“मैं डार्विन को नहीं मानता !”
“बड़ी अच्छी बात होती है स्थापित बहुमान्य को न मानना। लेकिन न मानने की वजहें होनी चाहिए बहुत ठोस। अन्यथा जगहँसाई होती है। अब आप बताएँ कि आप डार्विन व्यक्ति को नहीं मानते , डार्विनवाद को नहीं मानते या जीव-विकास को ही नहीं मानते।”
“तीनों अलग-अलग बातें कैसे हैं ?”
“बिलकुल हैं। अगर आप बार-बार यह कहेंगे कि मैं डार्विन को नहीं मानता तो यह कहा जाएगा कि आपने पिछले दो सौ सालों का जीव-विज्ञान ढंग से या तो पढ़ा नहीं , या केवल नम्बर लाने के लिए रट लिया। डार्विन को न मानने की बात करने वाले सबसे सतही लोग हैं। वे व्यक्तिवादी हैं। वे व्यक्तियों तक ही पहुँच सके हैं , व्यक्तियों तक ही पहुँच पाते हैं। उनकी सोच सिद्धान्तों तक गहरी जाती ही नहीं। वे आइंस्टाइन व्यक्ति की बातें करते हैं , फ़ोटोएलेक्ट्रिक प्रभाव का ‘फ़’ नहीं जानते , वे सापेक्षता के ‘स’ से भी परिचित नहीं। उनके लिए आइंस्टाइन मात्र एक रॉकस्टार हैं। ”
“और अगर कहूँ कि डार्विनवाद को नहीं मानता तो ?”
“तो मैं पूछूँगा कि डार्विनवाद को पूरा ही नहीं मानते या उसके किसी बिन्दु को। क्रमवार बताइए।”
“डार्विन की बातें तो वैज्ञानिकों ने ही खारिज की हैं।”
“ग़लत। कोशिशें की गयी थीं , की गयी हैं। सफलता नहीं मिली।”
“ह्यूगो डि व्रीज़ ने कहा कि नयी जीव-स्पीशीज़ म्यूटेशन से पैदा होती हैं , प्राकृतिक बदलाव से नहीं।”
“डि व्रीज़ ने कहा था कि डीएनए में होने वाले आकस्मिक बदलाव , जिन्हें म्यूटेशन कहते हैं , नयी स्पीशीज़ पैदा होती हैं। उनके अनुसार यह अचानक आनन-फानन में होता है , न कि धीरे-धीरे।”
“तो आपका इस बारे में क्या कहना है ?”
“डि व्रीज़ के सिद्धान्त ने बीसवीं सदी के आरम्भ में ज़ोर पकड़ा। उसपर ख़ूब काम हुआ। एक बार लगा कि डार्विन खारिज हो गये अब। लेकिन फिर जनसंख्या-आनुवंशिकी ने जैसे-जैसे प्रगति की , यह सिद्ध हुआ कि डि व्रीज़ की बातें सच होकर भी मुख्य धारा की नहीं थीं। जीव-स्पीशीज़ धीरे-धीरे बनती हैं , न कि अचानक।”
“यानी ?”
“यानी यह कि अगर गणित सहायता न देती तो डार्विन का सिद्धान्त ध्वस्त हो चुका होता।”
“तो आप डार्विनवाद की रक्षा किये बिना मानेंगे नहीं।”
“मैं किसी वाद की रक्षा नहीं कर रहा। विज्ञान किसी के जन्मने की बारहवीं या मरने की तेरहवीं नहीं मनाता। जीना है , अपने बूते जियो। मर रहे हो , तो विज्ञान किसी नियम-सिद्धान्त को जबरन प्राण फूँक कर नहीं बचाएगा।”
“तो डार्विन बचे हुए हैं आपके अनुसार ?”
“फिर वही त्रुटिपूर्ण बात ! डार्विन व्यक्ति मर चुका है !”
“और डार्विनवाद ?”
“वह परिष्कृत हो चुका है। उसमें कई बातें और जुड़ चुकी हैं। उस सिद्धान्त का स्वयं विकास हो चुका है। अब वह आधुनिक विकास-संश्लेषण के नाम से जाना जाता है।”
“और अगर कोई कहे कि वह जीव-विकास को ही नहीं मानता , जिस तरह विज्ञान बताता है तो ?”
“तो उससे पूछा जाएगा कि वह किस विकासवाद को मानता है। अपने धार्मिक ग्रन्थ के विकासवाद को ? तो उसी को क्यों ? दूसरे धार्मिक ग्रन्थ के विकासवाद को क्यों नहीं ? फिर उसके पक्ष में क्या प्रमाण है ? आस्था ? मान्यता ? संस्कृति ? या कुछ और ? जिस घर जो पैदा हो जाए , उसकी हर बात को अन्धे अन्दाज़ में मानता जाए , तो उसे आप बन्द दिमाग़ का व्यक्ति कहते हैं।”
“और अगर कल विज्ञान ही डार्विन के सिद्धान्तों को ध्वस्त कर दे तो ?”
“अव्वल अगर कर देगा , तो संसार का विज्ञान-जगत् उसे स्वीकार कर लेगा। लेकिन उस नींव पर इतना कुछ खड़ा हो चुका है , कि उसे खारिज करने का मतलब ढेर सारे जीव-विज्ञान को धता बताना है।”
अवकाशवादी मित्र चुप हैं। अब मैं बात आगे बढ़ाता हूँ।
“एक बात बताइए , आप परमाणु को मानते हैं ?”
“हाँ।”
“पर क्यों मानते हैं ? आपने उसे देखा तो है नहीं।”
मित्र चुप हैं।
“आप एलेक्ट्रॉन को क्यों मानते हैं ? प्रोटॉन को ? न्यूट्रॉन को ? फर्मियॉन-बोसॉन को ? क्वार्कों को ? कणों की स्पिन को ?”
मित्र के चेहरे पर भौतिकी के आतंक का कर्फ़्यू है।
“मैं आपको यह बता दूँ कि देखा आपने इनमें से किसी को नहीं है। लेकिन परमाणु-भौतिकी और रसायन की ढेरों बातें इन पर टिकी हैं। साइंस में सब कुछ आँखों से देखना ही नहीं होता। लेकिन जीव-विज्ञान में आप-जैसे ढेरों अनभिज्ञों के बोल इसलिए फूट पड़ते हैं क्योंकि वह आपके पल्ले पड़ता है। आप उसका तल नहीं छूते , उसकी सतह पर पहुँचते हैं बस। वहाँ ‘मैं नहीं मानता’ का राग अलापना सरल है। ‘मैं नहीं मानता’ आइन्स्टाइन के लिए तो न कह सका कोई।
मित्र मूर्ति बन चुके हैं। शायद उनके भीतर कुछ विकसित हो रहा
( चित्र में ह्यूगो डि व्रीज़ जिन्होंने म्यूटेशनों ने अचानक नयी स्पीशीज़ उत्पन्न होने का सिद्धान्त दिया। म्यूटेशन को मान्यता मिलने के बाद भी आधुनिक विज्ञान समस्त जीव-विकास का म्यूटेशन-भर से होना खारिज कर चुका है। )
स्कन्द शुक्ल
लेखक पेशे से Rheumatologist and Clinical Immunologist हैं।
वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं और अब तक दो उपन्यास लिख चुके हैं