एक अर्सा हो गया हिन्दी ब्लॉगिंग के साथ। मैं पुराने लोगों को देखूं तो लगता है जैसे कल ही यहां आया हूं लेकिन पिछले आठ महीने से लगातार कुछ न कुछ ब्लॉग के बहाने करता रहा हूं। इंटरनेट के टूल, भड़ास की सदस्यता, अपने इस पुराने ब्लॉग पर दिमाग की हलचल को डालने, ज्योतिष का नया ब्लॉग शुरू करके उसमें लगातार विचारों का निवेश करके और जयपुर के राजीव जैन से एक रात की चैटिंग के बाद कहावतों का ब्लॉग शुरू करने के प्रयासों को इकठ्ठा किया जाए तो लम्बी पारी दिख सकती है।
इस बीच वैचारिक स्तर पर कई उतार चढ़ाव आए। कभी सोचता था कि क्या लगातार लिख पाउंगा तो कभी सोचा कि मुझे पढ़ने वाले लोग कौन होंगे, कभी व्यवस्तताओं के लम्बे दौर (जो आमतौर पर दो या तीन दिन के होते) मुझे फिर से ब्लॉगिंग के प्रति अजनबी बना देते। कुल मिलाकर तीखे क्षणें से गुजरता रहा। हो सकता है मैंने दूरी महज दो या तीन किलोमीटर ही तय की हो लेकिन तीखे क्षणों के उतार चढ़ाव ने इस दूरी को कई सौ किलोमीटर तक फैला दिया।
इसी यात्रा में टिप्पणी ऐसी चीज थी जिसने मुझे हमेशा हतोत्साहित किया। भले ही वह अच्छी हो लेकिन मेरे विचारों के अनुरूप टिप्पणियां मुझे कम ही मिली। सही कहूं तो एक भी नहीं मिली। तो कौन लोग हैं जो मुझे पढ़ रहे हैं। इसका खुलासा हुआ मेरे ज्योतिष दर्शन ब्लॉग पर लगाए गए एक बॉक्स से। जिसे मैं प्रश्न डिब्बा कहता हूं।
इसे मैंने किसी दूसरी साइट पर थोड़ा सा स्पेस लेकर बनाया है। इस डिब्बे को लगाने के दूसरे तीसरे दिन से ही प्रश्नों की बौछार शुरू हो गई। एक महीने में सौ से अधिक सवाल। वह भी मेरे विषय से संबंधित। हां, इनमें से कुछ निजी सवाल थे तो कुछ ऐसे सवाल भी थे जो मुझे विषय को और अधिक गंभीरता से समझने में मदद करते। ब्लॉगिंग के अलावा दूसरा रास्ता है साइट का। एक पत्रकार होने के कारण मेरे पास इतना समय नहीं था कि खुद अपनी साइट डवलप कर लूं और इतना पैसा भी नहीं था कि किसी से डवलप करा लूं। सो इसी माध्यम से चिपका हूं। ब्लॉग के जरिए प्रश्नों की बौछार और टिप्पणियों में वही सूनापन देखकर मुझे टिप्पणी और भी अधिक निस्सार नजर आने लगी।
मेरे दिमाग में किसी टिप्पणी देने वाले का अपमान करने या उनके अब तक किए गए अथक प्रयासों को झुठलाने का इरादा कतई नहीं है। लेकिन हर व्यवस्था एक समय तक ही परिहार्य होती है। आज जब गूगल एनालिटिक जैसे टूल उपलब्ध हैं यह जानने के लिए कि कितने लोग कितनी देर के लिए आपके ब्लॉग पर आए तो फिर टिप्पणी देने और उसके लिए आग्रह करने की जरूरत कहां रह जाती है।
पिछली रात न तो मैं किसी अवसाद में था न ही इस बारे में मेरे दिमाग में कोई कुंठा है लेकिन समीर भाई को भी यह बात समझनी होगी कि सभी टिप्पणीकार उनकी तरह मलंग नहीं होते कि पढ़ा और छोटा सा संकेत देकर निकल लिए। अब जो लोग टिप्पणी दे रहे हैं वे न तो अधिकांश विषयों को समझते हैं और ना ही इसे स्वीकार करने की उनमें ईमानदारी है। हां टिप्पणी के साथ अपना लिंक देना नहीं भूलते। मैंने कभी नहीं कहा कि समीर भाई को टिप्पणियों की आवश्यकता है। वे इतना रोचक लिखते हैं कि मैं टिप्पणी करूं या नहीं उनके ब्लॉग का चक्कर जरूर लगा आता हूं। यह सोचकर ही कि कुछ सीखने को मिलेगा। मैंने तो उनकी जय ही बोली है।
व्यंग्य तो उन लोगों पर है जो दूसरे ब्लॉगर की किसी पोस्ट पर जाते हैं। एक ऐसी टिप्पणी छोड़ते हैं जो या तो समीर भाई की टिप्पणी जैसी दिखाई देती (यानि छोटी सी, लेकिन सारगर्भित नहीं) या ऐसी कि पोस्ट से टिप्पणी का संबंध बिठाने में ही घण्टाभर लग जाए। इसके बाद टिप्पणी के अंत में खुद का लिंक जोड़ा हुआ होता है। इस प्रवृत्ति को ही मैंने तुम मेरी पीठ खुजाओ मैं तुम्हारी पीठ खुजाता हूं वाली शैली कहा है।
मैंने अपनी बात स्पष्ट की, यह मेरे दिमाग की हलचल थी। अब भी कोई गिला शिकवा हो तो कहा सुना माफ करें…