हमें जीना है और तुक्के मारने हैं : डार्विन और विकासवाद – 9

Darwin and His Theory of Evolution and conflicts 13

गरीब मनुष्य है , जैसे अमीर मनुष्य है। ग़रीबी केवल मनुष्यों में है , ऐसा नहीं है। लेकिन मनुष्य की ग़रीबी अधिक जटिल है। उसे कुदरत ने जितना बनाया है , उससे अधिक मनुष्य ने स्वयं बढ़ाया-चढ़ाया है। (अब कोई कह सकता है कि क्या मनुष्य कुदरत का अंग नहीं!)

ग़रीबी-अमीरी के भेद को जो मानते हैं और मन-ही-मन इसे प्राकृतिक व्यवस्था का क्रूर किन्तु सुचारु संचार कहते हैं , उनमें से कई धार्मिक आस्थावान् लोग हैं। (ध्यान रहे सभी नहीं हैं ! कई धार्मिक भी प्रभु-कृत विभेद को स्वीकार करते हुए सामाजिक समरसता में लगे रहते हैं और कई नास्तिक भी इतने स्वार्थी होते हैं कि उन्हें अपने सिवा किसी का हित अदृश्य जान पड़ता है।)

धर्म के मूल में पाप-पुण्य का भाव है। यह कर्मफल की धारणा है। कर्मानुसार आप इहलोक-परलोक सब पाते हैं। आप अपना ईमान निभाइए, दुखिया अपने कर्म भोग रहा है। आपको अपना किया मिलेगा, दुखिया अपना किया पा रहा है।

लेकिन फिर ध्यान से इसी विभेद-वैषम्य में धीमे-धीमे श्रेष्ठता-बोध प्रवेश कर जाता है। मैंने उस व्यक्ति का बड़ा उपकार किया , वह बड़े कष्ट में था। मैंने उसे उबार लिया, मैं उसे विपत्ति में निकाल लाया। फिर यही श्रेष्ठता-बोध बढ़ते-बढ़ते व्यक्ति में ऐसा सौभाग्य-संचार कर देता है कि उसे लगता है कि उसका जन्म किसी ख़ास उद्देश्य से , किसी ख़ास परियोजना के अन्तर्गत हुआ है। वह दैवीय योजना का अंग है , वह ईश्वरीय अनुकम्पा से अभिसिंचित है।

ईश्वर और विज्ञान, दोनों कभी अपना पक्ष स्वयं रखने नहीं आते , न आएँगे। लेकिन दोनों के नाम पर संसार में शोषण जारी रहेगा जब तक, अधिसंख्य स्वयं दोनों को पढ़ना-समझना नहीं शुरू करेंगे। इतिहास गवाह है कि मार्टिन लूथर नामक वह पादरी और गूटेनबर्ग का वह प्रिंटिंग-प्रेस अगर न होते , तो बाइबल आज भी लैटिन में होती और बहुसंख्य से दूर कुछ ही के हाथ में होती। जब भगवान् को चन्द लोग पढ़ते और समझते हैं , तब वे उसे कैसे भी समझाने लगते हैं। इस बात को आप केवल ईसाइयत के परिपेक्ष्य में नहीं , संसार के हर धर्म के सम्बन्ध में सत्य जानें। ज्ञान की विशिष्टता उसे सीमित करती है और उससे शोषण का आविर्भाव होता है। यही कारण है कि अगर विज्ञान की पढ़ाई केवल साइंस-साइड के बच्चों के लिए छोड़ी जाती रही , तो एक नया तबका शोषण का खड़ा होने लगेगा ( बल्कि हो चुका है)। भारत-जैसे देशों में जहाँ धर्म का प्रभाव अभी भी तेज़ है, यह नया विज्ञान जानने वाला तबका आपसे यह कहेगा कि साइंस और रिलीजन एक ही बात कहते हैं। दोनों को कहने का बस ढंग अलग-अलग है , रास्ते भिन्न हैं आप पहुँचेंगे वहीं पर। यह तबका विज्ञान को धर्म की तरह समझ कर पढ़ने और पढ़ाने का हिमायती है।

विज्ञान को कला की तरह पढ़ना और उससे दर्शन गढ़ना , दोनों बुरी बातें हैं। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि चाहे इन दोनों कामों के रस जितना मिले , विज्ञान की हानि होती है। लोग कही बात के कविता की व्याख्या की तरह पच्चीसों अर्थ निकालने लगते हैं। दर्शन को पकड़ कर धर्म के अन्दाज़ में अलग-अलग दिशाओं में दौड़ लगाने लगते हैं। इसका अर्थ यह नहीं , यह है ; इसमें ये अमुक बात नहीं , अमुक बात कहना चाहते हैं।

इससे पहले कोई इस बात को मुझपर इंगित करे , मैं स्वयं कर लेता हूँ। विज्ञान पढ़ते समय कला-दर्शन-इतिहास-भूगोल-राजनीति-समाज में टहलने चले जाना मेरी आदत है। यह मुझ तक रहे तो कोई बात नहीं। लेकिन फिर जब मैं विज्ञान की बातें कहीं लिखता हूँ तो कई बार कविताई का अंदाज़ ठेठ विज्ञान की हानि करता है। दर्शन की बहक लोगों को मूल वैज्ञानिक कथ्य से दूर ले जाती है। मैं जानता हूँ कि मुझे कहाँ-कितना-कब भटकना है , लेकिन कई लोग जो विज्ञान के छात्र नहीं रहे हैं , वे नहीं जान पाते। उन्हें रस मिलता है और मैं उन्हें खींच कर मुख्य बात से दूर ले आता हूँ।

ऐसा नहीं है कि वैज्ञानिकों या विज्ञानजीवियों को कविताएँ नहीं लिखनी चाहिए। ऐसा कदापि ज़रूरी नहीं कि वे कहानियों-उपन्यासों-ललित निबन्धों से दूर रहें। केवल अभिधा में अपनी बात बाँच दें और चल दें। यक़ीन मानिए उन्हें पाठक नहीं मिलेंगे। लोग उनको नहीं सुनेंगे। लोगों को रस चाहिए। रस साहित्यकार का इलाक़ा है। उन्हें गन्ने नहीं चूसने , उन्हें जूस पीना है। लेकिन फिर रस-उत्पादक को यह जानना ज़रूरी है कि जूस गन्ना नहीं है , वह गन्ने से कुछ कम है।

फिर उसे यह बात जूसप्रेमी सज्जन को भी बतानी है कि, ‘प्रियवर , आप अभी खाँटा विज्ञान नहीं पढ़ रहे। आपको उसका आसव चखाया जा रहा है। मूल रूप में वह बहुत कड़ा और कष्टसाध्य विषय है। लेकिन आपको एक दिन वहाँ जाना है। खेत से गन्ना उखाड़ना है और उसमें दाँत गड़ाने हैं। रस के साथ और बहुत कुछ स्वयं तलाशना है।’

विज्ञान को कला-दर्शन की तरह प्रस्तुत करने वालों पर वैज्ञानिकों से भी बड़ी ज़िम्मेदारी है। ये लोग समाज की धारा मोड़ सकते हैं , उसके विचार गढ़ सकते हैं , ध्वस्त कर सकते हैं। इनमें नये धर्मगुरु बनने का माद्दा है। लेकिन इन्हें हर मोड़ पर जनता से सच कहते चलना चाहिए कि तुम अभी विषय-प्रवेश कर रहे हो। इसलिए ढेरों बातों के अर्थ उतने ही निकालो , जितने बताये जाएँ। कुछ भी अतिरिक्त सोखने से पहले किसी से पूछ लो। अन्यथा कई बार ग़लत अर्थ ले जाओगे। विज्ञान आपसे अभिधा में कुछ कहेगा , आप लक्षणा-व्यंजना में उसे लेकर कुछ और बना लेंगे । और यक़ीन मानना , इस काम से भी कई बार शोषण के बीज पड़ जाएँगे।

आप कहेंगे कि कला और दर्शन शोषण कैसे कर सकते हैं ! मैं कहता हूँ कि जो भी धुँधलेपन का उत्साह मनाए , उससे सावधान रहिए। कवि किसी भी मनोभाव को भाषा के जादू से सही ठहरा सकता है। दार्शनिक किसी भी बात को ऐसा घुमाकर पटकेगा कि उस परिपेक्ष्य में वह उचित जान पड़ने लगेगी। लेकिन विज्ञान में सपाटपना है। उसमें आप सच कहकर किसी को कुछ और अर्थ नहीं दे सकते। जो है , सो है। वही है , वही समझना होगा।

डार्विन को मैं प्रभाव के आधार पर अब तक का महानतम वैज्ञानिक मानता हूँ। लेकिन यह भी सच है कि डार्विन के सिद्धान्त से अधिक अनर्थ किसी सिद्धान्त ने समाज का नहीं किया। परमाणु-बम के उत्पादन के पीछे खड़े आइंस्टाइन ने भी इतनी हानि नहीं पहुँचायी। उन्होंने तो बम-भर के निर्माण में भूमिका निभायी , डार्विन के सिद्धान्त को खींच कर लोगों ने युद्ध-तो-युद्ध , शोषण-मात्र को उचित और प्राकृतिक सिद्ध कर दिया।

जो प्राकृतिक है, वह उचित है। जो उचित है, वह प्रकृति-सम्मत। डार्विन ने पहले प्रकृति ईश्वर की रचना थी या उसकी अनुचरी-परिचरी थी अथवा स्वयं ईश्वर थी। डार्विन ने प्रकृति को ईश्वरीयता से मुक्त कर दिया। कुदरत को उन्होंने अपने-आप में पूर्ण कहा। वह जो है , किसी के संचालन में नहीं है। वह अपने-आप प्राकृतिक चुनाव से चल रही है।

लेकिन अब कुदरत तो आकर आपका हाथ पकड़ेगी नहीं कि आप यहाँ डार्विन का गलत प्रयोग कर रहे हैं। सो लोगों ने डार्विनवाद को उठाया और उससे सामजिकी में एक विकृति गढ़ी। यह विकृति सामाजिक डार्विनवाद था। डार्विन के सिद्धान्तों का जन्तु-जगत् से उठाकर मानव-समाज पर आरोपण। और फिर यहीं से शोषण के तमाम रूपों की औचित्यपूर्ण शुरुआत हुई।

मुक्त व्यापार होने दो , सरकारें उसमें कम-से-कम हस्तक्षेप करें। बल्कि व्यक्तियों के जीवन में ही सरकारें की सक्रिय भूमिका कम-से-कम हो। जो कमज़ोर हैं , प्रकृति चाहती है कि वे मिट जाएँ। उन्हें शक्तिशाली मिटा दें। जो मज़बूत हैं , वे विजेता हैं। वे योग्य हैं , पृथ्वी पर उनका आधिपत्य होगा। ग़रीब जिस लायक है , वही उसका स्थान है। युद्ध और कुछ नहीं , प्रकृति की व्यवस्था है शक्तिशाली को उसका स्थान दिलाने के लिए। नस्लवाद-जातिवाद-लिंगवाद सब सही हैं। देखते नहीं प्रकृति में मन्त्र गूँज रहा है :

“सर्वाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट !”

सर्वाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट का यह अर्थ कदापि नहीं था , जो ऊपर के शोषण-रूपों में निकाला गया था। और-तो-और , यह उक्ति स्वयं डार्विन की थी भी नहीं। इसे तो उनके बाद हर्बर्ट स्पेंसर ने कहा था , जिससे पूरी दुनिया में पूँजीवाद और फिर फ़ासीवाद को बड़ी शक्ति मिली। धर्म के नाम पर शोषण बहुत हुआ , अब विज्ञान के नाम पर शोषण करेंगे।

बीमारी ने चालाकी से अपना चोला बदल लिया था।


Dr Skand Shukla

स्‍कन्‍द शुक्‍ल

लेखक पेशे से Rheumatologist and Clinical Immunologist हैं।
वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं और अब तक दो उपन्‍यास लिख चुके हैं