पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आजाद ने 1998 में एक पुस्तक लिखी 2020, इसमें उन्होंने दो दशक में भारत की संभावित उन्नति और संभावनाओं पर विचार व्यक्त किए और लगभग रोड मैप बनाया। बीते दो दशकों में हमने कितना खोया और कितना पाया, इस पर चर्चा कभी और हो सकती है, लेकिन यह वर्ष 2020 पूरी दुनिया के लिए त्रासदी ही साबित हुआ है। जैसे पानी अपना रास्ता तलाश लेता है, जीवन अपनी गति पकड़ लेता है, वैसे ही वैश्विक महामारी के बीच इस वर्ष ने भी इंसान की जीवटता के बल पर कई सकारात्मक परिवर्तन भी देखे हैं।
आमजन के प्रति जवाबदेही
इस दौर से पहले कभी सरकारों का रुख जनता के प्रति वैसा नहीं था, जैसा सख्त और जिम्मेदार अभिभावक के रूप में जनप्रतिनिधियों और प्रशासन का रुख रहा। अर्थव्यवस्था को दांव पर लगाकर लॉकडाउन किया जाना और मास्क लगाने की प्रतिबद्धता को राष्ट्रीय सुरक्षा के स्तर पर लागू करवाने में पुलिस की सक्रियता ने कमाल का काम किया। कभी भगवान का रूप रहे चिकित्सक और चिकित्साकर्मी जहां धनलोलुप और लापरवाह छवि की कगार पर आ खड़े हुए थे, उन्होंने बार बार अपनी जान दांव पर लगाई और अधिक से अधिक लोगों को मरने से बचाया। महामारी की शुरूआत में जहां प्रभावित होने और मरने वालों का आंकड़ा 5 प्रतिशत तक माना जा रहा था, वहीं सजगता, जागरुकता और चिकित्साकर्मियों के त्याग ने इसे लगभग 2 प्रतिशत पर रोक दिया। अगर आंकड़ों में बात करें तो यह आंकड़ा केवल 3 प्रतिशत का दिखाई देता है, लेकिन संख्या की बात की जाए तो 130 करोड़ भारतीयों के लिए यह आंकड़ा करीब पांच करोड़ तक जाता है। पुण्यभूमि पर विचरण कर रहे पांच करोड़ लोगों पर पूरे तंत्र का यह सामूहिक ऋण है।
खाद्य सुरक्षा
राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की अवधि भले ही शुरूआती 21 दिन के लिए घोषित की गई थी, लेकिन कोरोना के आंतक ने पूरे राष्ट्र को मार्च से दिसम्बर तक पंगु बना रखा है। फैक्ट्रियां, कॉर्पोरेट हाउस और असंगठित क्षेत्रों तक के अधिकांश काम बंद रहे। इसके बावजूद पूरे देश में कहीं भी भूख से किसी नागरिक की मृत्यु होने की सूचना नहीं मिली। शुरूआत में लोगों ने तेजी से अनाज और जरूरी चीजों का संग्रह करना शुरू भी किया। वित्तीय आधार पर जबरदस्त ऊंच नीच वाले देश में अपनी जान बचाने के लिए आतुर लोग किसी भी हद तक जा सकते थे, अगर वितरण व्यवस्था में जरा भी चूक होती तो कोने कोने से हाहाकार की खबरे आने लगती, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर वितरण व्यवस्था इतनी अधिक सुदृढ़ रही कि शुरूआती दो महीने के बाद बाजारों में राशन नहीं मिलने की आशंका पूरी तरह खत्म हो गई।
वर्क फ्रॉम होम
जब एक दफ्तर में एकत्रित होकर काम नहीं कर सकते तो घर बैठकर दफ्तर का काम निपटाया जा सकता है। संचार क्रांति के तीसरे चरण में आए कोरोना ने लोगों को बिना दफ्तर जाए घर बैठकर काम निपटाने के लिए सुविधा मुहैया करवा दी। परिणाम यह हुआ कि सैकड़ों कंपनियों ने अपने महंगे दफ्तर बंद ही कर दिए। लोग मजे में घर बैठे काम कर रहे हैं, अब अगर कभी मिलना भी हो तो किसी शानदार होटल में पूरा स्टाफ मिल सकता है। यह कार्य संस्कृति की बिल्कुल नई और बेहतर अवधारणा है। महानगरों में कामगारों के बड़े बड़े बाड़े बनाने और उससे उपजी अव्यवस्था का जवाब अब वर्क फ्रॉम होम के रूप में उभरकर आया है। कंपनी को काम से मतलब है और कर्मचारी को परफार्मेंस देने से, दोनों ही काम रोजाना क्यूबिकल में बैठकर एक दूसरे को मेल भेजकर सवाल जवाब करने से बेहतर है कि अपनी सुविधा के स्थान पर काम किया जाए। आने वाले समय में वर्क फ्रॉम होम रियल स्टेट की दशा और दिशा बदलने वाला साबित हो सकता है। अब किसी मॉल या सुपर मार्केट क्षेत्र में ऑफिस लेने के बजाय किसी दूर दराज के क्षेत्र में ऑफिस बनाए जा सकेंगे और संघनित आबादी की समस्या बहुत हद तक कम हो सकती है। फैक्ट्रियों में तो कामगारों की मौजूदगी की जरूरत होगी, लेकिन अन्य सैकण्डरी और टर्शरी लेवल के सेवा क्षेत्रों के लिए यह बड़ी राहत की बात है।
धन का प्रवाह
कैशलैस का प्रयास कई सालों से चल रहा है, लेकिन महामारी के दौरान घर में कैद लोगों के लिए ऑनलाइन पेमेंट बड़ी राहत बनकर आया। एटीएम या बैंक में जाने पर संक्रमण का खतरा था, नोट के लेन देन से भी संक्रमण फैल सकता था, ऐसे में मोबाइल के जरिए एक दूसरे को भुगतान सबसे सरल और सुरक्षित तरीका रहा। जिन लोगों ने 2016 से 2020 की शुरूआत तक कसम खा रखी थी कि वे किसी भी सूरत में कैशलैस व्यवस्था में नहीं जाएंगे, उन लोगों ने भी गूगल पे, पेटीएम, फोन पे जैसी सुविधाओं का डटकर इस्तेमाल किया। मेरा परचून वाला, दूध वाला और सब्जीवाला सभी गूगल पे से पेमेंट लेने लगे हैं। पानी, बिजली, टेलीफोन जैसी सुविधाएं पहले से ऑनलाइन थी, पेमेंट गेटवे ने उन्हें और अधिक सुविधाजनक और प्रभावी बना दिया है। सालों पहले रिच डैड पुअर डैड पढ़ते समय सोचा था कि हमेशा आखिरी तारीख को ही बिल जमा कराउंगा, इस पचड़े में बहुत बार पैनल्टी भी भुगती, लेकिन अब आखिरी तारीख से एक दिन पहले से गूगल पे और पेटीएम बार बार चेताते रहते हैं और सफलतापूर्वक आखिरी दिन बिल भरता हूं। हर तरह का लेन देन ऑनलाइन आ चुका है। कभी कभार एटीएम से पैसे निकाल भी लिए तो बहुत दिन तक वह कैश आंखों के सामने पड़ा रहता है।
कूरियर का वहद् साम्राज्य
कोरोना काल से पहले दो प्रकार की कूरियर कंपनियां अपना जाल फैला रही थीं, फैड एक्स और डीएचएल जैसी कंपनियां जो कि कॉर्पोरेट स्तर पर बड़ा काम कर रही हैं और दूसरी फ्लिपकार्ट और अमेजन की कूरियर सर्विस। कोरोना काल में लोगों को एक दूसरे तक सामान भेजने के लिए कूरियर सबसे सुरक्षित विकल्प लगा, इसका परिणाम यह हुआ कि छोटी छोटी कूरियर कंपनियों को तेजी से काम मिलने लगा। कूरियर कंपनियां भी अधिक जिम्मेदारी से काम करने लगीं। परिणाम यह हुआ है कि क्षेत्रीय कूरियर कंपनियों का साइज बढ़ने लगा है। अब गूगल ने शॉपिंग के क्षेत्र में कदम बढ़ाने का विचार किया है। इसमें कोई भी छोटा मोटा उत्पादक अपना माल पूरे देश में दिखा सकता है और बेच सकता है, उसे इन्हीं कूरियर कंपनियों का सहयोग लेना होगा। कोरोना काल में बेरोजगार हुए लोगों के लिए अपनी बचत की पूंजी से ऐसे छोटे व्यापार करना अपेक्षाकृत आसान और बेहतर विकल्प साबित होगा। आने वाले दौर में घर बैठे व्यापार और घर बैठे माल हासिल करने की प्रवृत्ति कूरियर का वृहद् साम्राज्य खड़ा करेगी। एक ओर देश में छोटे छोटे स्थानों पर गंभीर उद्यमी तैयार होंगे तो दूसरी ओर लोगों को घर बैठे बेहतरीन उत्पाद मिल सकेंगे। कोरोना की बंदिश ने लोगों को बंद करने के बजाय संभावनाओं के नए द्वार खोल दिए हैं।
दुनिया चलती रही…
बहुत से लोग इस वहम के साथ काम करते रहते हैं कि उन्होंने एक दिन काम नहीं किया तो प्रलय आ जाएगी। बाजार का दबाव, विकास का दबाव, दोस्तों–रिश्तेदारों का दबाव, आगे बढ़ने का दबाव इंसान को खच्चर बनाकर रखते हैं। इंसान दौड़ता जाता है, लगातार, बिना रुके, बिना थकान की चिंता किए। लगता है एक दिन भी काम कैसे रोका जा सकता है, कितना कुछ प्रभावित होगा, कितना कुछ बिगड़ जाएगा। कोरोना से थमी दुनिया को पहली बार लगा कि सबकुछ रुकना कुछ सुखद भी हो सकता है। कुछ समय काम बंद भी कर दिया जाए तो प्रलय नहीं आएगी, बल्कि प्रकृति और खूबसूरत हो जाएगी। लोग घरों में बंद थे तो चिल्ल पौं कम हुई, प्रदूषण कम हुआ और सक्रिय लोगों द्वारा प्रकृति पर डाला जा रहा दबाव कम हुआ। पेड़ों पर पत्तों का रंग निखर आया, पुरानी बासी जगहों पर नए फूल खिल गए, जंगल से सटी आबादियों में तो जंगली जानवर तक पहुंच गए। लोगों ने खुद का भी ख्याल रखा और अपने आस पास के इंसानों और जानवरों तक का ख्याल रखा। सामाजिकता में बढ़ोतरी हुई।
वक्त जैसे ठहर गया, लेकिन दुनिया चलती रही…