सदाशिव ब्रह्मेन्द्र सरस्वती एक अवधूत थे, जिन्होंने संन्यास लेने के बाद अपना अधिकतर जीवन अवधूत अवस्था , पूर्णनग्न अवस्था में बिताया। वे हमेशा अपने भीतर ध्यानमग्न रहते थे, और उनके आस-पास और यहाँ तक की उनके शरीर के साथ होने वाली चीज़ों का भी उन्हें होश नहीं रहता था।
श्री सदाशिव ब्रह्मेन्द्र , श्रीवत्स गोत्र के दम्पति मोक्ष सोमसुंदर अवधनी और पार्वती के घर मदुरई में जन्में । उनके माता पिता भगवन रामन्थस्वामी (रामेश्वरम ) के भक्त थे तथा पुत्र प्राप्ति के लिए उनकी प्रार्थना करते थे। इसीलिए पुत्र के जन्मा पर उन्होंने अपने पुत्र का नाम शिवरामकृष्णा रखा । उनकी माता को एक कोटि बार राम जप करने की सूचना मिली थी । सन्देश ये था की इस जाप से शरीर की हर कोशिका को दिव्यता प्रदान होगी तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मा की शुद्धि होगी । इसी दिव्य शुद्धता से जन्म लेने वाला बालक भविष्य में एक महात्मा कहलायेगा और विश्व का उद्धार करेगा ।
श्री सदाशिव के परिवार ने मदुरई से तिरुविसैनल्लूर (जो कुम्बकोणम के पास तमिल नाडु में है) स्थान परिवर्तित किया । श्री श्रीधर अय्यवल उनके वेदपाठशाला में सहपाठी थे । उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा पारम्परिक विषयों में रामभद्र दीक्षितार से शाहजीपुरम में प्राप्त की ।
उनका विवाह १७ साल की उम्र में हो चूका था । पर वें जल्दी ही अपना घर छोड़ कर भाग गये। वे कभी घर वापस नहीं आये । घर छोड़ने के उपरांत वे अपने गुरु परमशिवेंद्र सरस्वती से मिले । इन गुरु का उल्लेख श्री ब्रह्मेन्द्र ने अपने सभी काव्यो – नवमणी माला और गुरु रत्न मालिका में किया हैं । उनके संन्यास धारण करने पण उनका नाम सदाशिवेंद्र सरस्वती पड़ा ।
गुरुदेव श्री परमशिवेंद्र सरस्वती की जीव समाधी तिरुवेंगडू के बुद्ध मंदिर के पास स्थित है । श्री स्वेदारण्येश्वर मंदिर तिरुवेंगडू के नागपट्टिनम जिले में स्थित है जो कुम्बकोणम से ५९ किलोमीटर पर है ।
श्री सदाशिव ब्रह्मेन्द्र को अपनी ज्ञान की तीव्रता तथा बुद्धिजीवी होने के कारन अपने सहपाठियों से तर्क करने का स्वाभाव था । इन तर्कों में अक्सर वे और विद्वानो को परास्त करने की क्षमता रखते थे । कुछ परास्त हुए विद्वान गुरु के पास जाकर अपना असंतोष व्यक्त करने लगे। तक गुरुदेव ने श्री ब्रह्मेन्द्र को बुलाकर उनसे पुछा ” तुम तो सबके मुख बंद कर देते हो पर तुम स्वयं कब चुप होगे?”
इस प्रश्न से प्रेरित होकर श्री ब्रह्मेन्द्र में एक बदलाव हुआ और उन्होंने आजीवन मौन व्रत धारण किया । उन्होंने अपने आप को जगत के भौतिकवाद के मायाजाल से मुक्त किया और साधना में लीन हो गए । उन्होंने साधारण व्यवहार के सभी मानदंडों को अस्वीकार किया ; यहाँ तक की वे निर्वस्त्र तथा लक्षहीन होकर कावेरी के किनारो की पहाड़िओ पर चलते रहते । जब किसीने उनके गुरुदेव से यह बात कही तब गुरुदेव का सिर्फ यही कहा था “जाने कब मै भी इतना भाग्यशाली बनु ?” गुरुदेव को यह पता चल चूका था कि अब उनका शिष्य मुक्ति प्राप्त कर चुका है ।
संन्यास लेने के पश्चात श्री ब्रह्मेन्द्र साधारणतः निष्प्रयोजन तथा वैराग्य में ही लीन रहने लगे । अक्सर लोग उन्हें मदमत्त कहने लगे । सदाशिव ब्रह्मेन्द्र की भेट तमिल नाडु के विद्वान कवि तथा तत्वज्ञानी श्री तायुमनावर (१७०५-१७४२) से १७३८ ईसवी में हुई । रघुनाथ राय तोंडाईमान (पुदुकोट्टई के राजा १७३०-१७६९) इस भेट के साक्षी हैं ।
सरस्वती महल के ग्रंथालय, तंजावुर में सदाशिव ब्रह्मेन्द्र के आशीर्वाद की शक्ति का प्रदर्शन करने वाला एक पत्र अभी तक सरंक्षित रखा गया है । यह पत्र अष्टविद्वान मल्लरी दीपम्बपुरी के पंडित ने राजा सराभोजी को लिखा था ।
श्री ब्रह्मेन्द्र ने अद्वैत वेदांतो पर अनेक पुस्तके लिखी है । जब उनकी भेट श्रीधर अय्यवल से हुई तब अय्यवल ने उन्हें कहा की वे उनके मौन से तो संतुष्ट है; परंतु परमेश्वर की स्तुति गाने से वे क्यों अपने आप को वंचित रखे हुए हैं ? इसके पश्चात ही श्री ब्रह्मेन्द्र ने कई काव्य लिखे जिनमे से केवल ३३ ही उपलब्ध हैं ।
चमत्कारिक घटनाएँ :-
अपने जीवन काल में श्री ब्रह्मेन्द्र को बोहोत से चटकारिक घटनाओं का उत्तरदायी मन जाता है। इनमे से कुछ घटनाएं निन्मलिखित है :-
१) कावेरी तात पर कुछ बच्चो ने उन्हें मदुरई ले जाने के लिए कहा । मदुरई वह से १०० मील पर है और वह एक वार्षिक समारोह हो रहा था । श्री ब्रह्मेन्द्र ने उन्हें अपनी आँखे बंद करने कहा और आँखे खोलने पर उन बच्चो ने अपने आप को मदुरई में पाया ।
२) एक बार कुछ अनाज के ढेरो के पास वें ध्यान में लीन थे। जिस किसान के खेत के पास वें ध्यान मग्न थे उस किसान ने चोर समझ कर श्री ब्रह्मेन्द्र को मरने के लिए अपनी लाठी उठाई । जैसे ही किसान प्रहार करता वो पत्थर में परिवर्तित हो गया और तब तक पथराया हुआ रहा जब तक संत का ध्यान पूरा नहीं हुआ । ध्यान पूर्ण होने पर वें उस किसान पे मुस्कुराए और किसान ने उनसे क्षमा याचना की ।
३) एक बार कावेरी तात पर ध्यान करते समय एक भीषण बाढ़ में वें बह गए । कुछ दिनों बाद उनका मृत देह लोगो को मिला। अचानक ही वे उठे और चल दिए ।
४) महाराज विजय रघुनाथ थोंडाईमान (१७३०-६८) ने संत की गाथा सुनी थी । महाराज ने आज्ञा दी की श्री ब्रह्मेन्द्र को महल में बुलाया जाये और उनका आदर सत्कार किया जाये । श्री ब्रह्मेन्द्र ने अपना मौन व्रत नहीं तोड़ा । महाराज ने तिरुवरनाकुलम में एक छावनी में सांता की सेवा की । ब्रह्मेन्द्र ने रेत पर श्री दक्षिणमूर्ति मंत्र लिखकर महाराज की प्रार्थना का उन्होंने श्री गोपालकृष्ण शास्त्री को राजमंत्री बनाने का सुझाव दिया। महाराज अपने अंगवस्त्रो में वह रेत अपने महल में ले गयें । इस स्थान को आज शिवज्ञानापुरम के नाम से जाना जाता है । यह स्थान अवुदायर कोइल ; पुदुकोट्टई जिले में स्थित है । इस रेत के ढेर की पूजा आज भी राजमहल से सदस्य करते है । अब यह रेत दक्षिणमूर्ति मंदिर में है जो राजमहल के अंदर स्थित है । यह मंदिर हर बृहस्पतिवार को भक्तो के लिए उपलब्ध है ।
गोपालकृष्ण शास्त्री संस्कृत के महान विद्वान थे और वह पुदुकोट्टई के राज गुरु भी बने । उनके वंशज १९४७ तक राजमहल के गुरु बने रहे । शास्त्री ने स्वयं अपनी वृद्धावस्था में वैराग्य धारण किया । नमनसमुद्रम में इनकी समाधी है । शास्त्री अपने व्याख्यात्मक निबंध – सब्ठिका चिंतामणि के लिए जाने जाते है । इस रचना में उन्होंने पाणिनि अष्टदायी का वर्णन किया है ।
५) कुछ वर्षो के बाद जब लोग उनकी यादें भूलने लगे थे; एक निर्वस्त्र सन्यासी किसी मुस्लमान नवाब के महलसराय से गुज़रते हुए दिखाई दिए । एक ब्रह्मा ज्ञानी को सिर्फ ब्राह्मण की दिखाई देता है इसलिए श्री ब्रह्मेन्द्र के पथ पर आने वाले लोगो में उन्होंने कभी कोई भेद भाव न किया । वें उस नवाब के महलसरे के एक छोर के दूसरी छोर तक चलते रहे । जब नवाब को पता चला तब उन्होंने इस सन्यासी को पकड़ने के लिए सेना भेजी । सैनानियों ने सन्यासी के दोनों हाथ काट दिए । हाथ काट जाने पर भी सन्यासी चलते रहे । नवाब में मन में दर पैदा हुआ और उन्होंने कटे हुए हाथ उठकर उस सन्यासी को अर्पित किया । अचानक कटे हुए हाथ जुड़ गए और सन्यासी चलते रहे। इस पूरी घटना के दौरान सन्यासी ने अपना मौन व्रत नहीं तोड़ा ।
६) सन १७३२ में जब सदाशिव ब्रह्मेन्द्र पुडुकोट्टई के जंगलो में घूम रहे थे तब कुछ सैनिको ने उन्हें बिना पहचाने अपने सिर पर कुछ लकड़ियाँ उठकर ले जाने कहा । श्री ब्रह्मेन्द्र में ख़ुशी ख़ुशी लकडिया उठा ली । जैसे ही उन्होंने लकडिया भूमी पर राखी, उन लकड़ियों में आग लग गई । अब उन सैनिको को यह पता लग गया की वे एक महात्मा थे।
७) श्री ब्रह्मेन्द्र का एक भक्त; जन्मा से ही मूक तथा अशिक्षित था । पर उसने गुरु की बोहोत सेवा की । एक दिन श्री ब्रह्मेन्द्र ने उसके सिर पर हाथ रखकर ज्ञान और वाणी प्राप्ति के लिए प्रार्थना की । इस प्रार्थना का असर ऐसा हुआ की वह भक्त बोलने लग गया और आकाश पुराण रामलिंग शास्त्री के नाम से जाना जाने लगा । २०वी सदी तक रामलिंग शास्त्री के परिवार जन नेरुर में रहते थे । इस घटना का उल्लेख श्री सदाशिवेंद्र स्तव (छंद २२ और २६ ) में किया गया है ।
मंदिरो की सूची :-
१) वें तिरुगोकर्णर शिव मंदिर में भगवती बृहदंबल के तीर्थस्थान पर अक्सर ध्यानमग्न रहते ; यह स्थान आज भी देखा जाता है
२) उन्होंने तंजावूर के पास पुंनैनल्लूर मरियम्मन में देवो को स्थापित करने में सहयोग दिया ।
३) उन्होंने थेनि, तमिल नाडु के पास देवदानपट्टी कामाक्षी मंदिर की स्थापना में योगदान किया ।
इन दोनों घटनाओं का उल्लेख एक तमिल चित्रपट – महाशक्ति मरियम्मन में किया गया है ।
४) उन्होंने प्रस्सन वेंकटेश्वर मंदिर जो नलु कल मंडपम , तंजावूर में है ; वहा हनुमान मूर्ति की स्थापना की ।
५) उन्होंने गणेश मूर्ति तथा गणेश यन्त्र की स्थापना थिरुनगेश्वरम् के राहु स्थलम मंदिर में कि. यह मंदिर कुम्बकोणम में है । इस मंदिर के शिलालेखो में इस घटना का वर्णन है। यह स्थल मंदिर के मुख्यद्वार पर है ।
६) श्री ब्रह्मेन्द्र ने जन अक्षरषन यन्त्र की स्थापना तँटोनदृमलै श्रीनिवास पेरुमल मंदिर , करूर में की। जो भक्त तिरुपति नहीं जा सकते वे यहाँ इस देव स्थान पर आकर पूजा अर्चना करते है ।
७ ) उन्होंने सिरुवाचूर मदुराकली मंदिर, पेरम्बलुर में श्री चक्र की स्थापना की ।
८) श्री सदाशिव ब्रहेन्द्र की पादुकाएँ , मोहनूर अचला दीपेश्वर शिव मंदिर में है । यह मंदिर करूर (नेरुर) से १८ किमी पर है ।
९) श्री ब्रह्मेन्द्र के सबसे आधुनिक चमत्कार का वर्णन इस कड़ी में किया गया है :-
यह अग्नीश्वर मंदिर, तिरुवल्लुर से जुड़ा है । नेरुर के शिव मंदिर का नाम भी अग्नीश्वर ही है । नेरुर शहर का नाम नेरुप्पूर यानी – अग्नि का शेहेर से उत्पन्न हुआ है ।
समाधी :-
तिरुवसैनाल्लुर छोड़कर श्री ब्रह्मेन्द्र नेरुर पोहोचे। यहाँ के मनमोहक वातावरण ध्यान मग्न होने के लिए उचित थे क्युकी यहाँ की नदी दक्षिण दिशा की और बहती है । दक्षिण मुखी नदी की तुलना काशी (बनारस) से की जा सकती है ।
वैशाख महीने की शुक्ल दशमी के दिन सन १७५५ ईसवी में श्री ब्रह्मेन्द्र ने महासमाधि प्राप्त की । उन्होंने समाधी से पहले ये कहा था की उनके समाधी के उपरान्त उस स्थान पर एक बेल वृक्ष की उपज होगी और १० दिन के उपरांत कोई उस स्थान से निर्धारित दूरी पर पर शिवलिंग स्थापित करेगा । और बिलकुल ऐसा ही हुआ । ऐसा कहा जाता है की उन्होंने ३ जगहों पर समाधी ली।
उनकी जीव समाधी का कुछ उल्लेख परमहंस योगनन्द ने “ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ अ योगी” – एक योगी की आत्मकथा में किया है। हर साल नेरुर तथा मनमदुरई में संगीत समारोह किया जाता है । मनमदुरई में उनकी समाधि सोमनाथर मंदिर में है जिसका स्पष्टीकरण कांची के परमाचार्यने किया था । १९१२ में एक सन्यासिन – लक्षार्चनैः स्वामिगल ने श्री ब्रह्मेन्द्र की आराधना नेरुर में शुरू की और ये आज तक काली आ रही है ।
कांची के संत शिवं सार :-
संत शिवं सार (श्री सदाशिव शास्त्रीगल ) कांची के परमाचार्य श्री चंद्रशेकरेंद्र सरस्वती के छोटे भाई थे । इन्होने हिन्दू धर्म पे एक प्रसिद्धा रचना “येनीपड़ीगलील मंथरगल “(तमिल) लिखी है ।
इस रचना के कई पृष्ठों में श्री ब्रह्मेन्द्र का वर्णन है । इसके अनुसार श्री ब्रह्मेन्द्र को ५ जगहों पर महासमाधि प्राप्त हुई जो ५ तत्वों का अनुरूप है –
- नेरुर
- मनमदुरई
- कराची
- काशी
- पुरी
शिवं सार यह कहते है की श्री ब्रह्मेन्द्र ने दो मुसलमान भाईयो को (इर्रतै मस्तान) दिव्या ज्ञान का आशीष दिया । इनकी समाधी (दरगाह) गांधी मार्ग तंजावूर में स्थित है ।
सदाशिव ब्रह्मेन्द्र के श्लोक :-
श्री श्री सच्चिदानंद शिवभनव नृसिंह भारती , जो श्रृंगेरी पीठ के प्रधान पुरोहित थे, उन्होंने श्री ब्रह्मेन्द्र स्तव तथा सदाशिवेंद्र पंचरत्न लिखे । एक और संत बालसुब्रमनिय यतीन्द्र में सदाशिव स्त्रोत्र लिखा ।
१८९०-१९१० के दौरान श्रृंगेरी आचार्य त्रिची के आसपास भ्रमण कर रहे थे । उनकी पालकी उठाने वालो के यह कहने पे की पालकी पर कोई सजक्ति प्रभाव कर रही है, वें नीचे उतरे और ध्यान करते हुए उस शक्ति की दिशा में चलते रहे. इस तरह वें श्री ब्रह्मेन्द्र के अधिस्थान पर पोहोचे । यहाँ वें ३ दिन तक बिना अन्ना जल ग्रहण किये ध्यान मग्न थे। इन ३ दिनों तक लोगो को आचार्य तथा किसी और के बात चीत की आवाज़े सुनाई पड़ती परन्तु वे देख नहीं पते की दूसरा व्यक्ति कौन है । आचार्य को यहाँ श्री ब्रह्मेन्द्र के दर्शन हुए और उन्होंने श्री ब्रह्मेन्द्र को अर्पित दो भजन लिखे ।
आध्यात्मिक रचनायें:-
ब्रह्मा स्तुति वृत्ति या ब्रह्मा तत्त्व प्रकाशिका
योग सुधाकर – पतंजलि के योग सूत्र का वर्णन
नव मणि माला – गुरुदेव को अर्पित
आत्मा विद्या विलास – ६२ छंद संस्कृत में जिनका मूल विषय है त्याग
सिद्धांत कल्पवल्ली – अद्वैत विचारधारा का वर्णन
केसरवल्ली – सिद्धांत कल्पवल्ली की व्याख्या
अद्वैत रास मंजिरी
शिवा मानस पूजा
दक्षिणमूर्ती ध्यान
नवा वार्ना रत्न माला – श्री दक्षिणम ऊर्त्य की व्याख्या जगत में एकमेव कारन के रूप में । ये सगुण नहीं निर्गुण है ।
मनो नियमन – मन का ध्यान ईश्वर की और खींचना
शिव योग दीपिका या शिव योग प्रदीपिका
सपर्य पर्याय स्तव – श्री ब्रह्मेन्द्र यहाँ बताते है की के साधारण पूजा नहीं कर पाते क्युकी ईश्वर निराकार है
परमहंस चर्या – इस पुस्तक में परमहंस सन्यासियों की आचार संहिता है
अद्वैत तारावली – २७ छंद २७ तारको के आधार पर
स्वप्नोदितम् – मुक्त जीवन का आधार
स्वानुभूति प्रकाशिका – अपनी स्वयं की जीविका
आत्मा अनुसंधान – श्री परम शिवेंद्र सरस्वती की वैदिक रचना – वेदांत नम रत्न सहश्रम ; ये उपनिषद् से ली गयी है और इसमें परमब्रह्म के १००० नाम है | साधारणतः केवल शिव या विष्णु के ही सहस्र नाम होते है पर श्री ब्रह्मेन्द्र भी २०० से अधिक नामो से जाने जाते है ।
भगवत संग्रह
सूत संहिता संग्रह
मनीषा पंचक व्याख्या (तात्पर्य दीपिका )
द्वादशा उपनिषद व्याख्या दीपिका
आत्मा-अनात्मा विवेक संग्रह
बोधार्य प्रकरण – श्री भवन नामा भोडेंड्रल ने भी इसी नाम से एक रचना लिखी है
सर्व वेदांत सार संग्रह
रत्न दीधिति
ब्रह्ममरित्तावार्सिनी
गीता रत्नमाला
कैवल्योपनिषद दीपिका
क्रम दीपिका
महा वयकर्ता साधना
श्री ब्रह्मेन्द्र ने अमृत बिंदु उपनिषद् की भी रचना की है
श्री शंकर माया पंचका की व्याख्या
मिममससस्त्रागुच्छ -पुर्वमिमम्स – धिकरणसंक्षेप
शंकर आत्मा पंचक – कारिका
हरि ॐ तत सत
लेखक – अवतारकृष्ण अग्निहोत्री