याद आई फैशन परेड

    पिछले दिनों मेरे नानीजी श्रीमती राधादेवी हर्ष जयपुर से बीकानेर आई। अपने आवश्‍यक काम निपटाने के दौरान एक दिन मुझे पुराने घर बुलाया और मुझे एक शर्ट दिया। लाल चौकड़ी वाला। यह शर्ट मैं दूसरी या तीसरी कक्षा में  पहनता था। मैंने मुस्‍कुराते हुए पूछा ये फैशन परेड के लिए है क्‍या ?

    तो नानीजी भी हंस पड़ी बोली तुम्‍हें नहीं दे रही, कान्‍हे की मां को दे देना। यह सामान्‍य काम था। मोटरसाइकिल में शर्ट की थैली को अटका लिया। घर आया तो याद आया कि शर्ट पड़ा है। मैंने बताया कि कान्‍हे के लिए नानीजी ने कोई शर्ट भेजा है वह मेरा पुराना शर्ट है। कान्‍हे की मां दौड़ी- दौड़ी बाहर गई और शर्ट ले आई। हाथों-हाथ कान्‍हे को पहनाकर दिखाया। उस समय कान्‍हे और उसकी मां की आंखों की चमक देखने लायक थी। पता नहीं पुरुष हूं इसलिए या मूढ हूं इसलिए, मुझे कभी समझ नहीं आया कि पुराना शर्ट कुतूहल कैसे पैदा कर सकता है। जो भी हो मुझे अपनी फैशन परेड याद आ गई।

    फैशन टीवी के जमाने से बहुत साल पहले मेरे घर में फैशन परेड का जमाना आ गया था। साल में दो बार यह परेड होती। रंगबिरंगे कपड़े, जमा जमाया रैम्‍प और केवल जज। हां जी जितने दर्शक होते उतने ही जज होते। एकाध आया-गया भी अपनी राय जरूर भेंट चढ़ा जाता। बस तकलीफ तब होती जब अनफिट कपड़ों में हमें फिट करने का प्रयास किया जाता। सर्दियां खत्‍म होकर गर्मियां शुरु हो या गर्मियां खत्‍म होकर सर्दियां शुरू हो। नानीजी पुराने कपड़े निकालकर बैठ जाती और मुझे और भाई आनन्‍द को एक एक कर आवाज देती। बीते मौसम में कम बार पहने हुए कपड़े, मामा के कपड़े और मामा के मामा के कपड़े और कई साल पहले सिलाई हुए कपड़े। सब एक जगह पड़े होते। पैंट की हाफपेंट बनती और शर्ट की बंडी। कुल मिलाकर कपड़ों में हमें फिट किया जाता। अब ये कपड़े दुरुस्‍त भी लग रहे हैं या नहीं इसे देखने के लिए अन्‍दर वाले कमरे से आंगन पार करते हुए गैलेरी तक चलना होता और वहां से लौटना होता। ड्रेस डिजाइन, कांबिनेशन, लैंथ, चालू फैशन को किसी तरह मैच करने का प्रयास किया जाता। गर्मी की छुट्टियों में नानीजी (जो खुद अध्‍यापिका थी) हमारी तरह पूरी तरह फ्री होती। तो, किसी भी सुबह यह क्रम शुरू हो जाता और अगले कई दिन तक जारी रहता। इस दौरान जा पहचान के लोग, रिश्‍तेदार और मामाओं के दोस्‍त तक मिलने के लिए आते। हर किसी की अपनी राय होती। किसी को रंग की फिक्र होती तो किसी को डिजाइन की, कोई कांबिनेशन पर ध्‍यान देता तो कोई बचत के प्रति जागरुक दिखाई देता। पचासों ड्रेस ट्राई करने के बाद पांच-सात ड्रेस ऐसी होती जिनको कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के लिए रख लिया जाता और अधिकतम राय जुटाने के प्रयास किए जाते। इसी क्रम में सात ड्रेस को उनचास बार पहनकर दिखाना पड़ता और रैम्‍प वही रहता। अन्‍दर वाले कमरे से आंगन पार करते हुए गैलेरी तक। कई दिनों तक चलने वाले इस क्रम में अगर हम दोनों में से कोई ‘बागी’ हो जाता तो उसकी खैर नहीं। नानीजी झल्‍ला जाते। कहते मैं इतनी मेहनत से इन बच्‍चों के लिए यह काम कर रही हूं और इन्‍हें कदर ही नहीं है। हम हारकर फिर से परेड में जुट जाते।

     

    हमारी बगिया में खिला एक और सुंदर फूल

    <KENOX S760  / Samsung S760>

    मुझे इसका नाम पता नहीं है। यह आकार में काफी छोटा है और हमारा माली इसे फुलवारी कहता है। किसी को पता हो तो बताने की कृपा करें।