स्थितप्रज्ञता या मूढ़ता?

गुणीजनों ने बताया कि जब समस्‍याएं चारों ओर से घेर ले और चिंताएं हावी होने लगे। दिमाग का अधिकांश हिस्‍सा तब तात्‍कालिक समसयाओं में उलझा हो और सामने दिख रहे परिवर्तन का हल समझ में न आए तो कुछ देर के लिए शांत बैठो।
खुद को छोड़ दो। जो होता है हो जाने दो। देखते रहो साक्षी भाव से। विचारों के प्रवाह में बाधा लाने की बजाय एकाग्र होओ किसी एक बिन्‍दु पर चाहे वह हृदय के भीतर का आकाश और उसके भीतर के आकाश और उसके भीतर खिले कमल पर ही क्‍यों न हो। एक बिन्‍दू लेकर उसमें डूब जाओ, तब आएगी स्थिरता। पहले विचार आएगा, जो बाद में ध्‍यान बनेगा, उससे धारणा बनेगी और धारण सिद्ध होकर समाधि बनेगी। यानि स्थित प्रज्ञत आएगी।
शिष्‍य सवाल दागता है: हे गुरूदेव क्‍या होता है स्थितप्रज्ञता में ?
 
गुरूजी:  हैं ? 
 
ये स्थितप्रज्ञ स्थिति क्‍या है। 
 
अब गुरूजी ने स्‍वाद ले भी रखा है तो कैसे समझाए कि अदरक मी‍ठी है या खट्टी, नमकीन है या फीकी। 
 
खैर गुरू तो गुरू ठहरे मोर पकड़ने का तरीका भी बताएंगे तो कुछ इस तरह कि पहले पीछे से जाकर उसकी आंखों पर डामर लगा दो उसे दिखाई देना बंद जाए तो झट से पकड़ लो। आगे कोई सवाल नहीं। 
 
सो शिष्‍य को बताया कि यह नो माइंड स्‍टेज है। 
 
यानि ?  चेले का सवाल का क्रम चालू है 
 
हे शिष्‍य (गुरू का चेहरे में ललासी आ रही है, शिष्‍य खुश हो रहा है कि गुरूजी के चेहरे का तेज बढ़ रहा है, श्रद्धावश आवाज की तल्‍खी को महसूस नहीं कर रहा) जब दिमाग में कोई विचार न आए तो वह स्थिति स्थितप्रज्ञता की है। भेजा विचारशून्‍य हो जाता है। नए विचार आने बंद हो जाते हैं। 
 
शिष्‍य समझने की फिराक में नो माइंड होकर बैठ जाता है। 
 
एक दो दिन से अपने दिमाग की भी हालत कुछ ऐसी ही है। हमेशा दिमाग में कुछ न कुछ चलता रहता है लेकिन अभी कुछ भी नहीं आ रहा। अब सोच रहा हूं कि यह स्थिति नो माइंड की है या नेवर माइंड की। दिमाग में विचार नहीं आ रहे। यानि कुछ तो लोचा है। अब ये किससे पता लगवाया जाए कि मैं स्थितप्रज्ञ हो रहा हूं या मूढ़।