संचार साधनों को सबसे पहले इस देश महात्मा गांधी ने समझा। वे न केवल छोटी से छोटी खबर प्रकाशित करवाने पर जोर देते थे, बल्कि खबर छपने पर उसे ट्रॉफी की तरह सजाकर रखते थे। विदेश पत्रकारों, खासकर इंग्लैंड के इंफ्लूएंस से दूर रहने वाले पत्रकारों को खास प्रशय दिया जाता था। इसका असर भी हुआ, इंग्लैण्ड की संसद तक गुजराती बणिए की गूंज थी। महात्मा गांधी ने गरीब भारत में खुद को गरीब प्रतिनिधि के रूप में पेश किया और सफल आंदोलन चलाए। कुछ गलतियां रही होंगी, लेकिन उनके ब्रांड मैनजमेंट को आज भी चैलेंज नहीं किया जा सकता। भारत की मजबूरी है कि भारत के पश्चिम में सबसे शक्तिशाली ब्रांड एंबेसडर विवेकानन्द के बजाय गांधी हैं।
नेहरू ने मीडिया से दोस्ती को गांधीजी के साथ रहकर सीखा और उसे आजादी के बाद पूरी तरह भुनाया भी। देश के लिए नेहरूजी ने क्या किया और क्या नहीं किया, यह अलग बहस का विषय है, लेकिन देश आजाद होने के बाद देश के करोड़ों लोगों ने कोने कोने में जो भी प्रयास किए, देश को ऊंचा लाने के लिए, उसका सारा श्रेय पहले नेहरूजी और बाद में इंदिराजी खाती रहीं। होमी जहांगीर भाभा और इक्का दुक्का दूसरे लोगों को छोड़ दिया जाए, तो ऐसा लगता है खुद नेहरूजी और इंदिराजी कुदाली और करनी लेकर पूरे देश को बना रहे थे।
नेहरूजी ने मीडिया और बुद्धिजीवियों के नेक्सस से अपनी ऐसी छवि तक बना ली थी कि एक दौर में कहा जाता था कि गांधी टोपी (हालांकि गांधीजी ने कभी टोपी नहीं पहनी लेकिन उनके नाम पर टोपी का ब्रांड बनाया गया) को अगर किसी खंभे पर टांग दिया जाए तो वह खंभा भी चुनाव जीत सकता है। नेहरूजी और बाद में इंदिराजी ने देशभर में ऐसे खंभे ही खड़े किए, जो केन्द्र से संचालित होते थे। देश नामभर के लिए संघीय शासन प्रणाली में था, लेकिन हर महत्वपूर्ण निर्णय केन्द्र से ही होता था। इसमें सहयोगी थी केन्द्रीय आईसीएस या कहें आईएएस प्रशासनिक प्रणाली।
आज मोदीजी ने उसी तर्ज पर खुद को देश का सबसे शक्तिशाली ब्रांड एम्बेसडर बनाया है। फर्क यह रहा कि उन्होंने परंपरागत मीडिया जैसे समाचार पत्र और टीवी के बजाय सोशल मीडिया को अपना हथियार बनाया और रेडियो से अपनी पकड़ बनाई। अब राष्ट्रीय ब्रांड बनने के साथ फिर से नेहरू दौर शुरू हो चुका है। मोदीजी और उनकी टीम की कोशिश रहती है कि वे मोदीजी के नाम पर ही चुनाव लड़ें। चाहे वह लोकसभा चुनाव हो या किसी राज्य के विधानसभा चुनाव। नेहरू और इंदिरा युग की तरह एक बार फिर संघीय ढांचा पूरी तरह से केन्द्र से संचालित होने लगे। इस कोशिश में कई राज्यों में भाजपा ने मुंह की भी खाई, लेकिन मोदीजी की टीम अब भी इसी प्रयास में लगी है कि मोदी नाम से वोट मिले और ब्रांड को इतना शक्तिशाली बनाया जाए कि किसी खंभे पर भी मोदीजी नाम की तख्ती लगी हो तो वह खंभा चुनाव जीत जाए।
भारत जैसे देश में जहां विभिन्न माइंडसेट के लोग एक साथ रहते हों और विभिन्न आइडियोलॉजी को फॉलो करते हों, वहां गणतंत्रात्मक शासन प्रणाली, जिसमें हर एक राज्य और जिला अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हुए अपने निर्णय अपने स्तर पर करे, कुछ मुश्किल है। इस देश में देश विरोधी वामपंथी और पाकिस्तानपरस्त दीनी तालीम वाले क्षेत्र भी हैं, जो स्थानीय स्तर पर शासन, प्रशासन और सत्ता को प्रभावित कर सकते हैं, ऐसे में उन क्षेत्रों को गणतांत्रिक व्यवस्था के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। वीपी सिंह के दौर में कुछ समय ऐसी स्थिति रही, तब कश्मीर से मुसलमानों ने हिंदुओं को खदेड़ दिया गया था। उत्तर पूर्व कांग्रेस की प्रायिकता में कभी रहा नहीं, उसका परिणाम भी धर्म परिवर्तन और स्थानीय उग्रवादी संगठनों की सरकारों के रूप में हम देख सकते हैं।
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो संघीय प्रणाली का भ्रम बने रहते हुए, देश में केन्द्रीय तंत्र की ही जरूरत महसूस होती है, उसे मोदीजी पूरा करने का प्रयास करते दिखाई दे रहे हैं। जैसे जैसे केन्द्र पर मोदी भाजपा की पकड़ बढ़ रही है और राज्यों में भाजपा सरकारें बन रही हैं, वैसे वैसे लिबरल की चिंता भी बढ़ती जा रही है।
राजनीतिक स्पेक्ट्रम को मोटे तौर पर पांच भागों में बांट सकते हैं, धुर वामपंथी, केन्द्र से वाम की ओर झुके अवसरवादी, केन्द्र में रहने वाले अवसरवादी, केन्द्र से दक्षिणपंथी की ओर झुके अवसरवादी और धुर दक्षिणपंथी। इनमें से दक्षिणपंथियों और केन्द्र से दक्षिण की ओर झुके लोगों के लिए यह अनुकूल अवसर है, जबकि केन्द्र, केन्द्र से वाम और धुर वामपंथियों के लिए यह चिंता का सबब है। ऐसे में एक जुमला बहुत शिद्दत से उछाला जाता है “पावर करपट्स एंड एब्सोल्यूट पॉवर करप्ट्स एब्सोल्यूटली”।
अवसरवादियों की संख्या इस देश में कुछ अधिक है। कैडर बेस वामपंथी बहुत कम हैं और कैडर बेस दक्षिणपंथी इन सालों में बढ़े हैं। इन दोनों के बीच सर्वाधिक संख्या अवसरवादियों की रहती है। इन लोगों के लिए ऐसा दौर कठिन है, जब एक ही पार्टी को केन्द्र और राज्यों में पूर्ण बहुमत मिल जाए। इससे देश का विकास तो तीव्र होगा, लेकिन बिखरी हुई अनन्त संभावनाओं का गला घुट जाएगा, जिन पर अवसरवादी राज करते हैं।
नेहरू की टोपी के बाद मोदी लहर ऐसा ही आतंक है, जो देश के एक तबके लिए आशंकाओं के द्वार खोलता है। नेहरू और इंदिरा के दौर में शासन की इतनी पकड़ थी कि केन्द्रीय सत्ता के खिलाफ बोलने वाले दबी जबान में ही कुछ बोल पाते थे और मीडिया तो गुणगान करते थकता नहीं था। अब परंपरागत मीडिया के रसातल में पहुंचने के बाद सोशल मीडिया पर नियंत्रण भले ही आसान न हो, लेकिन असंभव नहीं है, ऐसे में सूचनाओं का प्रवाह नियंत्रित होने के साथ ही हम एक नई डिक्टेटरशिप की ओर तेजी से लुढ़क रहे हैं। मोदीजी की मंशा अच्छी है, उनकी टीम की मंशा अच्छी है, लेकिन उनके बाद आने वाला भी कोई ऐसा ही हो, जो संघीय केन्द्रीय प्रणाली का सदुपयोग करे, यह जरूरी नहीं, यहीं से आशंका के बादल और घने होते दिखाई देते हैं।