हिन्दी ब्लॉगिंग में लेखकों का उत्साह लगातार बढ़ता हुआ देख रहा हूं। एक तरफ पचासों लोग हैं जो आमतौर पर भी कुछ भी लिख दें तो पूरी शिद्दत के साथ पढ़ा जाता है। वहीं दूसरी तरफ कुछ ऐसी लेखकों की मिसालें भी हैं जो ऐसा लिखते हैं कि पाठक पढ़ना चाहते हुए भी पढ़ नहीं पाते। हालांकि पाठकों और टिप्पणीकारों का लगातार आग्रह रहता है कि ऐसी भाषा में लिखा जाए जिसे आम आदमी आसानी से पढ़ और समझ सके। इसके बावजूद लिखने में सिद्धहस्त लोग अपनी धुन में उत्कृष्ट साहित्य नेट पर रच रहे हैं।
ठीक है, भले ही आज किसी को समझ में न आए लेकिन किसी न किसी दिन किसी न किसी पाठक को तो ये लेख समझ में आएंगे ही।
मैं सीधा-सीधा किसी का नाम नहीं लूंगा लेकिन विषय आधारित और कई जगह विषय से हटकर कुछ लोग ऐसी भाषा लिख रहे हैं जो कम से कम मुझे एक बार में समझ में ही नहीं आती। जरूरी नहीं है कि मैं सभी विषयों का अच्छा जानकार होउं और यह भी जरूरी नहीं है कि सबकुछ मेरे लिए ही लिखा जा रहा है। इसके बावजूद संप्रेषण को सुगम बनाने की आग्रहता बनी रहती है।
मैं सोचता हूं कि किसी हैडिंग को पढ़ने के बाद मेरी इच्छा होती है कि इस विषय पर जो लेख लिखा गया है उसे पढूं और समझूं कि इसमें नया क्या है। हो सकता है इस बारे में बाजार में कई किताबें उपलब्ध हों लेकिन जब एक ब्लॉगर लिख रहा है तो समझने के बाद नेट के पाठकों को समझाने के इरादे से लिख रहा होगा। मैं उस पोस्ट में पहुंचता हूं, तो पाता हूं कि अब तक जिस अंदाज में विषय को पढ़ा और समझा था उससे कहीं अधिक दुरुह अवस्था में यह नेट पर मिल रहा है। किसी लेख विशेष को एक दो या तीन बार पढ़ने के बाद भी मेरी उलझन खत्म नहीं होती, तो कुछ देर उलझा रहने के बाद अंतरजाल के किसी दूसरे कोने की ओर चल देता हूं।
आमतौपर नेट पर जमे हुए अधिकांश पाठकों की भी यही स्थिति होती होगी।
जो बातें किताबों में लिखी जा चुकी हैं उन्हें ज्यों का त्यों नेट पर हिन्दी में डाल देना न केवल हिन्दी की सेवा है बल्कि नेट पर हिन्दी के वर्चस्व की ओर एक और कदम है लेकिन यह कदम कितना प्रभावी है, यह सोचना भी महत्वपूर्ण लगता है। कई लोग अपनी बात लिख रहे हैं, सादे शब्दों में, कई बार कुछ कठिन शब्दों का भी इस्तेमाल करते हैं, लेकिन वे इतने कठिन नहीं होते कि पढ़ने पर सिर चकरा जाए, लेकिन सोचिए कि क्या बिना किसी विषय विशेष को केन्द्र में रखे ये लोग क्लिष्ट भाषा लिखते, तो क्या आज उन्हें इतनी लोकप्रियता मिल पाती।
मैं सोचता हूं, नहीं।
… इससे हिन्दी और इसके क्लिष्ट शब्दों का महत्व भी कम नहीं होता।
जनकवि हरीश भादाणीजी की कविताओं की समीक्षा में एक बार जगदीश्वर चतुर्वेदीजी ने कहा था कि ये कविताएं केवल गाने के लिए हैं। आम आदमी सुनेगा और भुला देगा। जब तक खुद हरीशजी गाएंगे ये कविताएं जिंदा रहेगी लेकिन खुद हरीशजी के सीन से हटने के साथ ही कविता का भी लोप हो जाएगा। उनका संदर्भ हरीश भादाणीजी की कविताओं में आ रहे बिंब और बिंब के विचार में रिड्यूस होने के बारे में था। इस पर वरिष्ठ साहित्यकार नंदकिशोर आचार्यजी ने कहा था कि हरीशजी आम जनता से संप्रेषणीय आग्रहता के चलते बिंब के साथ कविता का सृजन करते हैं। और यह बिंब आम आदमी की समझ में आए इसलिए कविता के अंत तक बिंब यानि इमेज को विचार तक रिड्यूस कर देते हैं। यह कमी नहीं बल्कि हरीशजी की खासियत है।
आज उस घटना के करीब दो साल बाद मैं देख रहा हूं कि ब्लॉगिंग में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है।
एक ज्योतिष विद्यार्थी के रूप में जब लिखना शुरू किया तो लगा कि क्या लिखा जाए जो आम आदमी को समझ में आए। विषय को लेकर सैकड़ों सवाल दिमाग में थे और अब भी हैं लेकिन उनमें से कुछ विषयों का जुड़ाव आम आदमी से सीधे होता है। अब नवमांश और सबलॉर्ड में से किसे अधिक सटीक माना जाए इस पर बहस की गुंजाइश अभी नेट पर नहीं है लेकिन ज्योतिष में अंधविश्वास या साढे़साती की समस्या पर हर पाठक पढ़ने को तैयार मिलेगा। ऐसे में मैं सरल शब्दों में अपनी बात रख पाता हूं तो पाठक भी उस विचार से खुद को जुड़ा हुआ पा सकेगा। जितने अधिक पाठक जुड़ेंगे विषय से नजदीकी भी उतनी ही बढ़ती जाएगी।
शुरूआती दौर में एक रास्ते पर कुछ दूरी तक पाठक को खींच लेने के बाद विषय को क्लिष्ट बना लिया जाए तो शायद किसी को आपत्ति नहीं होगी लेकिन शुरूआत ही ऐसे शब्दों से हो जिन्हें समझने के लिए हर पंक्ति के बाद रुककर डिक्शनरी निकालनी पड़े तो क्या नेट पर ब्लॉग पढ़ना सजा की तरह नहीं हो जाएगा…