“अरे आप जिम कॉर्बेट से आ रहे हैं ! शेर दिखा ?”
“शेर नहीं , वहाँ बाघ मिलते हैं। शेर देखने के लिए गिरवन जाइए।”
गत दिनों एक सज्जन ने डार्विन और विकासवाद को अस्वीकार करते हुए कहा कि मनुष्य बन्दरों से नहीं निकले और यह सिद्धान्त असत्य है। ऐसा सोचने और कहने वाले न तो वे पहले हैं और न अकेले। इस तरह की बातें डार्विन के समय से आज तक लोग उठाते रहे हैं।
सन्देहपूर्ण प्रश्नों के लिए विज्ञान बाँहें खोले खड़ा है। लेकिन सन्देहपूर्ण प्रश्नों से पहले उनका धरातल तैयार कर लेना चाहिए। और फिर प्रश्न की भाषा अलग होती है , उसकी शैली भिन्न होती है। प्रश्न घोषणा नहीं होता। उसमें एक संकोच-सन्देह का लचीलापन होता है। घोषणाएँ जो वायवीय होती हैं , एक विचित्र कड़ापन लिए प्रस्तुत होती हैं। उन्हें यह भ्रम होता है कि कठोरता से दृढ़ता आती है , दरअसल कठोरता भंगुरता से अधिक सम्बद्ध है। यह भी विचित्र है : विज्ञान लचीला है लेकिन धरातली है। परम्परा की कई बातें वायवीयता लिए हैं , लेकिन अन्तिम सत्य की शैली में कही गयी हैं।
ख़ैर, डार्विन पर आइए। उन्होंने डेढ़ सौ से भी अधिक साल पहले जो बताया , वह लोगों को कई कारणों से असत्य लगता है। ऐसे में क्या ही अच्छा होगा कि हम एक-एक करके उन सभी आभासी असत्यों की पड़ताल करते चलें ताकि हमने विकासवाद बेहतर समझ में आ सके।
पहली और सबसे सीधी समस्या भाषा की है। हिन्दी में विज्ञान पढ़ने-पढ़ाने का मैं हिमायती हूँ , लेकिन हिन्दी के पास शब्द-भाण्डार की सीमा है। वह विज्ञान के ढेरों शब्द अगर अँगरेज़ी से नहीं लेगी तो वह कह न पाएगी , जो कहना चाहती है। शब्द वह जाति गढ़ती है , जो विचार-वस्तु को खोजती-ढूँढ़ती है। शब्द लेबल है , जो लेबल लगाएगा वह पहले लेबेल्ड सामान को पा चुका होगा।
अब यहाँ से यह बात पकड़िए कि ‘मनुष्य बन्दर से नहीं निकले’। यक़ीनन मनुष्य ‘बन्दर’ से नहीं ‘निकले’। ऐसा कहने वाले न ‘निकलना’ ठीक से जानते हैं और बन्दर के भीतर उन्होंने ढेरों जानवरों को संग नत्थी कर दिया है।
गोरिल्ला बन्दर नहीं है। चिम्पैंज़ी बन्दर नहीं है। औरेंग्युटैन बन्दर नहीं है। बोनोबो बन्दर नहीं है। लीमर बन्दर नहीं है। टार्सिएर बन्दर नहीं है। बन्दर शब्द ऐसा हमारे ज़ेहन में रच-बस गया है कि हम हर मिलते-जुलते जीव को बन्दर कह बैठते हैं। घरों में उपद्रव मचाता लाल मुँह-नितम्ब वाला मैकाक भी बन्दर है , काले मुँह वाला मन्दिरों में प्रसाद खाता लंगूर भी बन्दर।
ऐसा इसलिए है कि हमारे शब्द पुराने ज्ञान-भाण्डार से चले आ रहे हैं : कपि , कीस , शाखामृग , वानर और बन्दर में प्राइमेट शब्द का स्थान नहीं है। इन सभी शब्दों में पेड़ों पर झूलने के अतिरिक्त कोई वैज्ञानिक संस्कार भीतर नहीं समा सका है। ‘साखामृग के बड़ि मनुसाई , साखा तें साखा पर जाई’ या ‘ कपि चंचल सबही बिधि हीना’ — इतनी ही हमारी इन जीवों के प्रति आधी-अधूरी चेतना है।
प्राइमेट अन्य जीवों की तुलना में अपने अधिक विकसित मस्तिष्क से पहचाने जाते हैं। उन्होंने अपनी दृष्टि में गहराई विकसित की है , घ्राण पर निर्भरता को कम किया है। वे सूँघकर नहीं देखकर जीवन के फ़ैसले करते हैं। वे धीमे विकसित होते हैं , उनके नर-मादा अन्य जीवों की तुलना में अधिक अलग-अलग दिखायी देते हैं यानी उनमें यौन-विभेद है। वे पेड़ों पर रहते हैं लेकिन उनमें से कई भूमि पर भी निवास करते हैं। और एक ख़ास बात कि उनका अँगूठा अन्य उँगलियों के विरोध में दूसरी दिशा में लगा होता है ताकि वस्तुएँ बेहतर पकड़ी जा सकें।
यह पोस्ट सौ योजन का सागर हो जाएगी , इसलिए अभी इतना ही। और सन्देहों की सुरसा मुँह बाती उसे पूरा घेर लेगी। अभी कपि-सुन्दरकाण्ड को यहीं रोकिए। बस इतना अवश्य कहूँगा कि जिस देश में लोग जिम कॉर्बेट में बाघ की जगह शेर देखने जाते हों , उस देश में बन्दर को हटा कर ‘प्राइमेट’ की स्थापना निश्चित ही दुरूह कर्म है।
मनुष्य का पूर्वज बन्दर नहीं , मनुष्य का पूर्वज जो था वह बन्दर का भी पूर्वज था। वह कुछ और ही था — जो हमारी-आपकी चेतना में नहीं पैठा है , क्योंकि हमने उसे नहीं देखा है। आज से लाखों साल बाद मनुष्यों की कुछ शाखाएँ ( अगर तब तक मनुष्य बचा रहा तो ! ) जो बन जाएँगी , क्या वे मनुष्य ही होंगे या कुछ और ? लाखों सालों की मद्धिम घटनाओं को आप साठ-सत्तर सालों के अपने जीवन में कैसे समझ सकते हैं भाई ?
विज्ञान तथ्य प्रस्तुत करता है , फिर उनके लिए निश्चित शब्द गढ़ता है। अगर आप किसी वैज्ञानिक बात के लिए परम्परागत शब्द अपनी भाषा से उठाते हैं , तो यह सिद्ध होता है कि आपने विज्ञान ठीक से आत्मसात् नहीं किया है और आपकी भाषा-सरिता आपके पुराने परम्परागत स्रोत से आ रही है।
विज्ञान क्रान्ति करता है , वह लाँघता है। वह नया जानता है , नये शब्द बनाता है। सरलीकरण की अपनी वायवीय हानियाँ हैं , जटिलताओं में एक विशिष्ट स्थिरताभरा लचीलापन।
स्कन्द शुक्ल
लेखक पेशे से Rheumatologist and Clinical Immunologist हैं।
वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं और अब तक दो उपन्यास लिख चुके हैं