धनु को लाँघ कर मकर में उसका जाना

आज मकर-संक्रान्ति है।

क्रान्ति शब्द में लाँघने का भाव है। किसी ने कुछ लाँघा और क्रान्ति हो गयी। फिर जब यही लाँघना सम्यक् ढंग से हुआ , तो सम् + क्रान्ति = संक्रान्ति हो गयी।

लेकिन सूर्य धनु से मकर में नहीं जाता , सूर्य हमें यहाँ से ऐसा करता दिखता है। दिखना सापेक्षता है , यह पृथ्वी से तय होता है।

उत्तरायण और दक्षिणायन को समझने के लिए मैं उसे उत्तर-दक्षिण समझाता हूँ। वह सोचती है कि वह समझती है , इसलिए हँस देती है। मैं उससे लखनऊ में उत्तर पूछता हूँ , उसके पास जवाब है। वह दक्षिण भी मुझे बताती है। लेकिन ऐसा वह सूर्य के उगने-डूबने की दिशाओं से तय कर रही है।

सामान्य लोग सूरज के उगने-डूबने से पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण तय करते हैं , जबकि दिशाओं से सूरज का उगना-डूबना तय होता है। पूर्व-पश्चिम नहीं बदलते , सूरज का उगना-डूबना बदल जाता है।

मैं उससे कहता हूँ कि सूर्य से कुछ न तय करे क्योंकि वह वह रोज़ एकदम पूर्व से न तो उगता है और न पश्चिम में डूबता है। वह ऐसा केवल दो दिनों में ही करता है : इक्कीस मार्च और इक्कीस सितम्बर , बस।

इक्कीस मार्च के बाद से सूर्य रोज़ धीरे-धीरे पूर्व से खिसक कर उत्तर की ओर बढ़ता जाता है , यानी वह दरअसल पूर्व में न उग कर थोड़ा-थोड़ा उत्तर-पूर्व में उगता है। ऐसा करते-करते इक्कीस जून आ जाता है , जिस दिन सूर्य सर्वाधिक पूर्वोत्तर में उगता है। फिर वह वापस सटीक पूर्व की ओर लौटना शुरू करता है। यही दक्षिणायन है। दक्षिणायन यानी जब सूर्योदय दक्षिण की ओर बढ़ने लगे।

इक्कीस सितम्बर को सूर्य वापस ठीक पूर्व में उगता है और उसके बाद दक्षिण की ओर उगना शुरू कर देता है। हर दिन उसे उगता देखने पर वह थोड़ा दक्षिण-पूर्व में उगता मालूम देगा। ऐसा करते-करते इक्कीस दिसम्बर आ जाता है। उस दिन सूर्य सबसे अधिक दक्षिण-पूर्व में उगा होता है। फिर अगले दिन से वह वापस पूर्व की ओर लौटने लगता है और इक्कीस मार्च को ठीक पूर्व में उगता है।

तो फिर संक्रान्ति तो इक्कीस दिसम्बर को हो गयी। उत्तरायण तो तभी से आरम्भ हो गया। इक्कीस दिसम्बर से ही सूर्य दक्षिण से लौटने लगा। तो फिर आज क्या है ? आगे इस पर बात करते हैं।

मकर-संक्रान्ति बताती है कि सूर्य से दिशाएँ न तय करिए , दिशाओं से सूर्य की स्थिति जानिए।

समय हर सूर्य से बड़ा है , बड़े-बड़े सूर्य उसके प्रभाव में दिशाएँ बदल लेते हैं।

Makar Sankranti Dr Skand Shukla

हम जानते हैं कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा नहीं करता , बल्कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। जिस पथ पर वह सूर्य के चारों ओर घूमती है , वह क्रान्तिवृत्त कहलाता है। लेकिन वह अपने अक्ष पर लगभग साढ़े तेईस डिग्री झुकी हुई भी है। यह झुकाव ही सर्दी-गर्मी और अन्य ऋतुओं का मूल है।

पृथ्वी को बीचों-बीच किसी सन्तरे या गेंद की तरह अगर काटा जाए , तो जो वृत्ताकार तल बनता है उसे बड़ा कर दीजिए। आपको एक बड़ा गोल तल मिलेगा जिसे भूमध्य-वृत्त कहते हैं। चूँकि पृथ्वी अपने अक्ष पर तिरछी है , इसलिए ज़ाहिर है यह भूमध्य-वृत्त भी तिरछा है। यानी पृथ्वी के क्रान्ति-वृत्त और इस भूमध्य-वृत्त के बीच लगभग साढ़े तेईस अंशों का कोण है।

पृथ्वी का यह क्रान्ति-वृत्त ही बारह राशियों में प्राचीन ज्योतिषियों-खगोलज्ञों ने बाँटा। उन्हें बारह नाम दिये। तब उन्हें यह नहीं पता था कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है , सो उन्होंने उलटा कहा। बात यह निकली कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता है।
समझने के लिए आप बारह राशियों को बारह घर मान लीजिए सूर्य के। तो जब सूर्य ने धनु का अपना मकान छोड़ा और मकर के मकान में गृह-प्रवेश किया , तो उसे हमारे पुरखों ने मकर-संक्रान्ति कहा। यानी सूर्य धनु को त्याग कर मकर में आ गये। पश्चिम के ज्योतिषियों ने अपने कैलेंडर के अनुसार धनु से मकर में प्रवेश को विंटर-सॉल्स्टिस का नाम दिया। आज-कल विंटर-सॉल्स्टिस 21 दिसम्बर ( लगभग ) को पड़ता है।

विंटर-सॉल्स्टिस दरअसल वह दिन है जब सूर्य सचमुच मकर में आज भी प्रवेश करता है। अब मामला यह है कि हज़ारों साल पहले पश्चिम का विंटर-सॉल्स्टिस और हमारी मकर-संक्रान्ति कभी एक ही दिन पड़ते थे। फिर लेकिन पृथ्वी की एक ख़ास अक्षीय गति के कारण विंटर सोल्स्टिस धीरे-धीरे दिसम्बर में खिसकने लगा।

तो पाश्चात्य ज्योतिषियों ने गणितीय खिसकान को महत्त्व दिया और वे अपना विंटर-सॉल्स्टिस पीछे करते गये। हम वहीं डटे रहे, जहाँ पहले थे।

(उनका विंटर-सॉल्स्टिस क्यों पीछे हटा और हमारा क्यों नहीं , इसे जानबूझ कर नहीं समझा रहा हूँ। लेकिन सत्य यही है कि खगोल में कोई भी तिथि-ग्रह-नक्षत्र स्थिर नहीं है , सब परिवर्तनशील है।)

तो सूर्य तो इक्कीस दिसम्बर को ही मकर में आ गये , हम अपने अनुसार उनको आया आज मानते हैं। और गणित द्वारा ऐसा हर महीने करते हैं। पश्चिम के ज्योतिषियों से तेईस-चौबीस दिन बाद हमारे ज्योतिष में सूर्य अपनी राशि बदलता है।

अब प्रश्न उठता है कि पश्चिम वाला सूर्य-प्रवेश माना जाए या हमारा वाला ?

तो उत्तर यह कि प्रवेश तो कोई कहीं नहीं कर रहा। केवल प्रवेश करता दिख रहा है।

फिर प्रश्न है कि इस दिखने को प्राचीन काल में इतनी मान्यता क्यों मिली ?

तो उत्तर है कि पहले सूरज के मकर-प्रवेश पर शीतऋतु घटने लगती थी। अब कब क्या होगा , कोई नहीं जानता। पहले सूरज

हमारा मौसम तय करता था , अब उसके साथ हमारी गाड़ियाँ-फैक्ट्रियाँ भी ऋतुएँ तय कर रही हैं। तो ऐसा भी हो रहा है कि दिसम्बर में पंखे चल रहे हैं और मार्च में हिमपात हो रहा है।

तो प्रदूषण करते धरती के मानव चाहे कोई संक्रान्ति कभी मनाएँ , उसका महत्त्व नित्य घटता जाएगा। सूर्य के आधार पर ऋतुएँ तभी घटेंगी , जब सूर्य के साथ हम उठेंगे , उसी के साथ सोएँगे। सूर्य के अलावा अन्य किसी को पर्यावरण-निर्धारण करने का मौक़ा नहीं देंगे। लेकिन हम हैं कि हर संक्रान्ति को केवल सतही परम्परा में बदलते जा रहे हैं।

अब अगर कल पारा गिर जाए या शीत-लहर चल पड़े तो मकर के सूर्य को न कोसिएगा। आपने-हमने अपनी हर ऋतु की और उसके हर प्राकृतिक नियन्ता-निर्धारक की ऐसी-तैसी कर दी है।


Dr Skand Shukla पेशे से Rheumatologist and Clinical Immunologist हैं। वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं और अब तक दो उपन्‍यास लिख चुके हैं

 स्‍कन्‍द शुक्‍ल

लेखक पेशे से Rheumatologist and Clinical Immunologist हैं।
वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं और अब तक दो उपन्‍यास लिख चुके हैं