हिंदी : ऑनलाइन बनाम ऑफलाइन

Hindi online vs offline

हिंदी : ऑनलाइन बनाम ऑफलाइन Hindi : Online Vs Offline

मेरी तरह ही कुछ और लोगों को भी बुरा लग रहा होगा कि इंटरनेट पर पिछले आठ दस साल से लगातार हिंदी पेलते रहते और लाखों की संख्‍या में पाठकों को जुटा लेने के बावजूद हिंदी ब्‍लॉगरों को न तो ऑफलाइन समारोहों में शामिल होने के काबिल समझा जा रहा है न इन समारोहों से सीख लेने के…

इंटरनेट पर सक्रिय अधिकांश हिंदी वाले जानते हैं कि हिंदी पट्टी के 90 प्रतिशत लेखकों ने अर्से तक नौकरशाहों और राजनेताओं की कदमबोसी कर इस प्रकार के आयोजनों में अपनी महत्‍ता स्‍थापित करने का उपक्रम किया है।

दूसरी तरफ बिना सरकारी प्रयासों के अंतरजाल पर हिंदी का परचम लहराने वाले अधिकांश लेखक या तो स्‍वांत: सुखाय लिखते हैं या जो सही है वही लिखते हैं। इस मुक्‍त माध्‍यम ने न केवल पुराने स्‍थापित लेखकों को परेशान किया है, बल्कि नेताओं और नौकरशाहों में भी पर्याप्‍त भय पैदा किया है।

वास्‍तव में देखा जाए तो मैं ऐसे आयोजनों को हिंदी के ऑफलाइन संस्‍करण के अवसान के रूप में देखता हूं। हिंदी के कुछ अच्‍छे लेखकों ने समय रहते ऑफलाइन से ऑनलाइन संक्रमण कर लिया, लेकिन हिंदी पट्टी का एक बड़ा वर्ग अब भी टाइपिंग और ऑनलाइन टूल नहीं सीख पाने की मजबूरी के चलते हाथ से लिखने और किताबें छपवाकर लाइब्रेरियों में पहुंचाने की जुगत में ही लगा है।

देखा जाए तो हिंदी सम्‍मेलन के नाम पर सरकार जितना चाहे उतना पैसा बहाकर खुद की वाहवाही लूट ले, लेकिन हकीकत यह है कि पेड़ काट काटकर तैयार हुए कागज पर जो कचरा पसर रहा है, उसके के लिए न नई पीढ़ी के लेखकों में सम्‍मान है न पाठकों के। हिंदी विकिपीडिया से लेकर हर विषय के हिंदी ब्‍लॉगों के दीवानों की संख्‍या लगातार बढ़ रही है।

हालांकि सोशल मीडिया पर मौजूद अधिकांश लोगों को पता ही नहीं है कि यहां लिखी जा रही हिंदी के पीछे कितना और क्‍या संघर्ष हुआ है, उन्‍हें बस हिंदी का टाइपिंग टूल मिला और रोमन अक्षरों का सहारा लेते हुए हिंदी पेलने लगे, लेकिन ब्‍लॉग के जमाने में ऐसा नहीं था। अनजान रस्‍ते पर लेखक एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए आगे बढ़ रहे थे और जमकर लिख रहे थे।

शुरूआती दौर के अनूप शुक्‍ल, उड़नतश्‍तरी, गिरिजेश राव, ईस्‍वामी, ज्ञानदत्‍त पाण्‍डेय, आलोक पुराणिक जैसे (और सैकड़ों) लेखकों ने अपने धुन और लय में जो लिखा उसके सामने ऑफलाइन के 90 प्रतिशत लेखक बौने नजर आते हैं। आज सोशल मीडिया में भी असित कुमार मिश्र, अजित सिंह, सुधीर व्‍यास, जगदीश्‍वर चतुर्वेदी, आनन्‍द कुमार जैसे लोग जब लिखते हैं तो उन्‍हें ऑफलाइन लेखकों के कुल पाठकों से अधिक पाठक प्रति पोस्‍ट मिल जाते हैं।

आखिर में मैं सोचता हूं कि लेखन का मौलिक स्‍वरूप ऑनलाइन ही संभव है। अगर आप ऑफलाइन लिखते हैं तो आपको लाइब्रेरियों में किताबें पहुंचाने के लिए पता नहीं कितने नौकरशाहों की कदमबोसी करनी पड़ेगी, कितने नेताओं को विमोचन के लिए मनाना पड़ेगा, लेकिन ऑनलाइन माध्‍यम न केवल बेबाक होता जा रहा है, बल्कि स्‍वांत: सुखाय लेखन से अपने पाठकों की बड़ी फौज तैयार कर रहा है।

अधिकांश ऑफलाइन सम्‍मेलन बेमानी होते जा रहे हैं, इंतजार कीजिए जल्‍द ही बचे खुचों पर भी ताले लग जाएंगे…

सुमंत भट्टाचार्य के शब्‍दों में कहूं तो “भारत बदल रहा है”


Illustration : Pawel Kuczynski