“अरे , पर डार्विन ने थ्योरी ही तो दी है न ! थ्योरी बोले तो सिद्धान्त ! सिद्धान्त तो मैं भी दे सकता हूँ और आप भी !
विज्ञान में सबसे बड़ी कुछ समस्याएँ तब शुरू होती हैं , जब उसमें इस्तेमाल होने वाले शब्दों का लोग ग़लत अर्थ लगाते हैं। ये अर्थ विज्ञान में आम जीवन से आये हैं , लेकिन वहाँ इनका अर्थ कुछ ख़ास है। और जब तक यह ख़ास अर्थ न पता हो , तब तक विज्ञान पढ़ने वाला सामान्य व्यक्ति उस शब्द को आम जीवन की तरह ही समझता है।
थ्योरी शब्द की हिन्दी सिद्धान्त मानी गयी है। आम आदमी से पूछकर देखिए कि थ्योरी क्या है। वह कहेगा जो केवल सैद्धान्तिक हो। और कुरेदिए , तो कहेगा जिसका अभी प्रायोगिक रूप न हुआ हो या न हो पाया हो। यानी प्रयोग ( प्रैक्टिकल ) जहाँ शुरू होता है , वहाँ थ्योरी का अन्त होता है। थ्योरी एक इलाक़ा है — जहाँ वह समाप्त होती है , वहीं प्रैक्टिकल यानी प्रयोग आरम्भ होता है।
इसी सोच को लेकर वह कह देता है कि डार्विन ने तो मात्र थ्योरी ही दी थी न इवॉल्यूशन की ! प्रैक्टिकल कहाँ से किया ? और कैसे करेंगे ? विकास तो लाखों सालों में होता है , तो किसी लैब में बैठकर घण्टे-भर में बता न सकेंगे। इसीलिए जो फट्टे मारने थे, मार दिये होंगे!
मुझे इस तरह की अज्ञानता-अनभिज्ञता पर न आश्चर्य होता है और न हँसी आती है। यह स्वाभाविक है। आप जब विज्ञान में प्रवेश करते हैं तो उससे पहले आपके दिमाग़ में हज़ारों ऐसे शब्द होते हैं , जिनके आपको साधारण अर्थ पता होते हैं। लेकिन इनका विज्ञान में अर्थ कुछ और होता है। पर आप नये प्रयोग के साथ पुराना अर्थ चिपका रहे होते हैं। नतीजन आप विज्ञान के उस शब्द को ग़लत पढ़ रहे होते हैं।
लगे हाथ मैं दो और शब्द संग ले लेता हूँ : हायपोथीसिस और लॉ। हायपोथीसिस को हिन्दी में परिकल्पना कहा जाता है और लॉ को नियम।
आम आदमी से आप पूछिए कि परिकल्पना , सिद्धान्त और नियम में क्या सम्बन्ध हैं , तो वह यह कहेगा कि पहले परिकल्पना करो , फिर सिद्धान्त गढ़ो और अन्त में प्रयोग से सिद्ध हो जाए तो उसे नियम बना दो। सत्य यह है कि ऐसा कहने वाला विज्ञान को तनिक भी ढंग से नहीं समझता।
परिकल्पना , सिद्धान्त और नियम , तीनों तीन मेल की एकदम जुदा चीज़ें हैं । परिकल्पना परियों की कवि-कल्पना नहीं है , कि जो चाहा कल्पित कर लिया। उसका एक ढंग होता है। परिकल्पना करने वाला व्यक्ति कुछ घटना घटते देखता है और तब एक शिक्षित अनुमान लगाता है। ध्यान रहे यह अन्दाज़ा अन्धा नहीं होता , उसमें कुछ दिशा होती है। जो होता दिखे और जिसे आप वर्तमान सिद्धान्त से समझा न पाएँ , उसे समझाने की कोशिश करें। यही कोशिश परिकल्पना यानी हाइपोथीसिस है। अब यह समझाइश प्रयोग की बलिवेदी पर चढ़ेगी : सच साबित हो सकती है और झूठ भी। परिकल्पना करने के बाद उसका परीक्षण होता है , यह ज़रूरी काम है। बिना परीक्षण के कोई भी परिकल्पना वैज्ञानिक कसौटी पर कसी नहीं जा सकती। परीक्षण के बाद वह सत्य भी हो सकती है और असत्य भी।
अभी परिकल्पना को यहीं छोड़िए और सिद्धान्त व नियम की ओर बढ़िए , क्योंकि हमें डार्विन तक पहुँचना है। नियम किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों द्वार ध्यानपूर्वक देखे गये दृश्यों का निरूपण होता है। यह एक ऑब्ज़र्वेशन है। कई बार इसे गणित की भाषा में निरूपित किया जाता है। गुरुत्व का नियम बताता है कि हर बार धरती पर सेब गिराओगे , नीचे गिरेगा। कोई भी गिरा ले। पृथ्वी पर कहीं भी। यह नियम न्यूटन गणित की भाषा में फॉर्मूले या सूत्र के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
लेकिन नियम अगर एक दृष्टिगत सत्य है तो सिद्धान्त उनकी व्याख्या है। व्याख्या यानी कपोलकल्पित जो-मन-में-आया-सो नहीं। सैद्धान्तिक व्याख्या विज्ञान के क्षेत्र में सबसे ऊँची और सम्मानजनक बात है। नियम बताता है कि ऐसा होता है। वह क्यों और कैसे के बारे में कुछ नहीं कहता।
सिद्धान्त यह बताता है कि ऐसा कैसे होता है। अगर आप वैज्ञानिकों से कहेंगे कि मैं डार्विन के विकासवाद को नहीं मानता , तो वे कहेंगे कि न मानिए। डार्विन का विकासवाद अब वहाँ से परिष्कृत होकर बहुत आगे आ गया है। कई चीज़ें जोड़ी गयी हैं। आप न मानिए , लेकिन कुछ जोड़िए या फिर घटाइए। लेकिन तर्कपूर्ण और हो सके तो प्रायोगिक ढंग से। ऐसे ही नहीं। ‘डार्विन-का-विकासवाद’ में आप डार्विन पर अटक गये हैं। आपको डार्विन को ग़लत सिद्ध करना है , क्योंकि आप अपने धर्म से अभिभूत हैं। विज्ञान डार्विन के पीछे नहीं चलता , वह किसी भी डार्विन-आइंस्टाइन से बहुत-बहुत-बहुत बड़ा है।
बात दरअसल विकासवाद पर होनी चाहिए। उसकी कमियों पर तर्कसंगत ढंग से चर्चा होनी चाहिए। लेकिन आप डार्विन पर थमे पड़े हैं , जबकि विकासवाद डार्विन की बाँह छोड़कर बहुत आगे आ गया है।
फिर मामला यह कि डार्विन ने विकासवाद के प्रयोग कैसे किये। तो इसके लिए यह जानिए कि डार्विन का समय वह था जब हमें न जीन का पता था , न डीएनए का। कोशिका के भीतर के हज़ारों-लाखों रहस्य हमें न ज्ञात थे। ऐसे में वह आदमी पूरे विश्व के जीवों-पौधों को जीवित अथवा जीवाश्म-रूप में पढ़-समझकर उनके वर्गीकरण के माध्यम से विकासवाद को सामने रखता है। और ऐसा करने वाला वह अकेला नहीं है , कई अन्य वैज्ञानिक भी हैं जिनके नाम मैं अभी यहाँ छोड़ रहा हूँ।
विज्ञान में प्रत्यक्ष देखने का महत्त्व है लेकिन कई बार परोक्ष प्रमाण भी उसमें बहुत बड़ा काम कर जाते हैं। आइंस्टाइन ने अपना फ़ोटोएलेक्ट्रिक एफ़ेक्ट जब दिया , तो प्रत्यक्ष न फ़ोटॉन देखे और न एलेक्ट्रॉन। उन्होंने वे घटनाएँ देखीं और जानीं , जो हो रही थीं और उन्हें गणितीय रूप में प्रस्तुत किया। वे सत्य थीं।
डार्विन ने पृथ्वी-रूपी-प्रयोगशाला का भरपूर और शानदार इस्तेमाल किया। तरह-तरह के जीव देखे और तब जातियों के विकास का अपना सिद्धान्त सामने रखा। उन्होंने चलते-फिरते मुँह उठाकर थ्योरी नहीं बाँच दी।
विज्ञान में आपकी काट के लिए पूरी जमात बैठी है। यह उन लोगों की बिरादरी है जो आपसे कबुलवाती है कि अपनी ही काट के बारे में क्या सोचते हो। इसलिए यहाँ आत्म-निस्तारण सबसे पहले सिखाया जाता है। संसार का श्रेष्ठतम वैज्ञानिक वह है , जो अपने ही सिद्धान्त की काट नित्य सोचा करता है।
आपको लगता है डार्विन ने ऐसा न सोचा होगा ? और क्या आपने डार्विन को ख़ारिज करते समय अपनी ही काट सोची है ?
स्कन्द शुक्ल
लेखक पेशे से Rheumatologist and Clinical Immunologist हैं।
वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं और अब तक दो उपन्यास लिख चुके हैं