अन्धा बाँटे रेवड़ी,
न जाने किस को , कब तक देय !
‘विकास’ में ‘वाद’ का पुछल्ला जोड़ने का मैं पक्षधर नहीं हूँ। प्रत्यय की पूँछ लगा देने से शब्द के अर्थ में मतैक्य नहीं रह जाता। ऐसा लगता है कि विकासवाद शाखा-शाखा डोल रहा है , जैसे अन्य मत डोल रहे हैं। ‘वाद’ में विवाद है , ऐसा लगता है कि अभी बात पूरी तरह जमी नहीं है , वह कुछ हद तक हवा-हवाई रह गयी है।
लोग गुरुत्ववाद नहीं कहते , मात्र गुरुत्व कहते हैं। वहाँ उन्हें संशय नहीं लगता। लेकिन यहाँ उन्हें यह केवल डार्विन का मत लगता है। मत यानी उन्होंने किसी दिन कुछ सोचा और मत बना लिया। फिर पूरी दुनिया में उनके गुर्गों ने फैला दिया। और बुद्धिजीवी मानने लगे। ( गोया बुद्धिजीवी खलिहर हों और उन्हें केवल परम्परा को काटने के लिए डार्विन को सच सिद्ध करना हो ! )
फिर ‘विकास’-भर कहने से बात बहुत हल्की हो जाती है। यह इतना घिसा शब्द है कि कब शुरू होकर ख़त्म हो जाता है , पता ही नहीं लगता। ऐसे में जीव-विकास अधिक सटीक शब्द-युग्म जान पड़ता है। प्रत्यय की जगह सामासिक चिह्न का प्रयोग श्रेयस्कर है।
जीव-विकास अन्धा है। वह नहीं जानता कि वह विकसित होकर क्या बन रहा है , क्या बनने जा रहा है। उसमें कोई टीलियोलॉजी छिपी नहीं है। वह आपको-मुझे महामानव बनाने नहीं जा रहा। न जाने कल हमसे कौन सी शाखाएँ फूटें , न जाने पाँच करोड़ साल बाद हम क्या बन जाएँ ! बनें भी या नष्ट हो जाएँ !
अन्धा होना साधारणतः सबसे बड़ी विकलांगता है। चर्मचक्षु न होने से आप दिशा-बोध भूल जाते हैं। लेकिन फिर कुछ ऐसे भी अन्ध-जन हैं , जो इस हानि के कारण बाहर की यात्राएँ करना ही लगभग बन्द कर देते हैं और भीतर की ओर मुड़ जाते हैं। नेत्रदोष का यह सबसे बड़ा परिहार है। इसने कई बड़े-बड़े महानुभावों को हमें भीतरी यात्रा करने के कारण समाज को दिया है।
अन्धेपन के साथ संलग्न एक और गुण निष्पक्षता है। क़ानून अन्धा इसलिए हो लेता है , ताकि वह पक्षपाती न हो। वह आँखों पर पट्टी पहनता है ताकि न्याय करता रहे। दृष्टि से भ्रम और मोह , दोनों उपजते हैं। तो न नेत्रज्योति रहेगी , और न कोई दोराय-दुविधा।
दिशा-बोध न होने से सजगता अधिक बढ़ जाती है। ऐसा अन्य इन्द्रियों पर बड़ी निर्भरता के कारण होता है। कान बेहतर सुनते हैं, नाक बेहतर सूँघती है , स्पर्श बेहतर अनुभव करता है। व्यक्ति दिशाओं को खोने के बदले में बहुत कुछ विशिष्ट पा लेता है।
जीव-विकास को आप कुछ देर के लिए एक वृद्ध व्यक्ति मान लीजिए जिसकी उँगली पकड़कर सारे जीव-जन्तु-पेड़-पौधे चल रहे हैं। वे सभी सोच रहे हैं कि बाबाजी हमें किसी अच्छी जगह ले जा रहे हैं। बाबाजी की आँखों पर काला चश्मा है , जिसके नीचे उनकी नेत्रान्धता है। तभी अचानक उनके सबसे पास चलता मनुष्य उनसे पूछ लेता है कि हम-सब जा कहाँ रहे हैं।
बाबाजी कुछ कहते नहीं , चश्मा उतार देते हैं। उनकी आँखों में गोलक नहीं हैं , दो खाली स्याह कोटर हैं। सारी जीव-प्रजाति इस बात को देख नहीं पाती , केवल मनुष्य देखता है। वह थर-थर भय से काँपने लगता है।
गन्तव्य न पता होना मनुष्य में दो बदलाव कर सकता है। पहला है यह कि ‘बस आज की रात है ज़िन्दगी , कल हम कहाँ , तुम कहाँ’। आज जी लो जैसे बन पड़े , लूट लो , खा लो , अपना पेट अभी , भाड़ में जाएँ सभी।
दूसरा बदलाव बेहतरी का है। वर्तमान को ढंग से जियो। समय सीमित है। कल पता नहीं है तो क्या , आज तो सँवारने के लिए है। उसे सजा डालो। इसी आज में सब जुट जाएँ , तो दुनिया स्वर्ग हो जाए।
जल से जीवन थल पर आया , सब जानते और मानते हैं। लेकिन ह्वेलों के सबसे क़रीबी रिश्तेदार दरियाई घोड़े हैं और ह्वेल के पुरखे थल से जल में वापस गये। तब उनके पर्यावरण ने माँग उठायी और उन्हें आवश्यक बदलाव करने पड़े। जो पुरखे बदल पाये, उन्हें प्रजनन का बेहतर अवसर मिला। जो नहीं ढले , नष्ट हो गये।
जीव-विकास को कई मायनों में जीवन का क़ानून कहा जा सकता है। उसके नेत्रान्धता कई जगहों पर हमें उसकी निष्पक्षता के उदाहरण देती रहती है। लेकिन हम तकनीकी में उन्नत हो लेने को प्रकृति से पार पा लेना समझते हैं। जीव-विकास का अन्धापन धृतराष्ट्र से अलग है। उसे किसी पुत्र से की मोह नहीं है। उसे अपना हस्तिनापुर नहीं बचाना है। उसे अपना भी अस्तित्व नहीं चाहिए। उसकी कोई भीतरी दार्शनिक दृष्टि भी नहीं है। ये तो हम हैं , जो अपना दर्शन प्रकृति पर आलेपित करके ‘गुड-बॉय’ बने रहना चाहते हैं। हम उसे माता का पद देते हैं , कि हमारे दृष्ट-उद्धत साथी भी पुत्रवत् आचरण करने लगें। इसी सौगन्ध के नाते पृथ्वी और उसके जीवन की रक्षा हो। सृष्टि लम्बी चले। लेकिन फिर भी , कब तक ?
किसी कुरुक्षेत्र में पृथ्वी आज नष्ट हो जाए, तो ब्रह्माण्ड में किंचित् कहीं आंसू नहीं बहाया जाएगा।
(चित्र इंटरनेट से साभार। जिस तरह से बन्दर और मनुष्य का साझा पूर्वज एक है , उसी तरह से ह्वेल और दरियाई घोड़े का साझा पूर्वज एक है।)
स्कन्द शुक्ल
लेखक पेशे से Rheumatologist and Clinical Immunologist हैं।
वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं और अब तक दो उपन्यास लिख चुके हैं