अराजकता के परे

anarchy

अराजकता के परे beyond anarchy

यह समाज, यह दुनियादारी, यह राष्‍ट्र की सीमाएं, यह कानून, यह उत्‍पादन और ये सभी व्‍यवस्‍थाएं जो कि बड़े तंत्र को चला रही हैं, सभी कुछ जो व्‍यवस्‍था के भीतर है बहुत ही अराजक है, यह नैसर्गिकता से बहुत दूर है। किसी भी सिस्‍टम को चलाने के लिए बहुत जरूरी है व्‍यवस्‍था के सभी कलपुर्जे अपने सही तरीके से काम करते रहें। नट नट की तरह और बोल्‍ट बोल्‍ट की तरह ही काम करता रहे।

जब इंसान पैदा होता है तो वह न तो नट होता है न बोल्‍ट होता है, वह एक स्‍वतंत्र दिमाग वाला इंसान होता है। अगर विकास के क्रम में वह शीर्ष पर है तो किसी भी जानवर की तुलना में उसे अधिक सटीकता के साथ प्रकृति से जुड़ा हुआ होना चाहिए, लेकिन यह संभव नहीं है। अगर वह नट अथवा बोल्‍ट या कहें व्‍यवस्‍था का सही सही पुर्जा नहीं बना तो व्‍यवस्‍था के भीतर कचरे की तरह तैरता रहेगा।

यह समाज या राष्‍ट्र सहन नहीं कर सकता, ऐसे किसी भी व्‍यक्ति को बेकार पुर्जे की तर्ज पर ही दरकिनार कर दिया जाएगा। अगर उस पुर्जे में कुछ दैवीय शक्तियां हुई, यानी कलाभिव्‍यक्ति, लेखन अथवा ऐसा ही कोई गुण तो फिर उसे सजावट की वस्‍तु के तौर पर भी इस्‍तेमाल किया जा सकता है, वरना वो बिल्‍कुल बेकार का पुर्जा है।

पुर्जा बनने से पहले बहुत पहले प्रकृति की व्‍यवस्‍था को नष्‍ट कर बनाई गई कृत्रिम व्‍यवस्‍था जन्‍म लेने के साथ ही इंसान को तय ढांचे में ढालने लगती है। सबसे कीमती होती है उसकी बुद्धि। ऐसे में पहला प्रहार ही बुद्धि पर किया जाता है। उसे उठना, बैठना, बोलना और व्‍यवहार करना सिखाया जाता है। फिर उसे सपने उधार दिए जाते हैं, जिन्‍हें वह जीने की कोशिश करने लगता है। अपने परिवेश के सबसे सफल सपनों का वह पीछा करता है। कभी सफल होता है तो कभी विफल…

कोई भी तरीका नहीं है कि इस अराजक व्‍यवस्‍था से बाहर निकला जा सके, ऐसे में थोड़ी सी संभावना ईष्‍ट साधना में मिलती है। हर व्‍यक्ति की एक विशिष्‍ट प्रकृति होती है। व्‍यक्ति उस विशिष्‍ट प्रकृति वाले देवता में अपनी छवि देखता है और उसके गुणों को लेकर अराजक व्‍यवस्‍था से निकलने का प्रयास करता है। अगर पूरी तरह निकल न भी पाए तो अपने सर्वाइवल का रास्‍ता निकालने का प्रयास करता है।

अराजक व्‍यवस्‍था से परे यही ईष्‍ट साधना बंधे हुए व्‍यक्ति को निकाल पाने में सहायक सिद्ध हो पाती है। इसमें किसी प्रकार का प्रदूषण संभव नहीं है, क्‍योंकि गुणों की व्‍याख्‍या स्‍पष्‍ट है, व्‍यक्ति की प्रकृति स्‍पष्‍ट है। ऐसे में बहुत बड़े तंत्र के बीच भी व्‍यक्ति स्‍व में स्थिर होने में कामयाब हो जाता है।

मानों गाढ़े धुएं के बीच खड़े व्‍यक्ति के चारों ओर सांस लेने जितना घेरा स्‍पष्‍ट हो चुका हो

जहां मूर्ति का स्‍थान सदेह गुरु लेने का प्रयास करता है, वहां प्रदूषण आता है और अराजक व्‍यवस्‍था बाहर निकलते व्‍यक्ति को एक बार फिर से ट्रैप कर लेती है। गुरु की भूमिका सगुण मूर्ति और साधक के बीच केवल दिशा दिखाने तक सीमित रहे तो ही प्रदूषण न्‍यूनतम होगा, अन्‍यथा बाबा लोग छोटे पिंजरे से निकालकर बड़े पिंजरे में डालते रहेंगे, रहेगा पिंजरा ही…