सुमेधा को नाक में नथ पहनना पसन्द है। उसे वह दिन याद आता है जब उसकी नाक छिदवायी गयी थी। पाँच साल की थी वह। जहाँ आज सौन्दर्य अटकता है , वहाँ पहला मार्ग पीड़ा ने बनाया था।
लेकिन आज सुमेधा के मन में एक दूसरा ख़्याल आ रहा है , जब उसकी बेटी नाक में कुछ पहनने की ज़िद कर रही है। उसे ज़ेवर की इच्छा है लेकिन नाक को छिदवाने की नहीं। वह पीड़ा के बिना ही शृंगार से अलंकृत होना चाहती है। ऐसे में सुमेधा सोचती है कि क्या ही अच्छा होता कि उसकी नाक में किये गये छेद के कारण बेटी में वह अपने-आप हुआ रहता। ज़माना जेनेटिक्स की बात करता है , तो माँ द्वारा शृंगारिक पीड़ा सह लेने से पुत्री को उससे बचाया नहीं जा सकता ?
सुमेधा को अपना डॉबरमैन बुलेट याद आता है कि किस तरह ब्रीडर द्वारा उस कुत्ते के कान कुतर दिये गये थे और पूँछ काट दी गयी थी। इन क्रूर कर्मकाण्ड के पीछे श्वान-प्रजाति की उपयोगिता और सौन्दर्य की कैसी-कैसी दलीलें हैं ! क्या ऐसा नहीं हो सकता कि एक बार कुत्तों में यह क्रूरता करने के बाद उनके पिल्ले कटी पूँछ और कुतरे कान लिये पैदा हों ?
सुमेधा की इस ममता-दया के पीछे से लैमार्क झाँकते हैं। फ़्रांसीसी वैज्ञानिक जो डार्विन से पहले हुए और जिन्होंने जीव-विकास को वैज्ञानिक ढंग से समझाने का पहला विस्तृत प्रयास किया। आज हम उनके सिद्धान्त इन्हेरिटेंस ऑफ़ एक्वायर्ड कैरेक्टरस्टिक्स से बहुत आगे आ गये हैं। इस सिद्धान्त में उन्होंने यह बताने की कोशिश की कि कोई जीव अपने जीवनकाल में जिन बदलावों को ग्रहण करता है , उन्हें अपनी सन्तानों में भी पहुँचा देता है। यानी उस जीव के बच्चे उसके वे बदलाव लिये पैदा होते हैं। इसके लिए जिस उदाहरण की बहुत चर्चा होती है , वह जिराफ़ों की लम्बी गरदनों से जुड़ी है। आप हाथियों की सूँड़ों के साथ भी इसे समझ सकते हैं। अन्य भी ढेरों उदाहरण कुदरत में बिखरे पड़े हैं।
लैमार्क और डार्विन , दोनों मानते हैं कि जिराफ़ों की गरदनें पहले इतनी लम्बी न थीं। उन्हें आस-पास भोजन प्रचुरता में मिलता था और लम्बी गर्दन की कोई आवश्यकता न थी। लेकिन फिर भोजन की उपलब्धि केवल ऊँचे स्थानों पर रह गयी और जिराफ़ों को उचक-उचक कर भोजन प्राप्त करना पड़ा। नतीजन उनकी गरदनों ने वर्तमान लम्बा स्वरूप पाया। फिर जब जिराफ़ों ने प्रजनन किया तो इनके शिशु लम्बी गरदनों वाले पैदा होने लगे।
यही सिद्धान्त लैमार्क ने हाथियों के विषय में प्रस्तुत किया। आवश्यकता आविष्कार की जननी हुई और हाथियों ने आसानी से भोजन-पानी न मिलने पर सूँड़ों को लम्बा कर लिया। जिस अंग का अधिक प्रयोग करोगे , उसकी वृद्धि पाओगे। जिसका प्रयोग नहीं करोगे , वह क्षीण हो जाएगा।हम-मनुष्य अपनी एपेंडिक्स , कान की मांसपेशियों और पैरों की छोटी उँगलियों का प्रयोग न के बराबर करते हैं , हम इन्हें खोने के क्रम में हैं। एक दिन आएगा जब हमारे बच्चे इनके बिना पैदा होंगे।
हर जीव का एक पर्यावरण होता है। यह पर्यावरण उस जीव के लिए चुनौतियाँ उत्पन्न करता रहता है। नतीजन जीव के शरीर में बदलाव होते हैं। ये बदलाव होने के बाद जीव पर्यावरण के साथ बेहतर सन्तुलन बिठा पाता है। साथ ही इन बदलावों को अपनी सन्तानों में प्रजनन के समय पहुँचा देता है। यही लैमार्क का लैमार्कवाद है।
लेकिन इस सिद्धान्त में एक त्रुटि है। कोई भी जीव अपने जीवनकाल में अपनी देह में किये बदलाव को सन्तान में नहीं पहुँचा पाता। सुमेधा की नाक में छेद होने के कारण उसकी बेटी की नाक अपने आप जन्म के समय छिदी नहीं हो सकती। किसी कटी पूँछ-कुतरे कान वाले कुत्ते के पिल्ले कटी पूँछ-कुतरे कान के साथ नहीं पैदा हो सकते। पहलवान का लड़का पहलवान पैदा नहीं होता , न गायक का गायक जन्म लेता है।
डार्विन का सिद्धान्त लेकिन लैमार्क से भिन्न था। उनका कहना था कि सभी जीव एक ही पर्यावरण में एक-से नहीं होते और न वे सभी उस पर्यावरण के अनुसार अपने में बदलाव ला पाते हैं। सभी जिराफ़ या हाथी अपनी गरदनें व सूँड़ें लम्बी नहीं कर पाते ; जो कर पाते हैं वे ही जी पाते हैं। जो जीते हैं , वे ही सन्तान पैदा करते हैं और उनके बदलाव उनके बच्चों में जाते हैं।
लैमार्क का यह भी मानना था कि जीवों का विकास के योजना के अनुसार हो रहा है। यह योजना परफ़ेक्शन है। हर जीव उत्तरोत्तर जटिल होता जा रहा है , उसे अधिकाधिक पूर्ण होना है। लेकिन डार्विन का मत था कि जीवन परफ़ेक्ट या पूर्ण की दिशा में नहीं बढ़ रहा। बल्कि उसे पूर्णता या परफ़ेक्शन पता ही नहीं है। वह बस पर्यावरण के अनुसार अपने-आप को सन्तुलित बनाने का प्रयास कर रहा है।
लैमार्क के अनुसार जीव अपना विकास ‘चाहता’ है , वह अपने पर्यावरण के हिसाब से यह चाहत पैदा करता है। जबकि डार्विन के अनुसार जीव विकास-जैसा कुछ भी ‘चाहता’ नहीं है , वह केवल पर्यावरण के अनुसार अपने-आप को ढालता है। चाहने और ढालने में अन्तर आप जानते हैं न !
जीवन दिशा नहीं जानता, वह प्रतिक्रिया जानता है।
लैमार्क-डार्विन-मेंडल व अन्य कइयों पर कई-कई बातें कई-कई बार करिए , जब जानिए कि जीवन के रहस्यों में कितनी-कितनी परतें और कैसी-कैसी तहें हैं।
स्कन्द शुक्ल
लेखक पेशे से Rheumatologist and Clinical Immunologist हैं।
वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं और अब तक दो उपन्यास लिख चुके हैं