हमें जीना है और तुक्के मारने हैं : डार्विन और विकासवाद – 14

Darwin and His Theory of Evolution and conflicts

हम मनुष्य हैं और गोरा बनना हमारे लिए उद्योग का रूप ले चुका है। हमें त्वचा का रंग हल्का करना है बिना इस बात का ध्यान रखे कि कुदरत ने अगर किसी को साँवला बनाया तो क्यों बनाया।

रंगों की दुनिया में घुस आये बाज़ारवाद से डेढ़ सौ वर्ष पीछे इंग्लैण्ड चला जाए , जहाँ औद्योगिक क्रान्ति का मशीनी शोर गुंजायमान् है। द्वीप के पेड़ चिमनियों से निकलने वाले धुएँ से काले हो चुके हैं ; कालिख उनके तनों पर लेप बनकर चिपक गयी है। ऐसे में एक नन्हा पतंगा है , उसके लिए यह बदलाव जीवन-मौत का सवाल बनकर उभरा है।

पेपर्ड मॉथ हल्का भूरा होता था , आसानी से पेड़ की छाल पर चिपक कर रहा करता था। उसका रंग पेड़ के रंग में ऐसा मिलता था कि वह नज़र नहीं आता था। नतीजन उसके प्राण बचे रहंते थे। लेकिन धुएँ ने पेड़ों की छालों को काला करके उसकी उपस्थिति को सभी के सामने उजागर कर दिया। नतीजन वह पतंगा आसानी से पक्षियों का निवाला बनने लगा।

कुदरत ने लेकिन अँगड़ाई ली और उस बेचारे को अपनी जान और स्पीशीज़ बचाने का एक अवसर दिया। पतंगे के पंखों के रंग में बदलाव वाले जीन वातावरण की माँग के अनुसार प्रकट हुए और उनके कुछ भाई-बन्धु काले होने लगे। ज़ाहिर है ये आसानी से पेड़ों के तनों पर छिप जाते थे और इसलिए इन्हें चिड़ियाँ खा नहीं पाती थीं। नतीजन इनकी वंशवृद्धि हलके रंग वाले रिश्तेदारों से बेहतर होने लगी। यह क्रम बीसवीं सदी के आठवें दशक के लगभग तक चला।

फिर मनुष्य ने अपनी भूल सुधारी और इंग्लैण्ड में प्रदूषण कम किया गया। पेड़ों पर से धुआँ कम होने लगा , उनके तने फिर भूरे हो गये। अब वे ही काले पतंगे जो मज़े से छिपकर गुज़र-बसर कर रहे थे , उजागर होने लगे। उनका गुण उनका दोष बन गया। बेचारों की संख्या में गिरावट होने लगी।

कुदरत ने मगर उन्हें दोबारा मौक़ा दिया। हल्का रंग देने वाले जीन फिर से सक्रिय हुए और पुनः हल्के पतंगों की संख्या में वृद्धि होने लगी। यह बदलते माहौल के बीच स्वयं को ढालकर जान बचाने का नन्हें कीड़े का सफल संघर्ष था।

आज भी ढेरों लोग ऐसे हैं , जो जीव-विकास को नहीं मानते और अपने दिमाग़ बन्द किये बैठे हैं। उनके लिए यह पेपर्ड मॉथ की कहानी आँखें खोल सकती है।

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( चित्र इंटरनेट से साभार। हल्के-गहरे रंग के पतंगे और सालों के साथ घटती गहरे रंग के मॉथों की संख्या। )


Dr Skand Shukla पेशे से Rheumatologist and Clinical Immunologist हैं। वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं और अब तक दो उपन्‍यास लिख चुके हैं

स्‍कन्‍द शुक्‍ल

लेखक पेशे से Rheumatologist and Clinical Immunologist हैं।
वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं और अब तक दो उपन्‍यास लिख चुके हैं