mmm हम मान सकते हैं कि किसी भी घटना या परिस्थिति के प्रति व्यक्ति के विचार करने अथवा निर्णय करने का कोण विशिष्ट ही रहेगा। बहुत कम संभावना है कि कोई व्यक्ति घटनाओं का निरपेक्ष अथवा साक्षी भाव से विश्लेषण कर पाए। कई बार तो तर्क भी इतना अधिक हावी होता है कि व्यक्ति निर्णय करने में अतितार्किक होकर सटीक निर्णय से भटक जाता है। ये कारण हमें बताते हैं कि कभी भी किसी भी स्थिति में लिए गए निर्णय को सौ प्रतिशत सही करार नहीं दिया जा सकता। हां, यह जरूर है कि निर्णयों की शृंखला हमें एक विशेष रास्ते की ओर लेकर जाती है। कई बार निर्णयों का परिणाम पूर्व में तय होता है तो कई बार बाद में इसके परिणाम सामने आते हैं। जो भी स्थिति हो, एक बार निर्णय लेने के बाद आगे की स्थिति के लिए हमें तैयार रहना होता है। उदाहरण के तौर पर पहला तो इस लेख को लिखने का निर्णय और बाद में इसे प्रकाशित करने का निर्णय। इसके आगे की स्थितियों के बारे में मैं खुद तय नहीं कर सकता कि पाठकों की इसके प्रति क्या प्रतिक्रिया होगी अथवा कोई इसे पढ़ेगा भी कि नहीं।
mmm हमारे निर्णयों के साथ साथ प्रकृति के खुद के निर्णय भी होते हैं। वे बिल्कुल प्राकृतिक होते हैं। हम कोई भी कार्य करते हैं तो वह कार्य संपन्न होने के साथ एक केओस (याद्रच्छिक अव्यवस्था) पैदा करता है। मानवीय या पशुवत व्यवहारों के इतर प्रकृति सृष्टि के कार्यों में न्यूनतम केओस पैदा करने की प्रवृत्ति होती है। यानी प्रकृति जो कार्य करेगी, उस कार्य का संतुलन इस प्रकार होगा कि अव्यवस्था कम से कम पैदा हो। जिन कारणों से हम अधिक केओस पैदा कर रहे हैं, उन कारणों को समेटते हुए प्रकृति स्वाभाविक रूप से संतुलन को बनाए रखती है। ऐसे में निर्णयों का टकराव एक नई व्यवस्था पैदा करता है।
mmm जो लोग ईश्वर को मानते हैं उनके अनुसार दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है वह सभी ईश्वर की इच्छा के अनुसार हो रहा है। ईश्वर ने सारी व्यवस्था पहले से निर्धारित कर रखी है। हम जो कुछ करते हैं, जिन परिस्थितियों का सामना करते हैं, जिन लोगों से मिलते हैं, जिन लोगों से स्नेह होता है, जिन लोगों से वैर होता है, सबकुछ पूर्व निर्धारित है। मेरा लेख लिखना और आपका मेरे ब्लॉग तक पहुंचकर पढ़ना महज संयोग नहीं बल्कि पूर्व निर्धारित है।
mmm जो लोग इच्छा स्वातंत्र्य (freedom of will) को मानते हैं उनके अनुसार या तो कुछ भी पूर्व निर्धारित नहीं है, अथवा पूर्व निर्धारित होने के बावजूद मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार परिस्थितियों को बदल सकता है। जो लोग ईश्वरवाद को मानते हैं और साथ ही इच्छा स्वतंत्रता के भी हामी हैं, उन्हें यह स्पष्ट नहीं है कि इच्छा कि कितनी स्वतंत्रता मिली हुई है। क्योंकि ईश्वर की बनाई सृष्टि जिसमें सबकुछ अगर पूर्व निर्धारित है तो सुई की नोक के बराबर का परिवर्तन भी कई युगों या शताब्दियों में बड़ा परिवर्तन पैदा कर सकता है। मसलन इच्छा स्वातंत्र्य को मानने वाला व्यक्ति किसी एक चूहे को मरने से बचा लेता है। वह चूहा किसी चुहिया के साथ मिलकर बाकी बचे जीवन में कई दर्जन बच्चे पैदा करता है। कई सौ सालों में पैदा होने और मरने के क्रम पूरे होने के बावजूद “ईश्वर की इच्छा के विपरीत” कई हजार या लाख चूहे अधिक मात्रा में बच जाएंगे, जो हर साल लाखों टन अनाज का सत्यानाश कर सकते हैं। नष्ट हुए अनाज का प्रभाव किसान, ट्रेडर, उपभोक्ता पर पड़ेगा। इस तरह पूरी व्यवस्था में प्रभावी बदलाव सिद्ध होगा। क्या ईश्वर अपनी व्यवस्था में इतना बड़ा छेद रहने देंगे?
विकल्प और छद्म विकल्प!!
बहुत बार लोगों को यह कहते हुए सुनता हूं कि मैंने फलां निर्णय लिया तो आज इस स्थिति में हूं। या फलां निर्णय लेता तो आज उस स्थिति में होता। दूसरी ओर यह भी कि ईश्वर को यही मंजूर था। हकीकत क्या है, निर्णय मैं लेता हूं या ईश्वर लेता है। यह एक पुराना और गंभीर सवाल है।
mmm पहली स्थिति पर गौर करते हैं जब मैं यह कहता हूं कि मैंने निर्णय लिया। इस स्थिति में मेरे पास निर्णय लेने के लिए विकल्पों की जरूरत होगी। एक सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म लेने के बाद मेरे पास तय विकल्प चुनाव की एक पूर्व निर्धारित शृंखला होने की संभावना बहुत अधिक होती है। अगर परिवार किसी व्यवसाय में लगा है तो मैं भी उसी व्यवसाय या वैसे ही किसी व्यवसाय के बारे में सोचूंगा और यदि परिवार के अधिकांश सदस्य नौकरीपेशा है तो मुझे जीवनयापन का वही सबसे सुरक्षित तरीका नजर आएगा। ऐसे में विकल्पों का सामना करने से बहुत पहले ही मेरी कंडीशनिंग हो चुकी होती है। यानी सोचने का तरीका पूर्व निर्धारित हो चुका होता है। किसी व्यक्ति विशेष की मानसिक कंडीशनिंग का कोई भी आधार हो सकता है। कई बार एक तो कई बार एक से अधिक आधार भी हो सकते हैं।
पारिवारिक मूल्यों के तौर पर
सामाजिक सम्बन्धों के जरिए
राजनैतिक परिदृश्य से उपजी
किसी बदले की भावना
प्रेम की अवस्था से
धार्मिक विश्वास के कारण
आर्थिक स्थिति से प्रभावित
अथवा किसी भी प्रकार की तीव्र अथवा नाजुक भावनाएं
mmm अब वापस आते हैं विकल्प की ओर, क्या हम विकल्प का चुनाव करने के लिए इतने आजाद हैं कि पूर्व निर्धारित व्यवस्था को ध्वंस करने जितने बड़े निर्णय कर सकें। यदि हां, तो प्रकृति की नैसर्गिक व्यवस्था कैसे बनी रहेगी। अगर हम विकल्प चुनने के लिए आजाद नहीं है तो क्या हम छद्म विकल्पों का चुनाव कर रहे हैं। mmm