं। यह सिद्ध हुआ है कि हाथियों की घ्राणशक्ति उनसे कहीं बेहतर है। हाथियों में घ्राण-सम्बन्धी जीनों की संख्या कुत्तों की तुलना में ढाई गुनी है। बल्कि वह अब तक के ज्ञान के अनुसार सभी पशुओं में सर्वाधिक है। वे उन जगहों पर भी इसका परिचय दे सकते हैं , जहाँ श्वान से चूक हो सकती है। हाथियों के झुण्ड बीसियों किलोमीटर दूर से पानी की गन्ध सूँघ कर उस ओर बढ़ लेते हैं।
कहानी में मैं हाथी का उपयोग नहीं ढूँढ़ रहा, आप भी मत ढूँढ़िए। प्रकृति के सभी रहस्य सीधे उपयोग तलाशने के लिए नहीं होते , वे बस होते हैं। होना ही उनका उपयोगी होना है। इस बात को जानकार मुग्ध होइए कि बमों-बन्दूकों के घावों की सूजन से जूझती धरती से रणछोड़ने वाले ये गजराज आदमी की नीचता से किस-किस तरह से पार पाते हैं।
मौत की भी गन्ध हो सकती है , सूँड से सूँघ कर भी मृत्यु से बचा जा सकता है।
स्कन्द शुक्ल
लेखक पेशे से Rheumatologist and Clinical Immunologist हैं।
वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं और अब तक दो उपन्यास लिख चुके हैं