मैं इस दृश्य में नन्हें कछुओं को गुड़हल खाते देख रहा हूँ और हैरिएट को याद कर रहा हूँ। हैरिएट जो 2006 में 175 की आयु जीकर दिवंगत हुई। वह एक बूढ़ी कछुवी थी : कहते हैं वह चार्ल्स डार्विन द्वारा लायी गयी थी।
कई लोग इसे अफ़वाह मानते हैं। उन्हें लगता है कि हैरिएट को डार्विन से जोड़कर उसका प्रयोग किया जा रहा है। एक ओर एक बूढ़ी स्त्री है , दूसरी ओर जीव-विकास के बुढ़ापे के रहस्य को खोजने-खोलने वाला प्रकृतिविद्। जो इन्हें सम्बद्ध करेगा , वह क्यों न मशहूर होगा !
हैरिएट स्वयं डार्विन से जुड़ी रही हो , चाहे न रही हो ; कछुए जुड़े रहे हैं। डार्विन जिस विकासवाद के लिए पूरे संसार में जाने जाते हैं , उसकी एक महत्त्वपूर्ण कड़ी कच्छप-लीला भी है। सो अब बात कछुओं की।
दक्षिण अमेरिका से कुछ दूरी पर गैलापैगोस द्वीप-समूह है जो कि ज्वालामुखीय चट्टानों से निर्मित है। इन द्वीपों पर यात्रा करते समय चार्ल्स डार्विन ने वहाँ के कछुओं के बारे में कुछ अद्भुत बातें आत्मसात् कीं। उन्होंने पाया कि जिन द्वीपों पर घास और वनस्पतियाँ बहुतायत में हैं , वहाँ के कछुओं के खोल गुम्बदाकार होते हैं। उन्हें खाना मिलने में कोई समस्या नहीं होती और इस आकार के खोलों में उनकी आसानी से गुज़र-बसर हो जाती है।
लेकिन गैलापैगोस के ही कुछ द्वीपों में , जहाँ ऊसर भूमि है और वनस्पति के नाम कर केवल मरुक्षेत्रीय वनस्पतियाँ कैक्टस-इत्यादि हैं , वहाँ के कछुओं के खोल आगे से थोड़े उठ गये हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि भोजन पाने के लिए उन्हें गर्दन को उचकाना पड़ता है और वह थोड़ी ऊँचाई पर उपलब्ध होता है। कई बार तो इन कछुओं की गर्दनें भी लम्बी हो गयी हैं। नतीजन डार्विन कछुओं को देखकर यह बता सकते थे कि यह कछुआ किस द्वीप का निवासी है। उसे वनस्पतियों का प्राचुर्य प्राप्त है या वह मरुद्वीप में रह रहा है।
डार्विन अपने दृष्टिकोण को इस तरह हमारे सामने रखते हैं : सामान्य गुम्बदाकार खोल वाले कछुए अण्डे देते हैं , उनसे से बच्चे निकलते हैं। वे भी सामान्य खोल वाले ही होते हैं। लेकिन फिर जिन द्वीपों में घास और पौधे घटने लगते हैं , वहाँ कछुओं को अधिक मेहनत करनी पड़ती है। आगे से खोल ऊपर को मुड़ने लगते हैं और गरदनें उचकने लगती हैं।
लैमार्क होते तो कहते कि बस ये ही गुण कछुओं से उनकी अगली पीढ़ी में गये। डार्विन लेकिन कहते हैं कि नहीं , प्रजनन का प्रयास तो सभी कछुओं ने किया। लेकिन चूँकि मरुद्वीपों में भोजन कम था , इसलिए वहाँ गुम्बदाकार खोल वाले कछुए बहुत लम्बा न जी सके और उनकी जगह मुड़े खोल वाले कछुओं ने ले ली। इस तरह से ऊसर द्वीपों में किफ़ायती भोजन के बीच लम्बी गर्दन और मुड़े खोल वाले कछुए ही रह गये।
ऐसा नहीं है विकासवाद डार्विन ने कहा और विज्ञान-जगत् ने झट से मान लिया। बाद के वैज्ञानिकों ने आनुवंशिकी , जीव-जनसंख्या-बदलाव, अणुजैविकी , जीव-व्यवहार की सैकड़ों-हज़ारों बातों में डार्विनवाद की झलक पायी।
इस बीच आप गुड़हल के फूल पर नाश्ता करते कच्छप-शिशुओं को निहारिए और आनन्द लीजिए।
स्कन्द शुक्ल
लेखक पेशे से Rheumatologist and Clinical Immunologist हैं।
वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं और अब तक दो उपन्यास लिख चुके हैं