चूँ-चूँ करती आये चिड़िया!
भोजन-सी चोंच उगाये चिड़िया!
उगने से , बेहतर भोजन पाए चिड़िया!
ख़ूब जिए , प्रजनन कर जाए चिड़िया!
अगली पीढ़ी में पहुँचाए चिड़िया…
गैलापैगोस द्वीप-समूह। समुद्र के बीच स्थित रहस्यमय भूमि-खण्ड-शृंखला जहाँ से डार्विन गुज़रे और उन्होंने वह पाया जो विकासवाद को समझने में मददगार बना। मुख्य महाद्वीपों से कटे इन स्थानों में कुदरत की अपनी प्रयोगशालाएँ चल रही थीं। ज़रूरत थी तो केवल पारखी नज़रों की। डार्विन ने बस उस ज़रूरत को पूरा कर दिया।
डार्विन और गौरिया-सी दिखने वाली फिंच चिड़ियों की कहानी 1830 के दशक में शुरू हुई थी। उनका जहाज़ एचएमएस बीगल वहाँ से गुज़रा और उन्होंने इन नन्हें परिन्दों की चोंचों में तरह-तरह की विविधताएँ देखीं।अलग-अलग द्वीप की अलग-अलग चिड़िया , उसके भोजन के अनुरूप उसकी अलग-अलग चोंच। कहीं चौड़ी , कहीं पतली , कहीं लम्बी , कहीं छोटी।
चोंचों के आकार-प्रकार पर डार्विन ने एक विख्यात पक्षीविज्ञानी मित्र जॉन गूल्ड की सहायता से इन फिंच-पक्षियों को चौदह प्रकारों या स्पीशीज़ में बाँटने में क़ामयाबी पायी। कुछ को बीज तोड़कर खाने थे , कुछ को कीड़ों पर झपटना था और कुछ को रक्तपान करना था। नतीजन इन सभी फिंचों के चेहरे अलग-अलग होते चले गये।
गत कई दशकों में आनुवंशिक वैज्ञानिक पता करने में सफल रहे कि फिंचों की अलग-अलग चोंचों के आकार-आकृतियों के पीछे ज़िम्मेदार जीन कौन से हैं। डार्विन ने जो बातें चिड़ियों के चेहरे देखकर प्रतिपादित की थीं , वे ही बातें आधुनिक जेनेटिक्स ने सूक्ष्म स्तर पर सिद्ध कर दी हैं। डार्विन ने फिंचों को देखकर उनकी चोंचों के बदलावों को सबके सामने रखा था , आधुनिक विज्ञान ने ‘कैसे’ बताकर उनके कथ्य पर मुहर लगा दी है।
स्कन्द शुक्ल
लेखक पेशे से Rheumatologist and Clinical Immunologist हैं।
वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं और अब तक दो उपन्यास लिख चुके हैं