राजस्थान एक बार पहले भावनाओं की आंधी के बीच यूफोरिया (आत्ममुग्धता) से पीडि़त भाजपा (bjp) को जमीन सूंघते देख चुका है। मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का विरोध इस कारण नहीं है कि उन्होंने काम नहीं किया, अधिकांशत केन्द्र सरकार की योजनाओं को पूरी शिद्दत से अमली जामा पहनाने का प्रयास किया गया। ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति की अधिक जानकारी नहीं है, लेकिन शहरी क्षेत्रों में व्यवस्थाएं कमोबेश अच्छी ही रही हैं। सड़क, बिजली, पानी जैसी आधारभूत चीजें पहले से कुछ अधिक दुरुस्त ही हुई हैं। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी भले ही इन आधारभूत चीजों पर काम नहीं किया, लेकिन केन्द्र सरकार की योजनाओं को जनता तक पहुंचाने और नि:शुल्क दवा, नि:शुल्क स्वास्थ्य सेवाओं पर बहुत ही शानदार काम किया था। आज भारत आयुष्मान योजना जो शुरू हुई है, उसका छोटा और प्रभावी रूप हम राजस्थान के लोग अर्से से देख रहे हैं और लाभ उठा रहे हैं। गहलोत का विरोध नहीं था, लेकिन गहलोत सरकार के भ्रष्ट मंत्रियों और बड़बोले कांग्रेसियों को लेकर जनता घृणा की हद तक विरक्त हो गई थी, इसका परिणाम यशस्वी मुख्यमंत्री गहलोत को भुगतना पड़ा।
अगर काम करने के लिहाज से देखा जाए तो गहलोत को हारना ही नहीं चाहिए था, अब वसुंधरा ने भी काम तो किया है, लेकिन जनता और अपनी ही पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ जिस प्रकार का राजशाही अंदाज जीतने के बाद वसुंधरा राजे पेश करती है, राजस्थान के लोगों को उसकी आदत नहीं है। यहां जनप्रतिनिधि का अर्थ अधिकांशत: स्थानीय बाहुबली नहीं, बल्कि कमर तक झुका हुआ नेताजी होता है, वहां पर वसुंधरा राजे की अकड़ जनता की आंख की किरकिरी बनी हुई है।
इसी कारण यह नारा बार बार उभरता है “मोदी तुझसे वैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं…”
वसुंधरा राजे ने चार साल तक तृतीय श्रेणी शिक्षकों के तबादले भी नहीं किए और जब किए तो इस प्रकार किए कि जिन्हें लाभ मिला वे भी कुछ खास पक्ष में नहीं आए हैं और जिनका काम नहीं हुआ, वे तो स्पष्टत: विरोध में हैं ही। पहले कभी भाजपा सरकार जनता में फैले विरोधी पार्टी के समर्थकों के साथ बदले की कार्रवाई नहीं करती थी, इन सालों में यह नई परिपाटी भी शुरू हुई है, जो कि पहले कांग्रेस की कमजोर कड़ी हुआ करता था।
इसके साथ ही वसुंधरा सरकार पर पीछे के दरवाजे से लोगों के काम होने की सूचनाएं और इसके लिए पैसे का खुला खेल खेले जाने की खबरें सुनी जाती रही हैं, इसके पीछे हकीकत क्या है, मैं नहीं जानता, लेकिन तबादलों पर रोक के बावजूद राजकीय आदेशों से तबादलों की लिस्ट जारी होते रहना भी लोगों को अंदर का अंदर सुलगाता रहा है।
एक तरफ विकास है, जो गहलोत के समय भी चल रहा था और वसुंधरा के दौरान भी चल रहा है, दूसरी तरफ इन पार्टियों का यूफोरिया है, जो कभी कांग्रेस को जमीन सुंघाता है तो कभी भाजपा को… इनके बीच बसपा और नई पार्टी अभिनव राजस्थान मौके की तलाश कर रहे हैं।
बसपा अपना बेस लगातार बढ़ा रही है, लेकिन अभी शासन में सीधे हिस्सेदारी दूर की कौड़ी लगती है, राजस्थान में अब तक दो पार्टी सरकार ही रही है, इस बार बसपा घुसपैठ कर ले तो कोई बड़ी बात भी नहीं है।
दूसरी तरफ जाटों और भाजपा-कांग्रेस से विरक्त हुए राष्ट्रवादियों को अभिनव राजस्थान के रूप में एक विकल्प दिखाई दे रहा है, जो नोटा से कुछ बेहतर है और उत्तरी राजस्थान में तेजी से अपने पैर पसार रहा है। चूंकि मुख्य धारा की मीडिया को विश्वास में लेने के बजाय गली मोहल्लों में हथाई के जरिए अभिनव राजस्थान तेजी से काम कर रही है, ऐसे में इसका असर अभी बाहर दिखाई नहीं दे रहा है, चुनाव नजदीक आने पर इसका ब्लास्ट दिख सकता है।
अगर राजस्थान में दो पार्टी सरकार के बीच कई पार्टियां और नोटा आते हैं तो दोनों प्रमुख पार्टियां मुश्किल में आएंगी। अभी सटोरियों का आकलन है कि कांग्रेस को 135 सीटें मिलेंगी, लेकिन यह बहुत जल्दी है। सटोरियों का अनुमान अभी बदलता रहेगा, पहले कांग्रेस के 150 सीट के भाव से थे जो घटकर 135 पर आए हैं और मोदीजी की रैलियों के बाद यह अंतर और घट सकता है। आम अनुमान यह है कि कांग्रेस और भाजपा की कांटे की टक्कर रहेगी और पांच-सात सीटों के अंतर से ही सरकार बनेगी। ऐसे में बसपा या अभिनव राजस्थान इन पांच-सात सीटों पर काबिज हो जाते हैं तो सत्ता में सीधे हिस्सेदारी मिलने की स्थिति भी बन सकती है, जो राजस्थान के राजनीतिक भविष्य के लिए बहुत अनुकूल स्थिति नहीं कही जा सकती।