भारत की काल गणना

bhartiya kaal भारतीय काल गणना

भारत में देश-काल की गणना कई प्रकार की थी तथा बहुत सूक्ष्म थी। आज भी काल का अर्थ तथा उसकी माप रहस्यमय है। भारत में ४ प्रकार के काल, ९ प्रकार के कालमान तथा ७ प्रकार के युग हैं। देश की माप के लिये ७ प्रकार के योजन थे तथा आकाश के लोकों की माप में जो शुद्धता थी वह अभी तक नहीं हो पायी है। मात्रा की माप भी थी, जिसका आकाश के सम्बन्ध में उल्लेख है। इसके अतिरिक्त कई सूक्ष्म माप भी हैं। काल माप में अवधि की माप तथा क्रमागत कालगणना की तथा युग चक्रों की गणना थी। यहां मुख्यतः कालगणना की सभी विधियां वर्णित की जायेंगी।

१. काल की परिभाषा

दर्शनों में काल की कई परिभाषा दी गयी हैं। उनका सारांश है- परिवर्तन का आभास काल है।

किसी वस्तु या विश्व को पुरुष कहते हैं-जिसके दो अर्थ हैं। पूरा विश्व चेतन पदार्थ है, तथा सभी अंग एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। इस अर्थ में एक ही ब्रह्म है।

पुरुष को ४ रूपों में देखते हैं-१. क्षर पुरुष- बाह्य भौतिक रूप का हमेशा क्षरण होता रहता है।

२. अक्षर पुरुष-सर्वदा बदलने पर भी किसी वस्तु का नाम, कर्म रूप में अदृश्य (कूटस्थ) परिचय वही रहता है। वह क्षर पुरुष है।

३. अव्यय पुरुष-किसी संहति के अंश रूप में पुरुष में कोई परिवर्तन नहीं होता, एक भाग में जितना कम होता है, दूसरे भाग में वह बढ़ जाता है। इसे अव्यय पुरुष कहते हैं।

४. परात्पर पुरुष-बहुत सूक्ष्म या बहुत बड़े स्तर का अनुभव नहीं होता या वर्णन नहीं हो सकता। यह परात्पर पुरुष है।

गीता, अध्याय १५-

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१६॥
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥१७॥
अजोऽपि अन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। (गीता ४/६)

इनके काल हैं-नित्य, जन्य, अक्षय, परात्पर।

नित्य काल सदा लोकों (व्यक्ति या विश्व) का क्षरण करता है। एक बार जो स्थिति चली गयी, वह वापस नहीं आती। बच्चा बूढ़ा हो सकता है, वापस बच्चा नहीं हो सकता। अतः इस काल को मृत्यु भी कहते हैं। इसकी गणना नहीं होती।

जन्य काल-परिवर्तन सदा एक ही दिशा में होता है पर कुछ प्राकृतिक घटना प्रायः चक्रीय क्रम में होती हैं, जैसे दिन-रात, मास, वर्ष। इनके मान में भी सूक्ष्म अन्तर होता है, पर व्यवहार में इनको स्थिर मान लेते हैं। प्रायः इसी के समान चक्रों में हमारा यज्ञ चलता है। जैसे कृषि यज्ञ वार्षिक ऋतु चक्र में होता है। मूल यज्ञ यही है जिसके लिये गीता में कहा है कि यज्ञ से पर्जन्य और पर्जन्य से अन्न होता है।

इसी के अनुरूप ज्ञान यज्ञ (विद्यालय सत्र), द्रव्य यज्ञ (वित्त वर्ष) आदि भी वार्षिक चक्र में होते हैं। इन चक्रों से तुलना कर समय अवधि की माप होती है। जैसे वर्ष, मास, दिन या उसके अंश रूप घण्टा, मिनट, सेकण्ड की माप। यज उत्पादन (जनन) चक्र की माप है, अतः इसे जन्य काल कहते हैं। इसकी माप और गणना होती है, अतः इसे कलनात्मक काल कहते हैं। इसमें अन्य गणनाओं की तुलना में एक कठिनाई है। यान्त्रिक गति दर्शक के अनुसार बदलती रहती है। पर प्रकाश की गति सदा एक जैसी रहती है। हम दोनों को एक ही मान कर गणना करते हैं जो सही नहीं है, पर हमारे पास इसके समाधान का उपाय नहीं है। अतः भगवान् ने गीता में अपने को गणनाओं में काल कहा है (सबसे रहस्यमय गणना)।

अक्षय काल-अव्यय पुरुष या पूर्ण संहति को देखें तो कोई परिवर्तन नहीं होता। कुछ चीजें मिलकर नया रूप बनाती हैं, कुछ पुनः नष्ट हो जाती हैं। इनको सांख्य में सञ्चर-प्रतिसञ्चर या वेद में सम्भूति-विनाश कहा है। इसी चक्र में संसार चल रहा है अतः इसे धाता और विश्वतोमुख कहा है।

परात्पर काल-बहुत सूक्ष्म या बहुत बड़े स्तर का अनुभव मशीन द्वारा भी नहीं हो सकता। उसमें भी कुछ परिवर्तन होता है। वह परात्पर काल है। इसका कोई वर्णन नहीं है। बाकी के कुछ सन्दर्भ दिये जाते हैं।

  • कालोऽस्मि लोक क्षयकृत्प्रवृद्धो, लोकान् समाहर्तुमिहप्रवृत्तः। । (गीता १०/३२)
  • कालः कलयतामहम् । (गीता १०/३०), अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः (गीता १०/३३)
  • सांख्य तत्त्व समास, ६-सञ्चरः प्रतिसञ्चरः।
  • ईशावास्योपनिषद्, १४-सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयं सह, विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्यामृतमश्नुते॥
  • सूर्य सिद्धान्त (१/१०) में २ प्रकार के काल कहे गये हैं-अन्तकृत् या नित्य काल, कलनात्मक या जन्य।
  • लोकानामन्तकृत् कालः कालोऽन्यः कलनात्मकः। स द्विधा स्थूल सूक्ष्मत्वात् मूर्तश्चामूर्त उच्यते॥१०॥
  • काल का वर्णन भागवत पुराण, स्कन्ध ३, अध्याय ११ तथा अथर्ववेद, शौनक शाखा, काण्ड १९, सूक्त ५३, ५४ में है।

२. कालमान

सूर्य सिद्धान्त (१४/१) के अनुसार ९ प्रकार के काल हैं-

ब्राह्मं पित्र्यं तथा दिव्यं प्राजापत्यं च गौरवम्। सौरं सावनं चान्द्रमार्क्षं मानानि वै नव॥

बड़े मान से आरम्भ कर इनका क्रम है-ब्राह्म, प्राजापत्य, दिव्य, गुरु, चान्द्र, सौर, सावन, नाक्षत्र।

ये सभी कलनात्मक होने के कारण जन्य काल हैं, अतः सृष्टि के ९ सर्गों के अनुसार हैं। सभी सर्गों की निर्माण अवस्था १ -१ मेघ है, अतः बाइबिल में ९ मेघ कहे गये हैं। विष्णु पुराण (१/५/१९-२५) के अनुसार ९ सर्ग हैं-

  • प्राकृत-१. महत्तत्त्व, २. तन्मात्रा, ३. वैकारिक (इन्द्रिय सम्बन्धी) ।
  • वैकृत-४. मुख्य (पर्वत, वृक्ष आदि स्थावर), ५. तिर्यक् स्रोत (कीट पतङ्ग आदि), ६. ऊर्ध्व स्रोत (देव सर्ग), ७. अर्वाक् स्रोत (मनुष्य सर्ग), अनुग्रह सर्ग (सात्विक और तामसिक) ।
  • प्राकृत तथा वैकृत-९. कौमार सर्ग।

भागवत पुराण में अव्यक्त को मिलाकर १० सर्ग कहे गये हैं। अव्यक्त का काल परात्पर है, अतः इसका वर्णन नहीं होता।

कालमानों का इन सर्गों से तुलना कठिन है, पर आकाश के निर्माण क्रमों से इनका सम्बन्ध समझा जा सकता है-

ब्राह्म-दृश्य जगत् की सीमा। प्राजापत्य-ब्रह्माण्ड का अक्ष भ्रमण। दिव्य-सौर मण्डल की नक्षत्र कक्षा। गुरु-सबसे बड़े गुरु ग्रह की कक्षा। चान्द्र-चन्द्र परिक्रमा के बराबर दिन। सौर-सूर्य का प्रत्यक्ष भ्रमण, १ अंश काल १ दिन, आदि। सावन-पृथ्वी का अक्ष-भ्रमण तथा १ दिन की सौर गति का योग। नाक्षत्र-पृथ्वी का अक्ष-भ्रमण। विस्तृत वर्णन दिया जाता है-

() ब्राह्म

अव्यक्त से व्यक्त की सृष्टि को ब्रह्मा का दिन तथा उसके लय को रात्रि कहा गया है-

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद् ब्रह्मणो विदुः। रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः॥१७॥
अव्यक्ताद् व्यक्ताय्ः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे। रात्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥१८॥ (गीता, अध्याय ८)

पुराणों और सूर्य-सिद्धान्त के अनुसार १२,००० दिव्य वर्षों का युग होता है। एक दिव्य वर्ष ३६० सौर वर्षों का है। अतः ब्रह्मा का दिन या कल्प = १००० युग = १००० x ३६० x १२००० = ४३२ कोटि वर्ष।

उतने ही मान की रात्रि है। आधुनिक भौतिक विज्ञान के अनुसार दृश्य जगत् की सीमा प्रायः उतनी ही है जितनी दूर तक ब्रह्मा के अहो-रात्र में प्रकाश जा सकता है, अर्थात् ८६४ कोटि प्रकाश वर्ष त्रिज्या का क्षेत्र। ब्रह्मा के अहोरात्र मान से ३० दिनों का मास, १२ मासों का वर्ष तथा १०० वर्ष की परमायु है। अर्थात् ब्रह्मा की आयु ७२,००० कल्प है-

= ७२००० x ४३२ x १० x ३६० = प्रायः १.१२ x १०१७ दिन।

ज्योतिष में कल्प तक की ही गणना की जाती है। केवल वटेश्वर सिद्धान्त में मन्दोच्चगति की गणना ब्रह्मा के १०० वर्षों में की है। ब्रह्मा की आयु में १ परार्ध दिन होते हैं, अतः उसे या उसके आधे भाग को परार्ध कहते हैं। अभी ब्रह्मा का परार्ध या ५० वर्ष पूर्ण हो चुके है, ५१ वें वर्ष का प्रथम कल्प श्वेतवराह चल रहा है, जिसमें ६ मन्वन्तर बीत चुके हैं, ७ वें मे २७ युग बीत चुके हैं, २८वें का कलियुग १७-२-३१०२ ई.पू. में आरम्भ हुआ। ब्रह्मा से बड़े काल मान विष्णु, शिव तथा पराशक्ति के हैं-

विष्णु पुराण, अध्याय (१/३)

  • काष्ठा पञ्चदशाख्याता निमेषा मुनिसत्तम। काष्ठास्त्रिंशत्कला त्रिंशत्कला मौहूर्तिको विधिः॥८॥
  • तावत्संख्यैरहोरात्रं मुहूर्त्तैर्मानुषं स्मृतम्। अहोरात्राणि तावन्ति मासः पक्षद्वयात्मकः॥९॥
  • तैः षड्भिरयनं वर्षं द्वेऽयने दक्षिणोत्तरे। अयनं दक्षिणं रात्रिर्देवानामुत्तरं दिनम्॥।१०॥
  • दिव्यैर्वर्षसहस्रैस्तु कृतत्रेतादिसंज्ञितम्। चतुर्युगं द्वादशभिस्तद् विभागं निबोध मे॥११॥
  • प्रोच्यते तत्सहस्रं च ब्रह्मणो दिवसं मुने॥१५॥ ब्रह्मणो दिवसे ब्रह्मन्मनवस्तु चतुर्दश॥१६॥
  • ब्राह्मो नैमित्तिको नाम तस्यान्ते प्रतिसञ्चरः॥२२॥
  • अध्याय (६/५) द्विपरार्धात्मकः कालः कथितो यो मया तव। तदहस्तस्य मैत्रेय विष्णोरीशस्य कथ्यते॥४७॥
  • व्यक्ते च प्रकृतौ लीने प्रकृत्यापुरुषे तथा। तत्र स्थिते निशा चास्य तत्प्रमाणा महामुने॥४८॥

बृहत् पाराशर स्मृति (१२/१८८-१९१)

  • तदेकसप्ततिगुणं मन्वन्तरमितिस्मृतम्। मन्वन्तरद्वयेनेह शक्रपातः प्रकीर्तितः॥
  • एतन्मानेनवर्षाणां शतं ब्रह्मक्षयः स्मृतः। ब्रह्मक्षयशतेनापि विष्णोरेकमहर्भवेत्॥
  • एतद्दिवसमानेन शतवर्षेण तत् क्षयः। तत्क्षयस्त्रिगुणोऽष्टाभी रुद्रस्य त्रुटिरुच्यते॥
  • एवमाब्दिकमानेन प्रयातेऽब्दशते द्विजाः। रुद्रश्चात्मनि लीयेत निरालम्बे निरामये॥
  • देवीमीमांसा भाष्य, उत्पत्तिपाद, सूत्र ४-चतुर्युगसहस्राणि दिनं पैतामहं भवेत्।
  • पितामहसहस्राणि विष्णोश्च घटिका मता। विष्णोर्द्वादशलक्षाणि कलार्धं रौद्रमुच्यते॥
  • शक्ति रहस्य-चतुर्युगसहस्राणि ब्रह्मणो दिनमुच्यते। पितामहसहस्राणि विष्णोरेका घटी मता॥
  • विष्णोर्द्वादशलक्षाणि निमेषार्धं महेशितुः। दशकोट्यो महेशानां श्रीमातुस्त्रुटिरूपकाः॥

(२) प्राजापत्य

ब्रह्म का क्रियात्मक रूप प्रजापति कहते हैं। मनुष्य रूप में प्रजा का पालन करनेवाला राजा भी प्रजापति है। आकाश में यज्ञ या निर्माण कार्य ब्रह्माण्ड के निर्माण से हुआ। उसका चक्र-भ्रमण ही ब्रह्माण्ड का प्रथम यज्ञ है। अतः यह प्राजापत्य काल हुआ। ब्रह्माण्ड विराट् मन की सबसे बड़ी प्रतिमा है, अतः इसे मनु तत्त्व कहते हैं। इसका अक्ष-भ्रमण मन्वन्तर है। ब्रह्माण्ड मन की प्रतिमा हमारा मन है जिसके कण (कोषिका) की संख्या उतनी ही (१०११) है जितनी ब्रह्माण्ड के कण (तारा)। व्यक्ति में भी वही मनु तत्त्व होने के कारण उसे मनुष्य कहते हैं।

गीता, अध्याय ३-

  • सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरो वाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥१०॥
  • प्रजापतिर्वै मनुः स हीदं सर्वममनुत। (शतपथ ब्राह्मण ६/६/१/१९)
  • य एव मनुष्याणां मनुष्यत्वं वेद। मनस्येव भवति। नैनं मनुः(मननशक्तिरिति सायणः) जहाति।(तैत्तिरीय ब्राह्मण २/३/८/३)
  • मनुर्यज्ञ ऽइत्यु वा ऽआहुः। (शतपथ ब्राह्मण १/५/१/७)

पुराणों के अनुसार ब्रह्मा के दिन में १४ मन्वन्तर हैं। अतः

१ मन्वन्तर = १००० युग/१४ = ७१.४३ युग।

गणना में हम १ मन्वन्तर = ७१ युग लेते हैं। ६ युग बचते हैं जिनको हम १५ सन्ध्या में बांट देते हैं, जो दो मनु के बीच का सन्धिकाल हैं तथा मन्वन्तर के आरम्भ और अन्त में आते हैं।

प्रत्येक सन्धिकाल = ६/१५ = ४/१० युग। युग के १० भाग करने पर उसके ४ खण्ड सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि क्रमशः ४, ३, २, १ भाग हैं। अतः प्रत्येक सत्य युग = ४/१० युग, जो मन्वन्तरों के बीच की सन्ध्या हैं। अतः

१ मन्वन्तर = ७१ युग = ७१ x ४३२०००० = ३१,६८,००,००० वर्ष।

आधुनिक मान से भी ब्रह्माण्ड का अक्ष-भ्रमण काल प्रायः इतना ही ३२ कोटि वर्ष होना चाहिये। केन्द्रसे २/३ त्रिज्या दूरी पर सूर्य ब्रह्माण्ड केन्द्र की परिक्रमा प्रायः २०-२५ कोटि वर्ष में करता है, बाहरी भाग का परिभ्रमण धीमा होगा तथा प्रायः ३२ कोटि वर्ष होना चाहिये।

आर्यभट ने स्वायम्भुव मनु की परम्परा में कल्प तथा युग दोनों के समान विभाग माने हैं। इसमें युग वही है ४३,२०, ००० वर्ष पर उसके ४ समान विभाग हैं-सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि-प्रत्येक का मान १०,८०,००० वर्ष है। प्रति मन्वन्तर भी ७१.४३ के बदले पूर्ण ७२ युग का लिया है, अतः १ कल्प = ७२ x १४ =१००८ युग। वटेश्वर ने भी यही मन्वन्तर तथा कल्प माना है।

काहो मनवो ढ, मनुयुगा श्ख। (आर्यभटीय १/५)

  • = क= ब्रह्मा के अहः में मनु ढ =१४ हैं, मनु में युग = श्ख =७०+२ = ७२ हैं।
  • दन्ताब्धयोऽयुतहता (४३,२०,०००) युगमर्क (वर्षा दस्राद्रयो ७२) युगगणा मनुरेक उक्तः।
  • कल्पाश्चतुर्दश मनुर्द्युनिशं च तौद्वौ कस्य स्ववर्षशतमत्र तदायुरुक्तम्॥ (वटेश्वर सिद्धान्त १/९)

= ४३२०००० वर्ष का युग, ७२ युग का १ मनु हैं, १४ मनु का ब्रह्म के दिन तथा रात्रि हैं, इस अहोरात्र मान से १०० वर्ष ब्रह्मा की आयु है।

(३) दिव्य मान

सूर्य के उत्तरायण-दक्षिणायन गति चक्र या वर्ष (ऋतु वर्ष) को दिव्य दिन कहते हैं। ऐसे ६० दिव्य दिन अर्थात् ३६० सौर वर्ष का दिव्य वर्ष होगा। यह ३ प्रकार से परिभाषित है-

वायु पुराण के २८ व्यासों की सूची में इसे परिवर्त युग कहा गया है, अर्थात् यह ऐतिहासिक परिवर्तन का चक्र है। १०० कोटि योजन के लोकालोक भाग की सीमा पर यदि कोई काल्पनिक ग्रह हो तो उसका परिभ्रमण काल भी प्रायः ३६० वर्ष होगा। केप्लर सिद्धान्त के अनुसार इसकी त्रिज्या = (३६०) २/३ = ५०.६०६ ज्योतिषीय इकाई , अर्थात् ११८.६१ कोटि योजन व्यास होगा। इस नियम के अनुसार परिभ्रमण काल का वर्ग, ग्रह की दूरी (बृहद् अक्ष) के घन के अनुपात में होता है। तीसरा अर्थ है कि सूर्य की उत्तर-दक्षिण गति को ही दिव्य दिन कहते हैं जैसे उदय-अस्त का चक्र दिन कहलाता है। पुराण तथा ज्योतिष ग्रन्थों में उत्तरायण को देवों का दिन तथा असुरों की रात्रि कही गयी है (उद्धरण ब्राह्म मान में हैं), अतः ३६० दिनों के सावन वर्ष की तरह ३६० दिव्य दिनों का दिव्य वर्ष होगा।

(४) गुरु मान

गुरु ग्रह १२ वर्ष में सूर्य की १ परिक्रमा करता है। मध्यम गुरु १ राशि जितने समय में पार करता है वह ३६०.०४८६ दिन (सूर्य सिद्धान्त, अध्याय १४) का गुरु वर्ष कहा जाता है। दक्षिण भारत में पैतामह सिद्धान्त के अनुसार सौर वर्ष को ही गुरु वर्ष कहा गया है। रामदीन पण्डित द्वारा संग्रहीत-बृहद्दैवज्ञरञ्जनम्, अध्याय ४-

नारदः-गृह्यते सौरमानेन प्रभवाद्यब्दलक्षणम्॥१॥ वेदाङ्ग ज्योतिषे-माघशुक्ल प्रपन्नस्य पौषकृष्ण समापिनः। इति चान्द्रमासेन प्रभवादि सम्वत्सराणां प्रवृत्तिरुक्ता। भानुघ्नभागादि समैरहोभिस्तस्य प्रवृत्तिः प्रथमं क्रियात्स्यात्। इत्यनेन क्वचित्सौरमानेनोक्ता। इति त्रिधा प्रभवादि षष्टिसम्वत्सराणां प्रवृत्तिर्दृश्यते, तत्र साधु पक्षो विचार्यते। अत्र प्रभवादि प्रवृत्तिः बार्हस्पत्यमानेनैव शोभना। तदाह सूर्य सिद्धान्ते-मानान्तरं तदा पूर्वक बार्हस्पत्य मानेनैव षष्ट्यब्द गणनोक्तेति तत्र।  द्रष्टव्यम्-यथा-बार्हस्पत्येन षष्ट्यब्दं ज्ञेयं  नान्यैस्तु नित्यशः॥२॥ लघुवसिष्ठसिद्धान्ते-मध्यगत्या भभोगेन गुरोर्गौरव वत्सराः॥३॥ भास्कराचार्योऽपि-बृहस्पतेर्मध्यमराशिभोगं साम्वत्सरं सांहितिका वदन्ति॥ अनेन मध्यमगुरु राशिपूरण समय एव प्रभवादि षष्ट्यब्द प्रवृत्तिरिति सूचितम्। फलनिर्देशस्तु गुरुमानोत्पन्न प्रभवादि सम्वत्सराणामित्येवाह। वसिष्ठोऽपि-षष्ट्यब्दजन्मप्रभवादिकाना फलं च सर्वं गुरुमानतः स्यात्॥४॥ इति वेदाङ्गज्योतिषवचनं तु ततोऽन्यविषयं यदाह गर्गः-माघशुक्लं समारभ्य चन्द्रार्कौ वासवर्क्षगौ। जीवशुक्लौ यदा स्यातां षष्ट्यब्दादिस्तदा भवेत्॥५॥ श्रीपतिः-इयं हि षष्टिः परिवत्सराणां बृहस्पतेर्मध्यमराशि भोगात्। उदाहृता पूर्वमुनि प्रवीणैर्नियोजनीया गणना क्रमेण॥६। तपसि खलु  यदासावुद्गमं याति मासि प्रथमलवगतः सन् वासवे वासवेज्यः। निखिलजनहितार्थं वर्षवृन्दे वरिष्ठः प्रभव इति स नाम्ना  जायतेब्दस्तदानीम्॥७॥ तृतीयपक्षस्तु फलाभावादुपेक्ष्य इत्युपरम्यते। वराहः-आद्यं धनिष्ठांशमभिप्रवृत्तो माघे यदा यात्युदयं सुरेज्यः। षष्ट्यब्दपूर्वः प्रभवः स नाम्ना प्रपद्यते भूतहितस्तदाब्दः॥८॥ पैतामह सिद्धान्ते-प्रमाथी प्रथमं वर्षं कल्पादौ ब्रह्मणा  स्मृतम्। तदा हि षष्टिहृच्छाके शेषं चान्द्रोऽत्र वत्सरः॥९॥ व्यावहारिकसंज्ञोऽयं कालः स्मृत्यादिकर्मसु। योज्यः सर्वत्र तत्रापि जैवो वा नर्मदोत्तरे॥१०॥ आर्ष्टिषेणिः-स्मरेत्सर्वत्र कर्मादौ चान्द्रसम्वत्सरं तदा। नान्यं यस्माद्वत्सरादौ प्रवृत्तिस्तस्य कीर्तिता॥११॥ मकरन्दे-द्विवेदपञ्चेन्दुविहीनशाके ग्रहाग्रहाणां  दशयुक्त्रिभागः। लवा ग्रहाः स्वीयदिगंशहीना लिप्ता विलिप्ता रसकुञ्जराङ्गम्। तष्टानि खाङ्गैर्भवनानि भूमि युतानि शुक्लादिह वत्सरः स्यात्। भानुघ्नभागादिसमैरहोभिस्तस्य प्रवृत्तिः  प्रथमं क्रियात्स्यात्॥१३॥

() सौर मान

सूर्य की १ अंश गति १ दिन, ३० अंश (१ राशि) गति १ मास तथा ३६० अंश गति (पूर्ण भगण या चक्र) १ सौर वर्ष होता है। इस प्रकार केवल सौर वर्ष तथा सौर मास की गणना होती है। सौर मास के अनुसार ही ऋतु की गणना होती है। यह ऋतु वर्ष है, जो नाक्षत्र सौर वर्ष से थोड़ा कम होता है, क्योंकि पृथ्वी का अक्ष शंकु अकार में २६,००० वर्षों में विपरीत गति से घूम रहा है। इस चक्र को ब्रह्माण्ड पुराण में मन्वन्तर कहा गया है। ऋतु वर्ष के ही भागों को ऋतु कहा गया है जो दीर्घकालिक अन्तर को छोड़ देने पर सौर संक्रान्ति (राशि परिवर्तन) से आधारित होता है। २-२ सौर मास की १ ऋतु, ३ ऋतु या ६ मास का १ अयन है। इन सौर मासों के नाम हैं-

  • मधुश्चमाधवश्च, शुक्रश्च शुचिश्च, नभश्च, नभस्यश्च, ईषश्चोर्जश्च, सहश्चसहस्यश्च, तपश्च तपस्यश्चोपयाम गृहीतोऽसि संसर्पोऽस्यहंस्पत्याय त्वा॥ (तैत्तिरीय संहिता १/४/१४)
  • मधुश्चमाधवश्च वासन्तिकावृतू। शुक्रश्च शुचिश्च ग्रैष्मावृतू। नभश्च, नभस्यश्च वार्षिकावृतू। ईषश्चोर्जश्च शारदावृतू। सहश्च सहस्यश्च हैमन्तिकावृतू। तपश्च तपस्यश्च शैशिरावृतू॥ (तैत्तिरीय संहिता ४/४/११)

वर्ष में ५ या ३ ऋतुओं के विभाजन भी सौर मास के ही आधार पर हैं-

द्वादशमासाः पञ्चर्तवो हेमन्तशिशिरयोः समासेन। (ऐतरेय ब्राह्मण १/१)

६-६ मास के उत्तर दक्षिण अयन-२६००० वर्षों के अयन चक्र के कारण इनका आरम्भ काल धीरे धीरे बदलता है-

प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्। सार्पार्धे दक्षिणार्कस्तु माघश्रावणयोः सदा॥ (याजुष ज्योतिष ७, ऋक् ज्योतिष ६)

वराहमिहिर काल में-बृहत् संहिता (३/१-२)-

  • आश्लेषार्द्धाद्दक्षिणमुत्तरमयनं रवेर्धनिष्ठाद्यम्।
  • नूनं कदाचिदासिद्येनोक्तं पूर्वशास्त्रेषु॥१॥
  • साम्प्रतमयनं सवितुः कर्कटकाद्यं मृगादितश्चान्यत्। उक्ताभावो विकृतिः प्रत्यक्षपरीक्षणैर्व्यक्तिः॥२॥

= प्राचीन पुस्तकों में आश्लेषा मध्य (११३२०’) से तथा दक्षिणायन आरम्भ धनिष्ठा से कहा है, अब यह कर्क (९०) तथा मकर राशियों से होता है, जो वेध द्वारा आसानी से जांच कर सकते हैं।

पञ्चसिद्धान्तिका, अध्याय ३ (पौलिश सिद्धान्त)-

  • अर्केन्दुयोगचक्रे वैधृतमुक्तं दशर्क्ष सहिते (तु) । यदि च (क्रं) व्यतिपातो वेला मृग्या (युतैः भोगैः॥२०॥
  • आश्लेषार्धादासीद्यदा निवृत्तिः किलोष्णकिरणस्य। युक्तमयनं तदाऽऽसीत् साम्प्रतमयनं पुनर्वसुतः॥२१॥

सूर्य-चन्द्र के राशि-अंशों का योग ३६० होने पर वैधृति योग होता है, जब सूर्य चन्द्र की क्रान्ति समान पर विपरीत दिशा (उत्तर-दक्षिण) में होती है। १० नक्षत्र (१३३२०’) जोड़ने पर यह व्यतीपात योग होता है, जब चन्द्र-सूर्य की क्रान्ति समान होती है, पर क्रान्ति-वृत्त के विपरीत भागों में होती है। यह तभी सम्भव है यदि सूर्य का दक्षिणायन  आश्लेषा मध्य (११३२०’) से आरम्भ हो जो अभी (वराहमिहिर काल में) पुनर्वसु ( इसके चतुर्थ पाद से कर्क राशि का आरम्भ) से होता है। विक्रमादित्य काल में वेताल भट्ट द्वारा पुराणों का सम्पादन हुआ था, अतः पुराणों में भी अयन गति का यही क्रम है जैसा विक्रमादित्य के नवरत्न वराहमिहिर ने लिखा है-

भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ४, अध्याय १-

  • एवं द्वापरसन्ध्याया अन्ते सूतेन वर्णितम्। सूर्यचन्द्रान्वयाख्यानं तन्मया कथितम् तव॥१॥
  • विशालायां पुनर्गत्वा वैतालेन विनिर्मितम्। कथयिष्यति सूतस्तमितिहास समुच्चयम्॥२॥
  • तन्मया कथितं सर्वं हृषीकोत्तम पुण्यदम्। पुनर्विक्रमभूपेन भविष्यति समाह्वयः॥३॥
  • विष्णु पुराण (२/८)-अयनस्योत्तरस्यादौ मकरं याति भास्करः। ततः कुम्भं च मीनं च राशे राश्यन्तरं द्विज॥२८॥
  • त्रिष्वेतेष्वथ भुक्तेषु ततो वैषुवती गतिम्। प्रयाति सविता कुर्वन्नहोरात्रं ततः समम्॥२९॥
  • ततो रात्रिः क्षयं याति वर्द्धतेऽनुदिनं दिनम्॥३०॥
  • ततश्च मिथुनस्यान्ते परां काष्ठामुपागतः। राशिं कर्कटकं प्राप्य कुरुते दक्षिणायनम्॥३१॥

() चान्द्र मान

सूर्य की तुलना में चन्द्र गति अर्थात् चन्द्रमा की कला (प्रकाशित भाग) का चक्र प्रायः २९.५ दिन का होता है, जो चान्द्र मास कहा जाता है। अमावास्या (एक साथ वास) में सूर्य-चन्द्र एक ही दिशा में होते हैं, उसके बाद चन्द्र आगे बढ़ने पर वह दीखना शुरु होता है, जिसे दर्श कहते हैं। गणित के अनुसार अमावास्या पूर्ण होते ही शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि आरम्भ होती है, पर व्यवहार में ११ अन्तर होने पर ही चन्द्र दीखता है जब १२ अन्तर होने पर प्रायः द्वितीया आरम्भ होती है। अतः श्री जगन्नाथ की रथयात्रा द्वितीया होने पर भी उसे प्रथम दिवस कहा गया है जब विक्रमादित्य या कालिदास काल में वर्षा आरम्भ होती थी- आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्टसानुः (मेघदूत, ब्रह्मप्रकाशिका टीका) ।

दर्श से पूर्णिमा तक शुक्ल पक्ष में १५ तिथि (प्रायः १५ दिन) तथा उसके बाद पूर्णिमा से दर्श तक कृष्ण पक्ष में १५ तिथियां होतीं हैं। इस चक्र के अनुसार प्रायः सभी यज्ञ-चक्रों को वेद में दर्शपूर्ण-मास यज्ञ कहा गया है। १२ चान्द्र-मास में प्रायः ३५४ दिन होते हैं जबकि सौर वर्ष में ३६५.२५ दिन होते हैं, अतः प्रायः ३१ मास के बाद वर्ष में १ अधिक मास जोड़कर उसे सौरमास या ऋतु-चक्र के समतुल्य करते हैं। अधिक मास में सूर्य उसी राशि में रह जाता है जिसमें वह पूर्व मास में था, इसको संसर्प (समान राशि में गति) या मलिम्लुच (राशि परिवर्तन नही होने से अशुद्ध, जैसा वस्त्र नही बदलने से अशुद्ध होता है) कहा गया है।

संसर्पाय स्वाहा, चन्द्राय स्वाहा, ज्योतिषे स्वाहा, मलिम्लुचाय स्वाहा, दिवांपतये (अंहस्पति) स्वाहा॥

(वाजसनेयि संहिता २२/३०)

अधिमास सहित १३ मासों के नाम-

अरुणोऽरुणरजाः पुण्डरीको विश्वजिदभिजित्। आर्द्रः पिन्वमानोऽन्नवान् रसवानिरावान्। सर्वौषधः सम्भरो महस्वान्॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/१०/१)

यत्वा देव प्रपिबन्ति तत आप्यायसे पुनः। वायुः सोमस्य रक्षिता समानां मास आकृतिः। (ऋक् १०/८५/५)

देव चन्द्र का पान करते हैं (रात्रि, कृष्ण पक्ष में), चन्द्र पुनः किरणों से तृप्त होता है (शुक्ल पक्ष में)। वायु द्वारा सोम की रक्षा होती है (तेज सब जगह फैल जाता है, जो सोम है)। वर्षों (समा) का निर्माण मास से हुआ है। (गर्भ में मनुष्य की भी आकृति चन्द्र की १० परिक्रमा =२७३ दिन में बनती है, इस आत्मा को आकृति-महान् कहते हैं) ।

एष वै पूर्णिमाः। य एष (सूर्यः) तपत्यहरहर्ह्येवैष पूर्णो ऽथैष एव दर्शो यच्चन्द्रमा ददृश इव ह्येषः। अथोऽइतरथाहुः। एष एव पूर्ण चन्द्रमा यच्चन्द्रमा एतस्य ह्यनुपूरणं पौर्णमासीत्याचक्षतेऽथैष एव दर्शो य एष (सूर्यः) तपति ददृश इव ह्येषः। (शतपथ ब्राह्मण ११/२/४/१-२)

सवृत यज्ञो वा एष यद्दर्शपूर्णमासौ। (गोपथ ब्राह्मण उत्तर २/१४)

२४ अर्द्ध-मास (पक्षों) के नाम-पवित्रं पविष्यन् पूतो मेध्यः। यशो यशस्वानायुरमृतः। जीवो जीविष्यन् स्वर्गो लोकः। सहस्वान् सहीयानोजस्वान् सहमानः। जयन्नभिजय सुद्रविणो द्रविणोदाः। आर्द्रपवित्रो हरिकेशो मोदः प्रमोदः॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/१०/१)

चन्द्रोदय से आगामी चन्द्रोदय को भी तिथि कहा जाता था-

यां पर्यस्तमयादभ्युदयादिति सा तिथिः। (ऐतरेय ब्राह्मण ३२/१०)

() पितर मान

चन्द्र के ऊपरी (विपरीत भाग जो नहीं दीखता है) में पितर रहते हैं। अतः चान्द्र-मास को पितरों का दिन कहा गया है। विपरीत भाग (पृथ्वी से दूर) में रहने के कारण कृष्ण पक्ष पितरों का दिन तथा शुक्ल पक्ष पितरों की रात्रि होती है। ३० चान्द्रमास का पितर मास तथा ३० चान्द्र वर्ष का पितर वर्ष होता है।

() सावन मान

सूर्योदय से आगामी सूर्योदय का सावन दिन, ३० दिन का मास तथा १२ मास का वर्ष होता है। इसे सौर मास के समतुल्य करने के लिये इसमें ५ दिन जोड़ते हैं (पाञ्चरात्र) या ४ वर्षों के अन्तर पर ६ दिन (षडाह) जोड़ते हैं।

() नाक्षत्र मान

स्थिर नक्षत्रों की तुलना में पृथ्वी का अक्ष-भ्रमण काल २३ घण्टा ५६ मिनट) नाक्षत्र दिन है। उसके हिसाब से ३० दिनों का मास, ३६० दिनों का वर्ष होता है।


३. युगमान

दो प्रकार के चक्रों के योग से युग होता है, जैसे-

  1. सौर-चान्द्र मासों का योग-५ या १९ वर्ष का युग।
  2. सौरवर्ष + दिन का योग-४ वर्ष का लीप वर्ष का चक्र या गोपद युग।
  3. ग्रहण युग-सूर्य + राहु चक्रों का योग = १८ वर्ष १०.५ दिन
  4. बृहस्पति तथा सौर वर्षों का चक्र-१२ वर्ष युग।
  5. बृहस्पति + शनि का चक्र-६० वर्ष का बार्हस्पत्य युग।
  6. सौर वर्ष+ सप्तर्षि चक्र=सप्तर्षि वत्सर या युग।
  7. सौर वर्ष + पृथ्वी अक्ष का भ्रमण -२६००० वर्ष का ऐतिहासिक मन्वन्तर
  8. रोमक सिद्धान्त युग- १९ वर्ष युग x १५० = २८५० वर्ष।
  9. अयनाब्द युग-मन्दोच्च का दीर्घकालिक चक्र + पृथ्वी अक्ष का चक्र
  10. शनि तक की ग्रह कक्षाओं (सहस्राक्ष= १००० सूर्य व्यास तक) का चक्र-ज्योतिषीय युग
  11. तपः लोक, सृष्टि के प्रसार संकोच का चक्र = कल्प

मुनीश्वर ने सिद्धान्त सार्वभौम में ५ प्रकार के युग बताये हैं-

(१) ५ वर्ष, (२) १२ x ५ = ६० वर्ष, (३) १२ x ६० = ७२० वर्ष, (४) ६०० x ७२० = ४३२०,००० वर्ष का कलियुग, (५) कलि x १० = १ युग।

७ प्रकार के योजन की तरह ७ प्रकार के युग होने चाहिये। वस्तुतः अधिक प्रकार के युगों का उदाहरण ऊपर दिया गया है, किन्तु यज्ञ या सृष्टि क्रिया की पूर्णता के अनुसार इनके ७ वर्ग हैं-

(१) संस्कार युग

४ से १९ वर्षों में शिक्षा के क्रम पूरे होते हैं। यह ५ प्रकार के हैं-

(क) गोपद युग-४ वर्ष के लीप ईयर की पद्धति में ३६५ १/४ वर्ष की दिन संख्या पूर्ण होती है। यह दिन और वर्ष के चक्रों का योग है तथा ऐतरेय ब्राह्मण के निम्नलिखित श्लोक पर आधारित है-

कलिः शयानो भवति सञ्जिहानस्तु द्वापरः। उत्तिष्ठन् त्रेता भवति कृतं सम्पद्यते चरन्॥ (७/१३)

प्रथम वर्ष (कलि = गणना का आरम्भ) की गोधूलि वेला यदि १ जनवरी सन्ध्या ६ बजे से हो, तो वह द्वितीय वर्ष १ जनवरी को रात्रि १२ बजे पूरा होगा। अतः कलि को सोया हुआ कहते हैं (इसकी पूर्णता के समय अर्द्ध रात्रि)। द्वितीय या द्वापर वर्ष तीसरे वर्ष २ जनवरी को प्रातः ६ बजे होगा जब लोग उठने लगेंगे। अतः द्वापर को सञ्जिहान (जागने का समय)  कहते हैं। तृतीय वर्ष त्रेता ४थे वर्ष २ जनवरी दिन १२ बजे पूरा होगा जब लोग खड़े होंगे (या सूर्य ऊपर खड़ा होगा)। चौथा वर्ष कृत (पूर्ण) २ जनवरी सन्ध्या ५ बजे समाप्त होगा जब लोग घर लौटते होंगे।

इन ४ वर्षों में १ लीप ईयर होगा जिसमें १ दिन अधिक होगा। अतः ४ वर्ष का युग उसी दिन १ जनवरी को पूर्ण होगा।

(ख) पञ्चवर्षीय युग-याजुष ज्योतिष में ५ वर्षों का युग माना गया है जो माघ शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होता था क्योंकि उसी तिथि में सूर्य चन्द्र की वासव (इन्द्र) के नक्षत्र ज्येष्ठा में युति होती थी-

माघशुक्लप्रपन्नस्य पौषकृष्णसमापिनः। युगस्य पञ्चवर्षस्य कालज्ञानं प्रचक्षते॥५॥

स्वराक्रमेते सोमार्कौ यदा साकं स वासवौ। स्यात् तदाऽऽदियुगं माघस्तपः शुक्लोह्ययनं ह्युदक्॥६॥

प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्यचन्द्रमसावुदक्। सार्पार्धे दक्षिणार्कस्तु माघश्रवणयोः सदा॥७॥ (याजुष ज्योतिष ५-७)

इन वर्षों के नाम वत्सर में सम्, परि, इदा, अनु, इत्-उपसर्ग लगाने से होते थे। सिर्फ वत्सर या इद् वत्सर का अर्थ ३६० दिनों का सावन् वर्ष है।

(ग) १२ वर्षीय युग-गुरु का परिभ्रमण काल है। चान्द्रमास के अनुकरण पर १२ वर्षीय युगों के नाम चैत्र वैशाख आदि हैं।

गुरुभगणा राशिगुणास्त्वाश्वय्जाद्या गुरोरब्दाः॥ (आर्यभटीय ३/४)

= गुरु के भगण में १२ से गुणा करने पर अश्विनी से आरम्भ होने वाले गुरु वर्षों की संख्या आती है।

१ राशि में गुरु के संचार का काल १ गुरु वर्ष है

राशि के अनुसार गुरुवर्षों के नाम हैं-

१, मेष-आश्वयुक् (अश्विनी), २. वृष-कार्तिक, ३. मिथुन-मार्गशीर्ष, ४. कर्क-पौष, ५. सिंह-माघ, ६. कन्या-फाल्गुन, ७. तुला-चैत्र, ८. वृश्चिक-वैशाख, ९. धनु-ज्येष्ठ,१०. मकर-आषाढ, ११. कुम्भ-श्रावण, १२. मीन-भाद्रपद।

(घ) १९ वर्षीय युग-प्रभाकर होले की पुस्तक-वेदाङ्ग ज्योतिष (आप्टे भवन, नागपुर, १९८५) के अनुसार ऋक् ज्योतिष का युग १९ वर्ष का होता है। यहां ‘पञ्चसम्वत्सरमयं युगं’ (ऋक् ज्योतिष का प्रथम श्लोक) का अर्थ है कि १९ वर्षीय युग में ५ वर्ष सम्वत्सर होते हैं, बाकी १४ वर्ष परिवत्सर आदि अन्य ४ प्रकार के हैं। याजुष ज्योतिष में भी ५ युगों के ५ x ५ = २५ वर्षों में ६ क्षय वर्ष होने से १९ वर्षों का युग होता है-

क्षयं सम्वत्सराणां च मासानां च क्षयं तथा॥ (महाभारत, शान्ति पर्व ३०१/४६)।

(ङ) ग्रहण युग-सूर्य-राहु की संयुक्त गति से १८ सौर वर्ष १०.५ दिनों में ग्रहण चक्र पूर्ण होता है। यह २२३ चान्द्रमास का सरोस चक्र कहलाता है (सुमेरियन ज्योतिष का नाम)। इसका आधा ३३३९ तिथि का भी अर्ध-चक्र है जो दूसरे अर्ध चक्र के समान है। अतः वर्ष की ३७१ तिथियों को प्रत्येक में ९ भांश कर वर्ष में ३३३९ भांश किये गये हैं, जो वेद में क्रान्ति-वृत्त के देवता कहे गये हैं-

त्रीणि शतानि त्रीसहस्राण्यग्निं त्रिंशच्च देवा नव चा सपर्यन्। (ऋक् ३/९/९, १०/५२/६, वा. यजु. ३३/७)

(२) मनुष्य युग-

(क) ६० वर्ष-मनुष्य जीवन का कर्म समय प्रायः ६० वर्षों का होता है जो गुरु वर्षों का चक्र है। इसमें गुरु की ५ तथा शनि की २ परिक्रमायें होती हैं। यह सभी ज्योतिष ग्रन्थों तथा पुराणों में है। इसे वेद में अङ्गिरा काल कहा गया है-

आदित्याश्च ह वा आङ्गिरसश्च स्वर्गे लोके स्पर्धन्त-वयं पूर्वे एष्यामो वयमिति। ते हाऽऽदित्याः पूर्वे स्वर्गं लोकं जग्मुः, पश्चेवाङ्गिरसः, षष्ट्यां वा वर्षेषु। (ऐतरेय ब्राह्मण १८/३/७)

आदित्याश्चाङ्गिरसश्च सुवर्गे लोकेऽ स्पर्धन्त …. त आदित्या एतं पञ्चहोतारमपश्यन्। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/३/५)

यहां, आदित्य = १२, पञ्च होता = ५ x १२ = ६० वर्ष।

(ख) १०० वर्ष-शताब्दी काल में सप्तर्षि १ नक्षत्र चलते हैं। ऋक् ज्योतिष के १९ वर्षीय युग समाप्त होने पर पुनः वही नक्षत्र आता है। ५ युगों के १९ ५ वर्षों के बाद ५ वर्षों का याजुष युग लेने पर चन्द्रमा भगण से १ नक्षत्र अधिक चलता है। कल्हण की राजतरङ्गिणी में इसे लौकिक वर्ष कहा गया है।

(ग) १२० वर्ष-३६० वर्षों के दिव्य वर्ष का १/३ भाग १२० वर्ष की ग्रह दशा भी मनुष्य की आयु मानी गयी है( विंशोत्तरी दशा) ।

() परिवर्त युग

१ दिव्य वर्ष या ३६० सौर वर्ष में ऐतिहासिक परिवर्तन होते हैं। अतः यह परिवर्त युग कहा गया है। वायु पुराण (२३/११४-२२६) में २८ व्यासों की गणना के समय कभी उसे द्वापर, कभी परिवर्त कहा गया है। अतः युगों का विभाग इन्हीं परिवर्त खण्डों में है। इन्हें ही १० वां या १५वां त्रेता आदि भी कहा गया है। इसी प्रकार का वर्णन कूर्म (अध्याय ५२) ब्रह्माण्ड पुराणों मे भी है। ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२९/१९) में २६००० वर्षों का युग कहा गया है। उसे ही (१/२/९/३६,३७) में ७१ युगों का मन्वन्तर कहा गया है-

षड्विंशति सहस्राणि वर्षाणि मानुषानि तु। वर्षाणां तु युगं ज्ञेयं …  (१/२/९/१९)

तस्यैकसप्तति युगं मन्वन्तरमिहोच्यते। (१/२/९/३७)

७१ x ३६० = २५,५६० या प्रायः २६,००० वर्ष।

() सहस्र युग

(क) भागवत प्राण (१/१/४) में शौनक ऋषि के १००० वर्ष के सत्र का वर्णन है। एक मनुष्य १०० वर्ष तक ही जीता है, पर धर्म, संस्कार आदि के मापदण्ड हजारों वर्षोंतक चलते हैं। शौनक सत्र के बाद पुराणों का पुनः सम्पादन ३००० वर्षों के बाद विक्रमादित्य के समय हुआ जो अभी २००० वर्षों से चल रहा है।

भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ४, अध्याय १-

  • एवं द्वापरसन्ध्याया अन्ते सूतेन वर्णितम्।सूर्यचन्द्रान्वया ख्यानं तन्मया कथितम् तव॥१॥
  • विशालायां पुनर्गत्वा वैतालेन विनिर्मितम्। कथयिष्यति सूतस्तमितिहाससमुच्चयम्॥२॥
  • तन्मया कथितं सर्वं हृषीकोत्तम पुण्यदम्। पुनर्विक्रमभूपेन भविष्यति समाह्वयः॥३॥
  • नैमिषारण्यमासाद्य श्रावयिष्यति वै कथाम्। पुनरुक्तानि यान्येव पुराणाष्टादशानि वै।।४॥

(ख) प्रायः सहस्र वर्ष २ दिव्य वर्षों (७२० वर्ष -मुनीश्वर वर्णित युग) या ३ दिव्य वर्षों (१०८० वर्ष) का होगा।

(ग) २७०० दिव्य वर्ष या ३०३० मनुष्य वर्ष का सप्तर्षि युग होता है-

  • त्रीणि वर्ष सहस्राणि मानुषेण प्रमाणतः ।
  • त्रिंशदधिकानि तु मे मतः सप्तर्षि वत्सरः॥ (ब्रह्माण्ड पुराण, १/२/२९/१६, वायुपुराण, ५७/१७)
  • सप्तविंशति पर्यन्ते कृत्स्ने नक्षत्र मण्डले ।
  • सप्तर्षयस्तु तिष्ठन्ते पर्यायेण शतं शतम्॥ (वायु पुराण, ९९/४१९, ब्रह्माण्ड पुराण २/३/७४/२३१)

यहां, मानुष वर्ष = चन्द्र परिक्रमा वर्ष = २७.३ दिन चन्द्र परिक्रमा x १२ = ३२७.५३६४ दिन।

३०३० मानुष वर्ष = २७२७ सौर वर्ष (३६५.२५ दिन का)

तारा प्रायः स्थिर होते हैं अतः उन्हें नक्षत्र (क्षत्र = चलना) कहा जाता है। किन्तु सप्तर्षि मण्डल के पूर्व भाग में स्थित पुलस्त्य, क्रतु तारों को मिलाने वाली रेखा विपरीत गति से नक्षत्र को १०० वर्षों में पार करती है-

सप्तर्षीणां तु यौ पूर्वो दृश्येते ह्युदितौ दिवि। तयोऽस्तु मध्ये नक्षत्रं दृश्यते यस्तमं निशि॥१०५॥

तेन सप्तर्षयो युक्ता तिष्ठन्त्यब्दशतं नृणाम्॥

(विष्णु पुराण ४/२४/१०५, वायु पुराण ९९/४२१, ४१२, ब्रह्माण्ड पुराण २/३/७३/२३३, २३४)

() रोमक सिद्धान्त का युग २८५० वर्षों का है जो ऋक् ज्योतिष के १९ वर्षीय युग का१५० गुणा है।

रोमकयुगमर्केन्द्वोर्वर्षा-‘ण्याकाशपञ्चवसु पक्षाः’ (२८५०)

’खेन्द्रियदिशो’ (१०५०) ऽधिमासाः ’स्वरकृतविषयाष्टयः’ (१६,५४७) प्रलयाः॥ (पञ्चसिद्धान्तिका १/१५)

() ध्रुव या क्रौञ्च युग

यह सप्तर्षि युग का ३ गुणा या अयन चक्र (२६,०००) वर्ष का प्रायः १/३ भाग है। इसमें ९०९० मानव वर्ष या ८१०० सौर वर्ष होंगे-

नव यानि सहस्राणि वर्षाणां मानुषानि तु। अन्यानिनवतिश्चैव ध्रुवः सम्वत्सरः स्मृतः॥

(ब्रह्माण्ड पुराण १/२/२९/१८, वायु पुराण ५७/१८ में क्रौञ्च सम्वत्सर)

प्रायः इसी आकार का गुरु महायुग माना जा सकता है। सौर मत से मध्यम गुरु गति का गुरु वर्ष लेने पर ८५ सौर वर्ष में १ अधिक अर्थात् ८६ गुरु वर्ष होते हैं। ६० वर्षों का चक्र ८६ बार लेने पर कुल गुरु वर्ष = ६० x ८६ = ६० x ८५ सौर वर्ष = ५१०० सौर वर्ष होंगे। वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम-जन्म की ग्रह स्थिति ११-२-४४३३ ई.पू. में थी, जब २४ वां त्रेता चल रहा था। उस समय विष्णुधर्मोत्तर पुराण (८२/७, ८) के अनुसार सौर तथा पैतामह दोनों मतों से प्रभव वर्ष था। इसी प्रकार मत्स्य अवतार के समय भी दोनों मतों से प्रभव वर्ष था। इस कारण प्रभव वर्ष से गुरुवर्ष का चक्र आरम्भ होता है जब गुरु कर्क राशि में होता है, उसके मेष राशि से चक्र नहीं आरम्भ होता। अर्थात् मत्स्य अवतार राम से ५१०० वर्ष पूर्व ९५३३ ई.पू. में हुआ था। होमर के इलियड के अनुसार भी एटलाण्टिस का अन्तिम भाग ९५६४ ई.पू. में डूबा था। पारसी गाथाओं के अनुसार जल प्रलय ९८४४ ई.पू. में हुआ था जब जमशेद (वैवस्वत यम, १० वें व्यास) का काल था।

ग्रीस के लेखक सोलन (६३८-५५८ ई.पू.) को मिस्र के पुरोहितों ने बताया था कि एथेंस के लोग अपना प्राचीन इतिहास भूल चुके हैं क्यों कि ९००० वर्ष पूर्व (प्रायः ९५६४ ई.पू.) में प्राकृतिक प्रलय के कारण एटलाण्टिस नष्ट हो गया था। यह हरकुलस स्तम्भ (सूर्य सिद्धान्त का केतुमाल वर्ष, वर्तमान जिब्राल्टर खाड़ी के दोनों तरफ के पर्वत) से पश्चिम था। प्लेटो ने सिटियस की वार्ता में भी इसे उद्धृत किया है। होमर (८०० ई.पू.) ने अपनी पुस्तक इलियड में एटलाण्टिस तथा पश्चिम एसिआ के ट्राय के युद्ध का वर्णन किया है। इस आधार पर स्लीमैन ने ट्राय में खुदाई भी की जिसमें ट्राय के अवशेष मिले।

वर्तमाने तथा कल्पे षष्टे मन्वन्तरे गते। तस्यैव च चतुर्विंशे राजंस्त्रेता युगे तदा॥६॥

यदा रामेण समरे सगणो रावणो हतः॥ लक्ष्मणेन तथा राजन् कुम्भकर्णो निपातितः॥७॥

माघशुक्ले समारभ्य चन्द्रार्कौ वासर्क्षगौ। जीवयुक्तो यदा स्यातां षष्ट्यब्दादिस्तदा स्मृतः॥८॥ विष्णुधर्मोत्तर पुराण (८२) केवल सूर्य चन्द्र युति धनिष्ठा में ५ वर्षीय युग में ५ बार होगी। गुरु का प्रत्येक नक्षत्र के अनुसार फल कहा है। अतः बल्लालसेन ने अद्भुत् सागर, १/५ अध्याय में गुरु-सूर्य-चन्द्र की धनिष्ठा में युति १ कल्प में ५ बार मानी है। प्रति चक्र १ कल्प का १/५ भाग होगा जिसमें क्रम से गुरु-सूर्य-चन्द्र की युति अश्विनी से आरम्भ कर २७ नक्षत्रों में होगी। कल्प आरम्भ में सभी ग्रह अश्विनी आरम्भ में थे, अतः धनिष्ठा में इन ३ ग्रहोंकी युति २२/७ कल्प/५=४३२० x १० x २२/३५ = ७०४ x १० वर्ष में होगी। (धनिष्ठा २२ नक्षत्र पूर्ण होने के बाद २३ वां है) । इस समय प्रथम चक्र आरम्भ हो कर कल्प के ५ वें भाग ८६४ x १० वर्ष के ४ चक्र होंगे। ५वें चक्र में कल्पान्त तक केवल १६० x १० वर्ष बचेंगे।

() अयनाब्द युग

() २४०००वर्ष का चक्र२६००० वर्षों के अयन-चक्र को ही ब्रह्माण्ड पुराण में मन्वन्तर कहा गया है-षड् विंशति सहस्राणि वर्षाणि मानुषाणि तु । वर्षाणां युगं ज्ञेयं दिव्यो ह्येष विधिः स्मृतः॥ (ब्रह्माण्ड पुराण,१/२/२९/१९)

स वै स्वायम्भुवः पूर्वं पुरुषो मनुरुच्यते। तस्यैकसप्तति युगं मन्वन्तरमिहोच्यते॥ (ब्रह्माण्ड पुराण,१/ २/९/३६,३७)

यहां सौर वर्ष के दिनों को वर्ष मानने से वह दिव्य वर्ष का युग होता है-

७१x ३६५.२५ =  २५९३२.७५ या प्रायः २६००० वर्ष।

युग चक्र की गणना में सुविधा के लिये ३६५.२५ के बदले ३६० लिया जाता है, जो वत्सर के दिन होते हैं। इसमें ३० दिनों के १२ मास होंगे। वर्ष के बाकी ५ या ६ दिन पाञ्चरात्र या षडाह होंगे।

मत्स्य पुराण, अध्याय २७३ में भी कहा है कि स्वायम्भुव मनु के ४३ युग बाद वैवस्वत मनु हुये जिनके बाद २८ युग बीत चुके हैं -कलि आरम्भ (३१०२ ईसा पूर्व) तक जब सूत द्वारा पुराणों का प्रणयन हुआ-

अष्टाविंश समाख्याता गता वैवस्वतेऽन्तरे। एते देवगणैः सार्धं शिष्टा ये तान्निबोधत॥७७॥

चत्वारिंशत् त्रयश्चैव भवितास्ते महात्मनः (स्वायम्भुवः)। अवशिष्टा युगाख्यास्ते ततो वैवस्वतो ह्ययम् ॥७८॥

भविष्य पुराण में भी स्वायम्भुव मनु को बाइबिल वर्णित आदम कहा है जिसके १६००० वर्ष बाद वैवस्वत मनु हुये-

आदमो नाम पुरुषो पत्नी हव्यवती तथा। … षोडशाब्द सहस्रे च तदा द्वापरे युगे।

 (भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व १/४/१६, २६)

स्वायम्भुव मनु को ब्रह्मा या प्रथम व्यास कहा गया है। कृष्ण द्वैपायन या बादरायण २८ वें व्यास थे, उसके बाद अन्य कोई व्यास अभी तक नहीं हुआ है अतः अभी भी २८वां युग ही माना जाता है। वैवस्वत मनु से परिवर्त युग की गणना लेने पर बादरायण का काल २८ युग बाद था।

स्वायम्भुव मनु से वैवस्वत मनु=१६००० वर्ष = ३६० x ४३

वैवस्वत मनु से कृष्णद्वैपायन २८ युग = प्रायः १०००० वर्ष। किन्तु युग व्यवस्था वैवस्वत मनु से हुई जिसमें सत्य, त्रेता, द्वापर का योग ४८००+३६००+२४०० = १०८०० होता है।

() तृतीय अयनाब्द २४००० वर्ष चक्र को भविष्य पुराण (प्रतिसर्ग १/१/३) में ब्रह्माब्द (अभी तीसरा दिन या युग) तथा वायु पुराण (३१/२९) में अयनाब्द युग कहा गया है-

त्रेता युगमुखे पूर्वमासन् स्वायम्भुवेऽन्तरे। … ये वै ब्रजकुलाख्यास्तु आसन् स्वायम्भुवेऽन्तरे। कालेन बहुनातीतायनाब्द युगक्रमैः (वायु पुराण ३१/३, २९) कल्पाख्ये श्वेत वाराहे ब्रह्माब्दस्य दिनत्रये । (भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग १/१/३)

वेदों में भी देवों का काल ३ युग पूर्व कहा गया है-या ओषधीः पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा।

(ऋग्वेद १०/९७/३, वाजसनेयि यजु १२/७५, तैत्तिरीय संहिता ४/२/६/१, निरुक्त ९/२८)

युग गणना वैवस्वत मनु से आरम्भ होने के कारण उनके पूर्व के चक्र में ब्रह्मा आद्य त्रेता में थे। ब्रह्मा से वर्तमान गणना वाला युग आरम्भ होता तो उनसे सत्य युग का आरम्भ होता।

तस्मादादौ तु कल्पस्य त्रेता युगमुखे तदा (वायु पुराण ९/४६) त्रेता युगमुखे पूर्वमासन् स्वायम्भुवेऽन्तरे। (वायु पुराण ३१/३) स्वायम्भुवेऽन्तरे पूर्वमाद्ये त्रेता युगे तदा। (वायु पुराण ३३/५)

() अयनाब्द चक्र के खण्ड– २४००० वर्षों के २ खण्ड किये गये हैं-अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी। इन विभागों का वर्णन जैन शास्त्रों में है किन्तु आर्यभट ने भी उल्लेख किया है, अवसर्पिणी को अपसर्पिणी लिखा है। किसी भी चक्र गति को परिधि से देखने पर अर्ध भाग में दूर जाने की तथा बाकी भाग में निकट आने की गति होती है। चान्द्र मास में भी सूर्य से दूर जाने पर शुक्ल पक्ष तथा पुनः उसके निकट जाने पर कृष्ण पक्ष होता है। किसी भी चक्र के इन विपरीत भागों को चान्द्र मास की तरह दर्श-पूर्ण मास, निकट-दूर गति के कारण अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी, संकोच-प्रसार के अर्थ में उद्ग्राभ-निग्राभ कहा गया है।

उत्सर्पिणी युगार्धं पश्चादपसरिणी युगार्धं च। मध्ये युगस्य सुषमाऽऽदावन्ते दुष्षमेन्दूच्चात्॥ (आर्यभटीय, कालक्रियापाद २/९)

तद्यदेना उरसि (इन्द्रः) न्यग्रहीत तस्मान्निग्राभ्या नाम। (शतपथ ब्राह्मण ३/९/४/१५)

उद्ग्राभेणोदग्रभीत् (वाज.यजु.१७/६३, तैत्तिरीय संहिता १/१/१३/१, ६/४/२, ४/६/३/४, मैत्रायणी संहिता १/१/१३, ८/१३, ३/३/८, ४१/९, काण्व संहिता १/१२, १८/३, २१/८, शतपथ ब्राह्मण ९/२/३/२१)

एष वै पूर्णिमाः। य एष (सूर्यः) तपत्यहरहर्ह्येवैश पूर्णोऽथैष एव दर्शो यच्चन्द्रमा ददृश इव ह्येषः। अथोऽइतरथाहुः। एष एव पूर्णमा यच्चन्द्रमा एतस्य ह्यनु पूरणं पौर्णमासीत्याचक्षते ऽथैष एष दर्षो य एष (सूर्यः) तपति ददृश इव ह्येषः। (शतपथ ब्राह्मण ११/२/४/१-२) सवृत (= चक्रीय) यज्ञो वा एष यद्दर्शपूर्णमासौ। (गोपथ उत्तर २/२४)

दर्शपूर्णमासौ वा अश्वस्य मेध्यस्य पदे। (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/९/२३/१)

युग विभाग के प्रसंग में अवसर्पिणी का अर्थ है घटते मान वाले युग-क्रम-सत्य = ४८०० वर्ष, त्रेता = ३६००, द्वापर = २४००, कलि = १२०० वर्ष। उत्सर्पिणी में युग विपरीत क्रम में बढ़ते हुये होंगे-कलि, द्वापर, त्रेता, सत्य युग। वैवस्वत मनु के काल से अवसर्पिणी क्रम लिया गया है। उसके पूर्व आद्य युग के त्रेता में ब्रह्मा थे। ब्रह्मा से पूर्व साध्य, मणिजा आदि का काल था जो ब्रह्माब्द का प्रथम दिन कहा जा सकता है। आज की भाषा में यह प्रागैतिहासिक युग है। इसमें अभी तीसरा दिन चल रहा है। देव युग के पूर्व साध्य युग का उल्लेख पुरुष सूक्त, ऋक् १६ में है-

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।

ते ह नाकं महिमानः सचन्तः यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥ (वाज. यजु. ३१/१६)

भास्कराचार्य-२ ने १२,००० वर्ष के चक्र में ही आगम अनुसार बीज संस्कार किया है, अर्थात् वैदिक मत के अनुसार इसी चक्र में काल गणना होती थी। सिद्धान्त शिरोमणि, भूपरिधि (७-८)-

खाभ्रखार्कै (१२०००) हृताः कल्पयाताः समाः शेषकं भागहारात् पृथक् पातयेत्।

यत्तयोरल्पकं तत् द्विशत्या (२००) भजेल्लिप्तिकाद्यं तत् त्रिभिः (३) सायकैः (५) ॥

पञ्च (५) पञ्चभूमिः (१५) करा (२) भ्यां हतं भानु चन्द्रेज्यशुक्रेन्दुतुङ्गेष्वृणम्।

इन्दुना (१) दस्र-बाणैः (५२) करा (२) भ्यां कृतैर्भौमसौम्येन्दुपातार्किषु स्वं क्रमात्॥

स्वोपज्ञ भाष्य-अत्रोपलब्धिरेव वासना। यद्वर्षं सहस्रषट्कं यावदुपचयस्ततोऽपचय इत्यत्रागम एव प्रमाणं नान्यत् कारणं वक्तुं शक्यत इत्यर्थः।

() ज्योतिषीय युग

३६० सौर वर्षों का दिव्य वर्ष मानकर १२,००० दिव्य वर्षों का ज्योतिषीय युग सभी पुराणों तथा ज्योतिष पुस्तकों में वर्णित है। इस की ३ व्याख्यायें हैं- (क) भास्कराचार्य -२ ने भगणोपपत्ति ग्रन्थ में कहा है कि इस काल में सभी ग्रह (शनि तक) अपना भगण (परिक्रमा) पूर्ण करते हैं।

(ख) एक अन्य मत है कि पृथ्वी का उत्तर ध्रुव वर्तमान पामीर से उत्तर ध्रुव तक गया है। इसका विषुव रेखा से उत्तर ध्रुव जाने का चक्र के ४ खण्ड कलि द्वापर, त्रेता, कृत युग हैं। चुम्बकीय ध्रुवों का परिवर्तन भी प्रायः इसी काल में होता है। ज्योतिषीय काल में महाद्वीपों की उत्तर दिशा में गति दीख रही है। इसका एक कारण है कि पृथ्वी पूरी तरह गोल नहीं है। घूर्णन के कारण विषुव भाग थोड़ा फैल गया है। यह फैलाव घूर्णन धीमा होने के कारण कम होता जा रहा है। अतः उभरे भाग के द्वीप उत्तर खिसक रहे हैं। ध्रुव तथा द्वीप गतियां अन्य ग्रहों के आकर्षण के कारण भी हैं।

(ग) पृथ्वी की कक्षा का छोटा -बड़ा होना या उसका आकार दीर्घवृत्त से प्रायः वृत्ताकार होने का चक्र भी प्रायः इसी अवधि का है। इन मतों का आधुनिक ज्योतिष में अभी तक सटीक अध्ययन नहीं हुआ है, केवल अनुमान मात्र हैं।

ज्योतिषीय युग ४३,२०,००० वर्षों का है। इसके ४ खण्ड सदा अवरोही क्रम में हैं-सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि जिनके मान ४, ३, २, १ अनुपात में हैं। किन्तु आर्यभट (३६० कलि = २७४२ ई.पू.) ने इनको बराबर माना है। दोनों मतों से कलियुग का आरम्भ ३१०२ ई.पू. में हुआ है, अतः इनको ऐतिहासिक युग मानने की भूल होती है। १००० युगों का ब्रह्मा का कल्प या दिन है। इतने ही मान की रात्रि है।

३६० अहोरात्र का ब्रह्मा का वर्ष है, तथा १०० वर्षों की ब्रह्मा की परमायु है। इस काल में प्रायः ३ x १०१७ दिन होते हैं, अतः १०१७ को परा कहते हैं। ब्रह्मा की १०० वर्ष आयु पुरुष या विष्णु का दिन है, किन्तु कल्प से अधिक की कोई गणना नहीं होती है।


४. ऐतिहासिक युगचक्र– इन चर्चाओं के आधार पर पुराणों का ऐतिहासिक युग चक्र बनाया जा सकता है। ब्रह्मा के पूर्व मणिजा जाति का उल्लेख वायु पुराण आदि में है। उस काल में देवों को याम कहते थे। ४ वर्णों को साध्य, महाराजिक, आभास्वर तथा तुषित कहते थे जिनका अमरकोष में भी गण-देवता के रूप में उल्लेख है-

  • आदित्य विश्व-वसवस्तुषिताभास्वरानिलाः। महाराजिक साध्याश्च रुद्राश्च गणदेवताः॥ (अमरकोष १/१/१०)
  • त्रेता युगमुखे पूर्वमासन् स्वायम्भुवेऽन्तरे। देवा यामा इति ख्याताः पूर्वं ये यज्ञसूनवः॥
  • अजिता ब्राह्मणः पुत्रा जिता जिदजिताश्च ये। पुत्राः स्वायम्भुवस्यैते शुक्र नाम्ना तु विश्रुताः॥
  • तृप्तिमन्तो गणा ह्येते देवानां तु त्रयः स्मृताः। तुषिमन्तो गणा ह्येते वीर्यवन्तो महाबलाः॥
  • ते वै ब्रजकुलाख्यास्तु आसन् स्वायम्भुवेऽन्तरे। कालेन बहुनाऽतीता अयनाब्दयुगक्रमैः॥ (वायु पुराण ३१/३-२१)

टिप्पणी-(१) यहां जलप्रलय तथा शीत युग का चक्र आधुनिक अनुमानों के आधार पर है, जैसे मीर प्रकाशन, मास्को का The Earth है। इनसे यह स्पष्ट है कि सभी जल प्रलय अवसर्पिणी (अवरोही) त्रेता में तथा शीत युग उत्सर्पिणी (आरोही) त्रेता में हैं। अतः भारतीय युग व्यवस्था आधुनिक मिलांकोविच सिद्धान्त से अधिक शुद्ध है।

(२) मन्दोच्च का पूर्ण मान १ लाख वर्ष का चक्र लेने पर २१६०० वर्ष का जल-प्लावन चक्र आता है। २४००० वर्ष के चक्र के लिये २६००० वर्ष की अयन गति में मन्दोच्च का ३१२००० वर्ष का दीर्घकालिक चक्र जोड़ना पड़ेगा।

१/२४००० = १/२६००० + १/३१२०००

मन्दोच्च का दीर्घकालिक चक्र के अतिरिक्त उसका बचा भाग सूर्य भगण में मिलाया गया है। उस मन्दोच्च गति की तुलना में सौर वर्ष थोड़ा कम होगा तथा अयन गति कुछ अधिक होगी। अतः ५० विकला के बदले सूर्य सिद्धान्त में ६० विकला अयन गति ली गयी है। इन मानों को निकालने पर १ कल्प में मन्दोच्च का ३८७ भगण होता है-

प्राग्गते सूर्यमन्दस्य कल्पे सप्ताष्टवह्नयः॥ (सूर्य सिद्धान्त १/४१)

इस युग-चक्र के अनुसार मयासुर का सूर्य-सिद्धान्त ९१०२+१३१=९२३३ ईसा पूर्व में हुआ, जब जलप्लावन समाप्त हुआ तथा उसके बाद ९१०२ ईसा पूर्व में इसके अनुसार पंचांग आरम्भ हुआ।bharat me kaal ganna

(३) इस युग चक्र के अनुसार जल-प्रलय या हिमयुग आते हैं। अतः इसी के अनुसार युगों के ऐतिहासिक लक्षण दीखेंगे। महाभारत, शान्ति पर्व (२३२/३१-३४ के अनुसार त्रेता में ही यज्ञ या उत्पादन का विकास होता है जैसा कि वर्तमान काल के त्रेता में १६९९ ईस्वी से दीख रहा है-

त्रेता युगे विधिस्त्वेष यज्ञानां न कृते युगे। द्वापरे विप्लवं यान्ति यज्ञाः कलियुगे तथा।

त्रेतायां तु समस्ता ये प्रादुरासन् महाबलाः। सन्यन्तारः स्थावराणां जङ्गमानां च सर्वशः॥

ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/६) में भी पूर्व युग में देवताओं द्वारा विमान के प्रयोग का वर्णन है। सूर्य के अधिक दाह के कारण जल प्रलय तथा इस युग का अन्त हुआ।

अस्मात् कल्पात्ततः पूर्वं कल्पातीतः पुरातनः॥ चतुर्युगसहस्राणि सह मन्वन्तरैः पुरा॥१५॥

क्षीणे कल्पे ततस्तस्मिन् दाहकाल उपस्थिते। तस्मिन् काले तदा देवा आसन् वैमानिकस्तु वै॥१६॥

एकैकस्मिंस्तु कल्पे वै देवा वैमानिका स्मृताः॥१९॥आधिपत्यं विमाने वै ऐश्वर्येण तु तत्समाः॥३२॥

ते तुल्य लक्षणाः सिद्धाः शुद्धात्मनो निरञ्जनाः॥३८॥

ततस्तेषु गतेषूर्ध्वं त्रैलोक्येषु महात्मसु। एत्तैः सार्धं महर्लोकस्तदानासादितस्तु वै॥४२॥

तच्छिष्या वै भविष्यन्ति कल्पदाह उपस्थिते। गन्धर्वाद्याः पिशाचाश्च मानुषा ब्राह्मणादयः॥४३॥

सहस्रं यत्तु रश्मीनां स्वयमेव विभाव्यते। तत् सप्त रश्मयो भूत्वा एकैको जायते रविः॥४५॥

क्रमेणोत्तिष्ठमानास्ते त्रींल्लोकान्प्रदहंत्युत। जंगमाः स्थावराश्चैव नद्यः सर्वे च पर्वताः॥४६॥

शुष्काः पूर्वमनावृष्ट्या सूर्य्यैस्ते च प्रधूपिताः। तदा तु विवशाः सर्वे निर्दग्धाः सूर्यरश्मिभिः॥४७॥

जंगमाः स्थावराश्चैव धर्माधर्मात्मकास्तु वै। दग्धदेहास्तदा ते तु धूतपापा युगान्तरे॥४८॥

उषित्वा रजनीं तत्र ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः। पुनः सर्गे भवन्तीह मानसा ब्रह्मणः सुताः॥५०॥

ततस्तेषूपपन्नेषु जनैस्त्रैलोक्यवासिषु। निर्दग्धेषु च लोकेषु तदा सूर्य्यैस्तु सप्तभिः॥५१॥

वृष्ट्या क्षितौ प्लावितायां विजनेष्वर्णवेषु च। सामुद्राश्चैव मेघाश्च आपः सर्वाश्च पार्थिवाः॥५२॥

(४) सप्तर्षि या लौकिकाब्द का आरम्भ ३०७६ ई.पू. (कलि २५) में हुआ जब युधिष्ठिर का कश्मीर में देहान्त हुआ (राजतरङ्गिणी, तरङ्ग १)-कलैर्गतैः सायकनेत्र (२५) वर्षैः युधिष्ठिराद्याः त्रिदिवं प्रयाताः।

राजतरङ्गिणी निर्माण के समय लौकिकाब्द २४ था जिसमें शताब्दी अङ्क नहीं लिखे जाते हैं। उस समय (शालिवाहन) शक आरम्भ से १०७० वर्ष बीते थे-

लौकिकाब्दे चतुर्विंशे शककालस्य साम्प्रतम्। सप्तत्याभ्यधिकं यातं सहस्र परिवत्सराः॥ (राजतरङ्गिणी १/५२)

शककाल ७८ ई. में हुआ, उसके १०७० वर्ष बाद ३०७६ + ७८ + १०७० = ४२२४ या शताब्दी वर्ष छोड़ने पर २४ वर्ष हुये थे। युधिष्ठिर देहान्त तक सप्तर्षि मघा नक्षत्र में थे, उसके २७०० वर्ष बाद सप्तर्षि का १ चक्र पूर्ण हुआ। ३ सप्तर्षि चक्र या ८१०० वर्ष का ध्रुव वर्ष है। इस क्रम से ध्रुव वर्ष का आरम्भ २७,३७६ ई.पू. में हुआ, जो ठीक लगता है क्योंकि वह स्वायम्भूव के पुत्र (वंशज) उत्तानपाद के पुत्र थे। उसके बाद १ चक्र पूर्ण होने के समय १९.२७६ ई.पू. में क्रौञ्च द्वीप के शासक बलि का प्रभुत्व था, अतः इसे क्रौञ्च युग भी कहा गया है।  दूसरा ध्रुव चक्र पूर्ण होने के समय ११,१७६ ई.पू. में जल प्राय की स्थिति थी।

.युग खण्ड

पुरानी सृष्टि के बाद यह (श्वेत-) वाराह कल्प आरम्भ हुआ-

यश्चायं वर्तते कल्पो वाराहः साम्प्रतं शुभः। (ब्रह्माण्ड पुराण १/२/६/६-८)

युगखण्डों की गणना इसी कल्प के लिये है। व्यास गणना में हर युग को परिवर्त कहा गया है।

१ परिवर्त = ३६० वर्ष (वृत्त के अंश), १ त्रेता = ३६०० वर्ष = १० परिवर्त युग।

परिवर्त युग के उद्धरण-

वायु पुराण, अध्याय २३-चतुर्बाहुश्चतुष्पादश्चतुर्नेत्रश्चतुर्मुखः।

तदा सम्वत्सरो भूत्वा यज्ञरूपो भविष्यति। षडङ्गश्च त्रिशीर्षश्च त्रिस्थानस्त्रिशरीरवान्॥१०४॥

पुनस्तु मम देवेशो द्वितीय द्वापरे प्रभुः॥११९॥ तृतीये द्वापरे चैव यदा व्यासस्तु भार्गवः॥१२३॥

चतुर्थे द्वापरे चैव यदा व्यासोऽङ्गिरा स्मृतः॥१२६॥

परिवर्ते पुनः षष्ठे मृत्युर्व्यासो यदा विभुः॥१३३॥ सप्तमे परिवर्ते तु यदा व्यासः शतक्रतुः॥१३६॥

यदा व्यासः सुरक्षस्तु पर्यायश्च चतुर्दश॥१६२॥ परिवर्ते चतुर्विंशे ऋक्षो व्यासो भविष्यति॥२०६॥

अष्टाविंशे पुनः प्राप्ते परिवर्ते क्रमागते। पराशरसुतः श्रीमान् विष्णुर्लोक पितामहः॥२१७॥

यदा भविष्यति व्यासो नाम्ना द्वैपायनः प्रभुः॥२१८॥

वायु पुराण (अध्याय ९८)-यज्ञं प्रवर्तयामास चैत्ये वैवस्वतेऽन्तरे॥७१॥

प्रादुर्भावे तदाऽन्यस्य ब्रह्मैवासीत् पुरोहितः। चतुर्थ्यां तु युगाख्यायामापन्नेष्वसुरेष्वथ॥७२॥

सम्भूतः स समुद्रान्तर्हिरण्यकशिपोर्वधे द्वितीयो नारसिंहोऽभूद्रुदः सुर पुरःसरः॥७३॥

बलिसंस्थेषु लोकेषु त्रेतायां सप्तमे युगे। दैत्यैस्त्रैलोक्य आक्रान्ते तृतीयो वामनोऽभवत्॥७४॥

एतास्तिस्रः स्मृतास्तस्य दिव्याः सम्भूतयः शुभाः। मानुष्याः सप्त यास्तस्य शापजांस्तान्निबोधत॥८७॥

त्रेतायुगे तु दशमे दत्तात्रेयो बभूव ह। नष्टे धर्मे चतुर्थश्च मार्कण्डेय पुरःसरः॥८८॥

पञ्चमः पञ्चदश्यां तु त्रेतायां सम्बभूव ह। मान्धातुश्चक्रवर्तित्वे तस्थौ तथ्य पुरः सरः॥८९॥

एकोनविंशे त्रेतायां सर्वक्षत्रान्तकोऽभवत्। जामदग्न्यास्तथा षष्ठो विश्वामित्रपुरः सरः॥९०॥

चतुर्विंशे युगे रामो वसिष्ठेन पुरोधसा। सप्तमो रावणस्यार्थे जज्ञे दशरथात्मजः॥९१॥

ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/३४)-द्वापरे त्तु पुरावृत्ते मनोः स्वायम्भुवान्तरे। ब्रह्मा मनुमुवाचेदं रक्ष वेदं महामते॥२॥

कूर्म पुराण में सभी २८ व्यासों का काल १-१ द्वापर कहा गया है-

कूर्म पुराण, पूर्व भाग, अध्याय ५२-द्वापरे प्रथमो व्यासो मनुः स्वायम्भुवो मतः॥१॥

द्वितीये द्वापरे चैव वेदव्यासः प्रजापतिः॥२॥

तृतीये चोशना व्यासश्चतुर्थे स्याद् बृहस्पतिः। सविता पञ्चमे व्यासःषष्ठे मृत्युः प्रकीर्तितः॥३॥

सप्तमे च तथैवेन्द्रो वसिष्ठश्चाष्टमे मतः। सारस्वतश्च नवमे त्रिधामा दशमे स्मृतः॥४॥

एकादशे तु त्रिवृषः (ऋषभ देव) शततेजास्ततः परः। त्रयोदशे तथा धर्मस्तरक्षुस्तु चतुर्दशे॥५॥

त्र्यारुणिर्वै पञ्चदशे षोडशे तु धनञ्जयः। कृतञ्जयः सप्तदशे ह्यष्टादशे ऋतञ्जयः॥६॥

ततो व्यासो भरद्वाजस्तस्मादूर्ध्वं तु गौतमः। राजश्रवाश्चैकविंशसतस्माच्छुष्मायणः परः॥७॥

तृणविन्दुस्त्रयोविंशे वाल्मीकस्तत्परः स्मृतः। पञ्चविंशे तथा शक्तिः षड्विंशे तु पराशरः॥८॥

सप्तविंशे तथा व्यासो जातूकर्णो महामुनिः। अष्टाविंशे पुनः प्राप्ते ह्यस्मिन् वै द्वापरो द्विजाः।

पराशरसुतो व्यासः कृष्णद्वैपायनो हरिः॥१०॥

तृतीय त्रेता, द्वापर या परिवर्त-उशना या भार्गव शुक्राचार्य व्यास

चतुर्थ युग या त्रेता-हिरण्यकशिपु

सप्तम त्रेता युग-बलि-वामन अवतार-सप्तम व्यास शतक्रतु इन्द्र

इसी काल में वराह अवतार द्वारा समुद्र मन्थन- कार्त्तिकेय द्वारा असुरों की पराजय (७ दीर्घजीवियों में बलि की गणना)

१०म त्रेता-दत्तात्रेय-त्रिधामा व्यास

१५ वां त्रेता-मान्धाता-त्र्यारुणि व्यास

१९वां त्रेता-परशुराम-भरद्वाज व्यास

२४वां त्रेता-राम द्वारा रावण का वध-ऋक्ष या वाल्मीकि व्यास।

अयनाब्द युग के २ त्रेताओं का आरम्भ २२,३०२ तथा ९१०२ ई.पू. में हुआ। इनमें १०+१० = २० परिवर्त युग हैं। द्वितीय त्रेता ५५०२ ई.पू. में समाप्त होने पर भी यह गणना चलती रही। जिसके अनुसार २४ वें त्रेता में श्रीराम हुये।

हिरण्यकशिपु-४र्थ त्रेता-२२३०२-३ x ३६०= २१,२२२ से २०,८६२ ई.पू. तक।

बलि का काल इसके ३ त्रेता बाद २०१४२ से १९७८२ ई.पू. तक-उसके बाद क्रौञ्च द्वीप में असुर प्रभुत्व।

कार्त्तिकेय काल में उत्तरी ध्रुव अभिजित् से दूर हट गया था १६००० ई.पू. से, जिसे अभिजित् का पतन कहा गया है। उसके बाद धनिष्ठा में सूर्य के प्रवेश से वर्ष का आरम्भ हुआ। महाभारत, वन पर्व (२३०/८-१०)-

अभिजित् स्पर्धमाना तु रोहिण्या अनुजा स्वसा। इच्छन्ती ज्येष्ठतां देवी तपस्तप्तुं वनं गता॥८॥

तत्र मूढोऽस्मि भद्रं ते नक्षत्रं गगनाच्युतम्। कालं त्विमं परं स्कन्द ब्रह्मणा सह चिन्तय॥९॥

धनिष्ठादिस्तदा कालो ब्रह्मणा परिकल्पितः। रोहिणी ह्यभवत् पूर्वमेवं संख्या समाभवत्॥१०॥

उस काल में धनिष्ठा में सूर्य के प्रवेश के समय वर्षा का आरम्भ होता था, जब दक्षिणायन आरम्भ होता था। कार्त्तिकेय के पूर्व असुरों का प्रभुत्व था, अतः दक्षिणायन को असुरों का दिन कहा गया है-

सूर्य सिद्धान्त, अध्याय १-मासैर्द्वादशभिर्वर्षं दिव्यं तदह उच्यते॥१३॥

सुरासुराणामन्योन्यमहोरात्रं विपर्ययात्। षट् षष्टिसङ्गुणं दिव्यं वर्षमासुरमेव च॥१४॥

वर्षा से आरम्भ होने के कारण सम्वत्सर को वर्ष कहा गया है। जिस भौगोलिक क्षेत्र में एक वर्षा चक्र का प्रभाव है उसे भी वर्ष, जैसे भारत-वर्ष कहा गया। उसकी सीमा स्थित पर्वतों को वर्ष-पर्वत कहा गया। प्रायः १५८०० ईसा पूर्व में धनिष्ठा में सूर्य के प्रवेश करने पर दक्षिणायन होता था, जो कार्त्तिकेय का काल है। उससे पूर्व क्रौञ्च का प्रभुत्व था, अतः उस काल में ध्रुव सम्वत्सर को वायु पुराण में क्रौञ्च सम्वत्सर कहा गया है-

नव यानि सहस्राणि वर्षाणां मानुषानि तु। अन्यानि नवतिश्चैव क्रौञ्चः सम्वत्सरः स्मृतः॥ (वायु पुराण ५७/१८)

धनिष्ठा के पहले अभिजित् में सूर्य के प्रवेश से वर्ष आरम्भ होता था, जब माघ मास होता था। इसे श्रवण-धनिष्ठा के बीच होने के कारण श्रविष्ठा कहा गया है-ऋग् ज्योतिष (३२, ५,६) याजुष ज्योतिष (५-७)

माघशुक्ल प्रपन्नस्य पौषकृष्ण समापिनः। युगस्य पञ्चवर्षस्य कालज्ञानं प्रचक्षते॥५॥

स्वराक्रमेते सोमार्कौ यदा साकं सवासवौ। स्यात्तदादि युगं माघः तपः शुक्लोऽयनं ह्युदक्॥६॥

प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्। सार्पार्धे दक्षिणार्कस्तु माघश्रवणयोः सदा॥७॥

यह माघ से आरंभ वर्ष ब्रह्मा के समय से था, जब सूर्य का प्रवेश अभिजित् नक्षत्र में होता था। स्वायम्भुव मनु काल में अभिजित् (श्रवण-धनिष्ठा का मध्य श्रविष्ठा) से उत्तरायण होता था, यह २९१०२ ईसा पूर्व में था।

दत्तात्रेय का काल प्रथम त्रेता के अन्त या द्वितीय त्रेता के आरम्भ में होगा यह द्वितीय त्रेता के कुछ पूर्व है, जब त्रिधामा या मार्कण्डेय १० वें व्यास थे।

मान्धाता १५ वें त्रेता अर्थात् द्वितीय त्रेता के ५वें खण्ड में थे= ९१०२ – ४ x ३६० = ७६६२ से ७३०२ ई.पू. तक। इनके १८ पीढ़ी बाद उसी सूर्यवंश में राजा बाहु हुआ जो यवन आक्रमण में पराजित हुआ था।

रुरुकात्तु वृकः पुत्रस्तस्माद् बाहुर्विजज्ञिवान्॥११९॥ हैहयैस्तालजंघैश्च निरस्तो व्यसनी नृपः।

शकैर्यवनकाम्बोजैः पारदैः पह्लवैस्तथा॥१२०॥ (ब्रह्माण्ड पुराण २/३/६३)

मेगस्थनीज के अनुसार यह युद्ध भारतीय कालगणना से ३२६ ई.पू. जुलाई के सिकन्दर के आक्रमण से ६४५१ वर्ष ३ मास पूर्व अर्थात् अप्रैल ६७७७ ई.पू. में हुआ था, या मान्धाता से प्रायः ८-९०० वर्ष बाद जो १८ पीढ़ी अन्तर का समय है। उस समय यवन भारत की पश्चिमी सीमा पर थे। वे ययाति पुत्र अनु के वंशज या अनुयायी होने के कारण आनव या यवन (Ionian) कहे जाते थे। बाद में बाहु के पुत्र सगर ने यवनों को वहां से भगा दिय तब वे ग्रीस में बसे जिसका नाम यूनान (Ionia) हुआ।

परशुराम १९ वें त्रेता अर्थात् द्वितीय त्रेता के ९वें खण्ड में थे जो ५५०२ + २ x ३६० = ६२२२  से ६५८२ ई.पू. तक था। उनके निधन से ६१७७ ई.पू. में कलम्ब सम्वत् (कोल्लम्) आरम्भ हुआ जो आज भी केरल में प्रचलित है, पर उसमें हजार वर्ष नहीं लिखे जाते। इनके काल के राजतन्त्र विनाश को मेगस्थनीज ने १२० वर्ष का गणतन्त्र कहा है। इसमें २१ बार गणतन्त्र हुये, जिनको २१ बार क्षत्रियों का विनाश कहा गया है। यह राजाओं के शासन का नाश था, क्षत्रियों का नहीं। कुछ व्यक्ति अवश्य युध में मरे होंगे। सहस्रार्जुन वध के समय परशुराम अवश्य ३०-३५ वर्ष के रहे होंगे, उसके बाद १२० वर्ष गणतन्त्र रहने पर उनकी आयु प्रायः १२०+ ३५ = १५५, वर्ष होगी, अत उनको दीर्घजीवी कहा गया है। अतः परशुराम का जन्म प्रायः ६२९७ ई.पू. में था। इनको भारतीय गणना में डायोनिसस (बाहु कालीन यवन शासक) के १५ पीढ़ी बाद मानते हैं। यह प्रायः ५०० वर्षों का अन्तर है।

श्री राम २४ वें त्रेता में थे जो ५५०२-३ x३६० = ४४२२ ई.पू. में आरम्भ हुआ। उसके कुछ पूर्व वाल्मीकि रामायण की ग्रह स्थिति के अनुसार ११-२-४४३३ ई.पू. में राम-जन्म हुआ। इसके पूर्व अध्याय ७५ में मत्स्य अवतार का वर्णन है। अध्याय ८१ में कहा है कि प्रति कल्प में ऐसा ही होता है। इसी प्रकार राम जन्म के समय हुआ था।

कल्पानां सति सादृश्ये शृणु भेद नराधिप। समतीते यथा कल्पे षष्ठे मनवन्तरे गते॥२३॥

समतीते चतुर्विंशे राजंस्त्रेता युगे तदा। यदा रामेण समरे सगणो रावणो हतः॥२४॥


. भारतीय पञ्चाङ्ग-शक और सम्वत्सर-

शक किसी निर्दिष्ट काल से दिनों की गणना है। १ की गिनती को कुश द्वारा प्रकट किया जाता है। इनका समूह शक्तिशाली हो जाता है, अतः इसे शक (समुच्चय) कहते हैं। कुश आकार के बड़े वृक्ष भी शक हैं, जैसे उत्तर भारत में सखुआ (साल) तथा दक्षिण में शक-वन (सागवान)। मध्य एशिया तथा पूर्व यूरोप की बिखरी जातियां भी शक थीं। पर यह जम्बू द्वीप का अंश था। शक द्वीप भारत् के दक्षिण पूर्व में कहा गया है। यह आस्ट्रेलिया है जहां शक आकार के यूकलिप्टस वृक्ष बहुत हैं। भारत में हिमालय का दक्षिणी भाग ही शक (साल) क्षेत्र है जहां जन्म होने के कारण सिद्धार्थ बुद्ध को शाक्यमुनि कहते थे। पर गोरखपुर से दक्षिण पश्चिम ओड़िशा तक साल वृक्षों का क्षेत्र चला गया है जिसके दक्षिणी छोर पर राम ने ७ साल वृक्षों को भेदा था। यह भारत का लघु शक द्वीप है, जहां के ब्राह्मण शाकद्वीपीय कहलाते हैं।

चान्द्र और सौर वर्ष का समन्वय सम्वत्सर है। चन्द्रमा मन का नियन्त्रक है अतं पर्व चान्द्रतिथि के अनुसार होते है। ऋतु से समन्वय के लिये उसे सौर वर्ष के साथ मिलाया जाता है। इसके अनुसार समाज चलता है, अतः इसे सम्वत्सर कहते हैं। सम्वत्सर के अन्य कई अर्थ भी हैं-(१) पृथ्वी कक्षा, (२) सौर मण्डल जहां तक सूर्य प्रकाश १ सम्वत्सर में जाता है-१ प्रकाश वर्ष त्रिज्या का गोला। (३) गुरु वर्ष जो प्रायः सौर वर्ष के समान है। (४) वेदाङ्ग ज्योतिष के ५ प्रकार के वत्सरों में जो सौर वर्ष के सबसे निकट होता है उसे सम्वत्सर कहते हैं।

() स्वायम्भुव मनु काल-स्वायम्भुव मनु काल में सम्भवतः आज के ज्योतिषीय युग नहीं थे। यह व्यवस्था वैवस्वत मनु के काल से आरम्भ हुयी अतः उनसे सत्ययुग का आरम्भ हुआ। यदि ब्रह्मा से आरम्भ होता तो ब्रह्मा आद्य त्रेता में नहीं, सत्य युग के आरम्भ में होते। अथवा सत्ययुग पहले आरम्भ हो गया, पर सभ्यता का विकास काल त्रेता कहा गया। ब्रह्मा की युग व्यवस्था में युग पाद समान काल के थे जैसा ऐतरेय ब्राह्मण के ४ वर्षीय गोपद युग में या स्वायम्भुव परम्परा के आर्यभट का युग है। वर्ष का आरम्भ अभिजित् नक्षत्र से होता था, जिसे बाद में कार्त्तिकेय ने धनिष्ठा नक्षत्र से आरम्भ किया। कार्त्तिकेय काल में (१५८०० ई.पू.) यह वर्षा काल था। स्वायम्भुव मनु काल में यह उत्तरायण का आरम्भ था। किन्तु दोनों व्यवस्थाओं में माघ मास से ही वर्ष का आरम्भ होता था। मासों का नाम पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा के नक्षत्र से था, जो आज भी चल रहा है। मास का आरम्भ दोनों प्रकार से था-अमावास्या से या पूर्णिमा से। यह अयन गति के अन्तर के कारण बदलता होगा जैसा विक्रमादित्य ने महाभारत के ३००० वर्ष बाद शुक्ल पक्ष के बदले कृष्ण पक्ष से मासारम्भ कर दिया। दिन का आरम्भ भी कई प्रकार से था जैसा आज है। कई बार लिखा है कि वर्ष की प्रथम रात्रि कब थी।

कई प्रकार के वर्ष आरम्भ-शतं जीव शरदो वर्धमानः शतं हेमन्तांछतमुवसन्तान्॥ (ऋक १०/१६१/४, अथर्व २०/९६/९)

एष ह संवत्सरस्य प्रथमा रात्रिर्या फाल्गुनी पूर्णमासी॥ (शतपथ ब्राह्मण ६/२/२/१८)-रात्रि. फाल्गुन, पूर्णमासी से वर्ष का आरम्भ।

फाल्गुन्यां पौर्णमास्यां चातुर्मास्यानि प्रयुञ्जीत। मुखं वा एतत् संवत्सरस्य यत् फाल्गुनी पौर्णमासी। (गोपथ ब्राह्मण ६/१९)

अमावास्यया मासान्संपाद्याहरुत्सृजन्ति अमावास्या हि मासान् संपश्यति पौर्णमास्या मासान्संपाद्यहरुत्सृजन्ति पौर्णमास्या हि मासान् संपश्यति। (तैत्तिरीय संहिता ७/५/६/१)

ब्रह्मा के काल में सौर ऋतु वर्ष की भी गणना थी। इसमें सूर्य की उत्तरायण-दक्षिणायन गतियों के योग से वर्ष होता था। विषुव के उत्तर तथा दक्षिण ३-३ वीथियों में सूर्य १-१ मास रहता था। विषुव के उत्तर तथा दक्षिण में १२, २०, २४ अंश के अक्षांश वृत्तों से ये वीथियां बनती थीं। ३४ उत्तर अक्षांश का दिनमान सूर्य की इन रेखाओं पर स्थिति के अनुसार ८ से १६ घण्टा तक होगा। अतः दक्षिण से इन वृत्तों को गायत्री (६ x ४ अक्षर) से जगती छन्द (१२ x ४ अक्षर)  तक का नाम दिया गया।  यह नीचे के चित्र से स्पष्ट है। इसकी चर्चा ऋग्वेद (१/१६४/१-३, १२, १३, १/११५/३, ७/५३/२, १०/१३०/४), अथर्व वेद (८/५/१९-२०), वायु पुराण, अध्याय २, ब्रह्माण्ड पुराण अ. (१/२२), विष्णु पुराण (अ. २/८-१०) आदि में है। इनके आधार पर पं. मधुसूदन ओझा ने आवरणवाद में इसकी व्याख्या की है (श्लोक १२३-१३२)। बाइबिल के इथिओपियन संस्करण में इनोक की पुस्तक के अध्याय ८२ में भी यही वर्णन है।

छन्दों की अक्षर संख्या-गायत्री ६ x ४, उष्णिक् ७ x ४, अनुष्टुप् ८ x ४, बृहती ९ x ४, पंक्ति १० x ४, त्रिष्टुप् ११ x  ४, जगती १२ x ४

() ध्रुव पञ्चाङ्ग-ध्रुव को स्वायम्भुव मनु का पौत्र कहा गया है, किन्तु उनमें कुछ अधिक अन्तर होगा। भागवत, विष्णु पुराणों के अनुसार ध्रुव को परम पद मिला तथा उनके चारों तरफ सप्तर्षि भ्रमण से काल गणना शुरु हुई। उस काल से ८१०० वर्ष का ध्रुव संवत्सर शुरु हुआ जिसका तीसरा चक्र ३०७६ ई.पू. में पूर्ण हुआ। ध्रुव काल ३ x ८१०० + ३०७६ = २७,३७६ ई.पू हुआ। कुंवरलाल जैन ने अपूर्ण वंशावली के आधार पर पृथु तक की काल गणना की है। संवत्सरों के अनुसार इसके २ आधार हो सकतेहैं-स्वायम्भुव से वैवस्वत मनु तक के काल को ६ भाग में बांटने पर १-१ मन्वन्तर का काल आयेगा। यह प्रायः १५,२००/६ = २५३४ वर्ष होगा। यह सप्तर्षि वत्सर के निकट है, अतः २७०० वर्ष का सप्तर्षि चक्र तथा उसका ३ गुणा ध्रुव वर्ष लेना अधिक उचित है। ध्रुव काल के वर्णन में प्रायः २७०० वर्ष का लघु-मन्वन्तर तथा ८१०० वर्ष का कल्प हो सकता है। १९२७६ ई.पू. में क्रौञ्च द्वीप का प्रभुत्व था जिसपर बाद में कार्त्तिकेय ने आक्रमण किया।

() कश्यप१७५०० ई.पू. में देव-असुरों की सभ्यता आरम्भ हुई। तथा राजा पृथु काल में पर्वतीय क्षेत्रों को समतल बना कर खेती, नगर निर्माण आदि हुये। खनिजों का दोहन हुआ। इन कालों में नया युग आरम्भ हुआ पर उनका पञ्चाङ्ग स्पष्ट नहीं है।

() कार्त्तिकेय पञ्चाङ्ग-पृथ्वी के उत्तर ध्रुव की दिशा अभिजित् से हट गयी थी, अतः १५,८०० ई.पू. में कार्त्तिकेय ने बह्मा की सलाह से धनिष्ठा से वर्ष आरम्भ किया जो वेदाङ्ग ज्योतिष में चलता है।

ऋग् ज्योतिष (३२, ५,६) याजुष ज्योतिष (५-७)

माघशुक्ल प्रपन्नस्य पौषकृष्ण समापिनः। युगस्य पञ्चवर्षस्य कालज्ञानं प्रचक्षते॥५॥

स्वराक्रमेते सोमार्कौ यदा साकं सवासवौ। स्यात्तदादि युगं माघः तपः शुक्लोऽयनं ह्युदक्॥६॥

प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्। सार्पार्धे दक्षिणार्कस्तु माघश्रवणयोः सदा॥७॥

यह माघ से आरंभ वर्ष ब्रह्मा के समय से था, जब सूर्य का प्रवेश अभिजित् नक्षत्र में होता था। स्वायम्भुव मनु काल में अभिजित् (श्रवण-धनिष्ठा का मध्य श्रविष्ठा) से उत्तरायण होता था, यह २९१०२ ईसा पूर्व में था। प्रायः १६००० ईसा पूर्व में अभिजित् नक्षत्र से उत्तरी ध्रुव दूर हो गया जिसे उसका पतन कहा गया है। तब इन्द्र ने कार्त्तिकेय से कहा कि ब्रह्मा से विमर्श कर काल निर्णय करें-

महाभारत, वन पर्व (२३०/८-१०)-

अभिजित् स्पर्धमाना तु रोहिण्या अनुजा स्वसा। इच्छन्ती ज्येष्ठतां देवी तपस्तप्तुं वनं गता॥८॥

तत्र मूढोऽस्मि भद्रं ते नक्षत्रं गगनाच्युतम्। कालं त्विमं परं स्कन्द ब्रह्मणा सह चिन्तय॥९॥

धनिष्ठादिस्तदा कालो ब्रह्मणा परिकल्पितः। रोहिणी ह्यभवत् पूर्वमेवं संख्या समाभवत्॥१०॥

उस काल में धनिष्ठा में सूर्य के प्रवेश के समय वर्षा का आरम्भ होता था, जब दक्षिणायन आरम्भ होता था। कार्त्तिकेय के पूर्व असुरों का प्रभुत्व था, अतः दक्षिणायन को असुरों का दिन कहा गया है-

सूर्य सिद्धान्त, अध्याय १-मासैर्द्वादशभिर्वर्षं दिव्यं तदह उच्यते॥१३॥

सुरासुराणामन्योन्यमहोरात्रं विपर्ययात्। षट् षष्टिसङ्गुणं दिव्यं वर्षमासुरमेव च॥१४॥

 () विवस्वान् पञ्चाङ्ग-यह वैवस्वत मनु के पिता थे अतः इनका भी काल १३९०२ ई.पू. माना जा सकता है, जिसके बाद १२००० वर्ष का अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी चक्र तथा चैत्र शुक्ल से वर्ष आरम्भ हुये। इसके बाद सूर्य सिद्धान्त के कई संशोधन हुये। मयासुर का संशोधन जल प्रलय के बाद सत्ययुग समाप्ति के अल्प (१२१ वर्ष) बाद रोमकपत्तन में हुआ।

सूर्य सिद्धान्त प्रथम अध्याय-अल्पावशिष्टे तु कृते मयो नाम महासुरः। रहस्यं परमं पुण्यं जिज्ञासुर्ज्ञानमुत्तमम्॥२॥

वेदाङ्गमग्र्यखिलं ज्योतिषां गतिकारणम्। आराधयन्विवस्वन्तं तपस्तेपे सुदुष्करम्॥३॥

तोषितस्तपसा तेन प्रीतस्तस्मै वरार्थिने। ग्रहाणां चरितं प्रादान्मयाय सविता स्वयम्॥४॥

तस्मात् त्वं स्वां पुरीं गच्छ तत्र ज्ञानम् ददामि ते। रोमके नगरे ब्रह्मशापान् म्लेच्छावतार धृक्॥ (पूना, आनन्दाश्रम प्रति)

शृण्वैकमनाः पूर्वं यदुक्तं ज्ञानमुत्तमम्। युगे युगे महर्षीणां स्वयमेव विवस्वता॥८॥

शास्त्रमाद्यं तदेवेदं यत्पूर्वं प्राह भास्करः। युगानां परिवर्तेन कालभेदोऽत्र केवलम्॥९॥

नवम श्लोक की गूढ़ार्थ-प्रकाशिका टीका में रङ्गनाथ जी ने लिखा है-तथा च कालवशेन ग्रहचारे किञ्चिद्वैलक्ष्यण्यं भवतीति युगान्तरे तत्तदनन्तरं ग्रहचारेषु प्रसाध्य तत्कालस्थित लोकव्यवहारार्थं शास्त्रान्तरमिव कृपालु रुक्तवानिभिनान्त शास्त्राणां वैयर्थ्यम्। एवञ्च मया वर्तमान युगीय सूर्योक्त शास्त्र सिद्धग्रहचारमङ्गीकृत्य सूर्योक्त शास्त्रसिद्धं ग्रहचारं च प्रयोजनाभावादुपेक्ष्य तदुक्तमेवत्यां प्रत्य्पविश्यत इति भावः। एवञ्च युग मध्येऽप्यवान्तर काले ग्रहचारेष्वन्तर दर्शने तत्तत्काले तदन्तरं असाध्य ग्रन्थास्तकाल वर्तमानाभियुक्ताः कुर्वन्ति। तदिदमन्तरं पूर्व ग्रन्थे वीजमित्यामनन्ति। पूर्वग्रन्थानां लुप्तत्वात् सूर्य्यर्षि संवादोऽपीदानीं न दृष्यत इति। तदप्रसिद्धिरागम प्रामाण्याच्च नाशंक्या।

सुरासुराणामन्योन्यमहोरात्रं विपर्ययात्। षट् षष्टिसंगुणं दिव्यं वर्षमासुरमेव च॥१४॥

तद्द्वादशसहस्राणि चतुर्युगमुदाहृतम्। सूर्याब्दसंख्यया द्वित्रिसागरैरयुताहतैः॥१५॥

सन्ध्यासन्ध्यांशसहितं विज्ञेयं तच्चतुर्युगम्। कृतादीनां व्यवस्थेयं धर्मपादव्यवस्थया॥१६॥

युगस्य दशमो भागः चतुस्त्रिद्व्य़ेक संगुणः। क्रमात्कृतयुगादीनां षष्ठांऽशः सन्ध्ययोः स्वकः॥१७॥

युगानां सप्ततिस्सैका मन्वन्तरमिहोच्यते। कृताब्दसङ्ख्या तस्यान्ते सन्धिः प्रोक्तो जलप्लवः॥१८॥

(क) ज्योतिष का ज्ञान विवस्वान् ने समय समय पर महर्षियों को दिया था। (श्लोक ८) यहां प्रत्येक युग के लिये अलग-अलग ज्ञान देने की बात है। अतः प्रत्येक युग के लिये अलग गणना पद्धति होगी, जो अगले श्लोक ९ में भी स्पष्ट है। यहां युग का क्या मान होगा यह विचारणीय है।  सूर्य सिद्धान्त में १२००० दिव्य वर्षों के युग के अनुसार ग्रहगति की गणना है, जहां दिव्य वर्ष = ३६० वर्ष (श्लोक १४-१५) । जिस युग में गणना मे संशोधन करना है, वह कोई छोटा युग है। एक सम्भावना है कि इस युग में दिव्य वर्ष का अर्थ सौर वर्ष है, जिस चक्र में बीज संस्कार की चर्चा ब्रह्मगुप्त तथा भास्कर-२ ने की है-

खाभ्रखार्कै (१२०००) हृताः कल्पयाताः समाः शेषकं भागहारात् पृथक् पातयेत्।

यत्तयोरल्पकं तद् द्विशत्या (२००) भजेल्लिप्तिकाद्यं तत् त्रिभिः सायकैः (५)॥

पञ्च पञ्चभूमिः (१५) करा (२) भ्यां हतं भानुचन्द्रेज्यशुक्रेन्दुतुङ्गेष्वृणम्।

इन्दुना (१) दस्रबाणैः (५२) करा (२)भ्यां कृतर्भौमसौम्येन्दुपातार्किषु स्वं क्रमात्। (सिद्धान्त शिरोमणि, भूपरिधि-७,८)

स्वोपज्ञ भाष्य-अत्रोपलब्धिरेव वासना। यद्वर्ष सहस्रषट्कं यावुपचयस्ततोऽपचय इत्यत्रागम एव प्रमाणं नान्यत् कारणं वक्तुं शक्यत इत्यर्थः।

ब्रह्मगुप्त-खखखार्क (१२०००) हृताब्देभ्यो गतगम्याल्पाः खशून्ययमल (२००) हृताः।

लब्धं त्रि (३) सायकं (५) हतं कलाभिरूनौ सदाऽर्केन्दू ॥६०॥

शशिवत् जीवे द्विहतं चन्द्रोच्चे तिथि (१५) हतं तु सितशीघ्रे।

द्वीषु (५२) हतं च बुधोच्चे द्वि (२) कु (१) वेद हतं च पात कुज शनिषु॥६१॥

(ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त, सुधाकर द्विवेदी संस्करण, मध्यमाधिकार)

(ख) यह आद्य सिद्धान्त है। इसके पूर्व ब्रह्मा का पितामह सिद्धान्त था, वह ब्रह्मा के काल में था किन्तु आकाश के सूर्य की गति पर ही आधारित था, या जिसने इस सिद्धान्त की व्याख्या की उसे उस युग का सूर्य माना गया, भास्कर =सूर्य, वराहमिहिर (मिहिर =सूर्य) आदि। यह पूर्ववर्ती पितामह सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं है, उसी की परम्परा में है, अतः इसे आद्य कहा गया है।

(ग) श्लोक २ में कहा है कि सत्ययुग में अल्प काल बाकी था। पर श्लोक २३ में सत्ययुग के अन्त तक गणना दी गयी है। इसका सम्भावित अर्थ है कि सत्ययुग से कुछ पूर्व मय असुर ने यह सिद्धान्त निकाला पर उसका व्यवहार सत्ययुग की समाप्ति से हुआ।

(घ) प्रति युग में महर्षियों को ही सूर्य ज्ञान देते थे, पर इस बार मय असुर को क्यों ज्ञान दिया? महर्षि केवल भारत या देव जाति में ही नही, वरन् असुरों में भी हो सकते हैं। प्रह्लाद तथा विभीषण को भी परम भागवत कहा गया है। ज्योतिष में विश्व के सभी भागों के स्थानों का विवरण है, जो परस्पर ९० अंश देशान्तर पर हैं। यह भी दिखाता है कि पूरे विश्व का सहयोग तथा मानचित्र आवश्यक है जिसके बिना चन्द्र तथा अन्य ग्रहों की दूरी नहीं ज्ञात हो सकती।

(ङ) पुराणों में ९०-९० अंश देशान्तर के अन्य स्थानों की चर्चा है, जो इससे पूर्व काल का है।

(च) श्लोक १८ में मन्वन्तर की सन्धि के बाद जल-प्लव लिखा है। मय असुर ने स्पष्टतः सत्ययुग के अन्त में इसका प्रणयन किया जिसके पूर्व सत्ययुग के आरम्भ में जल प्रलय हुआ था। आधुनिक भूगर्भ-शास्त्र के अनुसार प्रायः १०००० ईसा पूर्व में जल-प्रलय हुआ था, जो १०००-१५०० वर्षों तक था।

(छ) सृष्टि निर्माण में श्लोक २४ के अनुसार ४७४०० दिव्य वर्ष लगे। यह अन्य सिद्धान्त ग्रन्थों ब्राह्म-स्फुट-सिद्धान्त या सिद्धान्त-शिरोमणि आदि में वर्णित नहीं है। सम्भवतः जल-प्रलय के आद गणना को ठीक करने के लिये मय असुर द्वारा गणित सूत्र के संशोधन के लिये है, वास्तविक सृष्टि निर्माण काल नहीं है।

(ज) पूरे विश्व में सर्व-सम्मति से सूर्य सिद्धान्त के माप तथा गणित विधियां मानी जाती थीं। मय असुर का संशोधन भी रोमक पत्तन में होने के बावजूद विश्व में स्वीकृत हुआ तथा भारत में अभी भी प्रचलित है। इसके लिये किसी शक्तिशाली राज्य के नेतृत्व में विश्व सम्मेलन अपेक्षित है। विश्व माप के ४ केन्द्र लंका या उज्जैन, उससे ९० अंश दूरी पश्चिम रोमक-पत्तन, १८० अंश पश्चिम या पूर्व सिद्धपुर तथा ९० अंश पूर्व यमकोटिपत्तन थे। जल-प्रलय के तुरत बाद भारत में सभ्यता का पुनः आरम्भ ऋषभदेव जी द्वारा हुआ, जो स्वायम्भुव मनु की तरह आरम्भ कार्य करने के कारण उनके वंशज कहे गये हैं तथा जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं। वायु, मत्स्य, ब्रह्माण्ड आदि पुराणों में २८ व्यासों की गिनती में स्वायम्भुव मनु प्रथम तथा ऋषभदेव ११वें कहे गये हैं।

(झ) १ युग = १२००० वर्ष के बाद पुनः संशोधन की आवश्यकता होगी। क्या पुनः सूर्य का अवतार होगा? रंगनाथ जी के अनुसार नहीं। संशोधन कर्त्ता ही सूर्य का अवतार है।

() इक्ष्वाकु काल से भी काल गणना आरम्भ हुई थी। महालिंगम के अनुसार उनका काल १११८५७६ ई.पू. चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से हुआ। यह तंजाउर के मन्दिरों की गणना के आधार पर है।

() परशुराम पञ्चाङ्ग६१७७ ई.पू.-परशुराम के निधन पर कलम्ब (कोल्लम्) सम्वत्। परशुराम १९वें त्रेता में थे। यहां १ युग खण्ड ३६० वर्षों का है। त्रेता में १० खण्ड होंगे। प्रथम १० खण्ड विवस्वान् के पूर्व बीत गये। उनके बाद के त्रेता में ११वां खण्ड आरम्भ हुआ, तभी १० से अधिक खण्ड सम्भव हैं। दूसरा त्रेता ९१०२ ई.पू. में आरम्भ हुआ, उसमें ८ त्रेता ९१०२ – ८ x ३६० = ६२२२ ई.पू. में बीते। उससे ३६० वर्षों के भीतर परशुराम का काल है। सहस्र वर्षों को छोड़ने पर ८२४ ई. में कोल्लम सम्वत् आरम्भ हुआ, अतः परशुराम काल ७०००-८२३ में होगा (० वर्ष नहीं गिना जाता है)। इसका अन्य प्रमाण है कि मेगास्थनीज ने सिकन्दर से ६४५१ वर्ष ३ मास पूर्व अर्थात् ६७७७ ई.पू. अप्रैल मास में डायोनिसस का भारत आक्रमण लिखा है जिसमें पुराणों के अनुसार सूर्यवंशी राजा बाहु मारा गया थ। उससे १५ पीढ़ी बाद हरकुलस (विष्णु-पृथ्वी को धरण करने वाला-पृथिवी त्वया धृता लोकाः, देवि त्वं विष्णुना धृता) का जन्म हुआ। इस काल के विष्णु अवतार परशुराम थे। उनका काल प्रायः ६०० वर्ष बाद आता है जो १५ पीढ़ी का काल है। मयासुर के ३०४४ वर्ष बाद ऋतु १.५ मास पीछे खिसक गया था अतः नये सम्वत् का प्रचलन हुआ।

() कलि के पञ्चाङ्ग-राम का जन्म ११-२-४४३३ ई.पू. में हुआ था पर उस काल के किसी पञ्चाङ्ग का उल्लेख नहीं है। परशुराम के ३००० वर्ष बाद कलियुग आरम्भ में ही नये पञ्चाङ्ग की आवश्यकता हुयी। युधिष्ठिर काल में ४ प्रकार के पञ्चाङ्ग हुये-(क) युधिष्ठिर शक-यह उनके राज्याभिषेक के दिन १७-१२-३१३९ ई.पू. से हुआ। उसके ५ दिन बाद उत्तरायण माघशुक्ल सप्तमी को हुआ। अतः अभिषेक प्रतिपदा या द्वितीया को था। (ख) कलि सम्वत्-शासन के ३६ वर्ष से कुछ अधिक बीतने पर १७-२-३१०२ ई.पू. उज्जैन मध्यरात्रि से कलियुग आरम्भ हुआ जब भगवान् कृष्ण का देहान्त हुआ। उसके २दिन २-२७-३० घं.मि.से. बाद २०-२-३१०२ ई.पू २-२७-३० घं.मि.से. से चैत्र शुक्ल प्रतिपदा आरम्भ हुआ। (ग) जयाभ्युदय शक-भगवान् कृष्ण के देहान्त के ६ मास ११ दिन बाद २२-८-३१०२ ई.पू. को जब विजय के बाद जय सम्वत्सर आरम्भ हुआ, तो युधिष्ठिर ने अभ्युदय के लिये सन्यास लिया। यह परीक्षित शासन से आरम्भ होता है तथा  जनमेजय ने इसी का प्रयोग अपने दान-पत्रों में किया है। (घ) कलि के २५ वर्ष बीतने पर कश्मीर में युधिष्ठिर का देहान्त हुआ जब सप्तर्षि मघा से निकले। उस समय (३०७६ ई.पू. मेष संक्रान्ति) से लौकिक या सप्तर्षि सम्वत्सर आरम्भ हुआ जो कश्मीर में प्रचलित था तथा राजतरङ्गिणी में प्रयुक्त है।

() भटाब्द-आर्यभट काल से केरल में भटाब्द प्रचलित था। महाभारत काल में २ प्रकार के सिद्धान्त प्रचलित थे। पराशर मथ तथा आर्य मत। यहां पराशर मत पराशर द्वारा लिखित विष्णुपुराण में है जो मैत्रेय ऋषि ने उनको खण्ड १ तथा २ में कहा है। यह सूर्य सिद्धान्त की परम्परा में है, अतः ऋषि को मैत्रेय (मित्र =सूर्य, सौर वर्ष का प्रथम मास, उत्तरायण से) कहा गया है। द्वितीय मत आर्य मत है जो स्वायम्भुव मनु की परम्परा से था। इसकी परम्परा में कलि के कुछ बाद (३६० वर्ष) आर्यभट ने आर्यभटीय लिखा। विवस्वान् या सूर्य पिता हैं, उनके पूर्व के स्वायम्भुव मनु ब्रह्मा या पितामह हैं। आज भी आर्य (अजा)का अर्थ पटना के निकट तथा ओडिशा आदि में पितामह होता है।

(१०) जैन युधिष्ठिर शक-जिनविजय महाकाव्य का जैन युधिष्ठिर शक ५०४ युधिष्ठिर शक (२६३४ ई.पू.) में आरम्भ होता है। इसके अनुसार कुमारिल भट्ट का जन्म ५५७ ई.पू. (२०७७) क्रोधी सम्वत्सर (सौर मत) में तथा शंकराचार्य का निर्वाण ४७७ ई.पू. (२१५७) राक्षस सम्वत्सर में कहा है-

ऋषि(७)र्वार (७)स्तथा पूर्ण(०) मर्त्याक्षौ (२) वाममेलनात्। एकीकृत्य लभेताङ्क क्रोधीस्यात्तत्र वत्सरः॥

भट्टाचार्य कुमारस्य कर्मकाण्डैकवादिनः। ज्ञेयः प्रादुर्भवस्तस्मिन् वर्षे यौधिष्ठिरे शके॥

ऋषि(७)र्बाण(५) तथा भूमि(१)र्मर्त्याक्षौ (२) वाममेलनात्, एकत्वेन लभेताङ्कस्तम्राक्षास्तत्र वत्सरः॥ (शंकर निधन)

यह पार्श्वनाथ का संन्यास या निधन काल है। उनका संन्यास पूर्व नाम युधिष्ठिर रहा होगा या वे वैसे ही धर्मराज या तीर्थङ्कर थे। भगवान् महावीर (जन्म ११-३-१९०२ ई.पू.) में पार्श्वनाथ का ही शक चल रहा था। युधिष्ठिर की ८ वीं पीढ़ी में निचक्षु के शासन में हस्तिनापुर डूब गया था- यह सरस्वती नदी के सूखने का परिणाम था। उस समय १०० वर्ष की अनावृष्टि कही गयी है जब दुर्भिक्ष रोकने के लिये शताक्षी या शाकम्भरी अवतार हुआ।

दुर्गा-सप्तशती (११/४६-४९)-

भूयश्च शतवार्षिक्यामनावृष्ट्यामनम्भसि। मुनिभिः संस्तुता भूमौ सम्भविष्याम्ययोनिजा॥४६॥

ततः शतेन नेत्राणां निरीक्षिष्यामि यन्मुनीन्। कीर्तयिष्यन्ति मनुजाः शताक्षीमिति मां ततः॥४७॥

ततोऽहमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्भवैः। भरिष्यामि सुराः शाकैरावृष्टेः प्राणधारकैः॥४८॥

शाकम्भरीति विख्यातिं तदा यास्याम्यहं भुवि। तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यं महासुरम्॥४९॥

विष्णु पुराण (४/२१)-अतः परं भविष्यानहं भूपालान्कीर्तयिष्यामि॥१॥ योऽयं साम्प्रतमवनीपतिः परीक्षित्तस्यापि जनमेजय-श्रुतसेनो-ग्रसेन-भीमसेनश्चत्वारः पुत्राः भविष्यन्ति॥२॥ जनमेजयस्यापि शतानीको भविष्यति॥३॥ योऽसौ याज्ञवल्क्याद्वेदमधीत्य कृपादस्त्राण्यवाप्य विषम-विषय-विरक्त-चित्तवृत्तिश्च शौनकोपदेशादात्म-ज्ञान-प्रवीणः परं निर्वाणमवाप्स्यति॥४॥ शतानीकादश्वमेधदत्तो भविता॥५॥ तस्मादप्यधिसीमकृष्णः॥६॥ अधिसीमकृष्णान्निचक्षुः॥७॥ यो गङ्गयापहृते हस्तिनापुरे कौशाम्ब्यां निवत्स्यति॥८॥

 उसकी दो पीढ़ी बाद वाराणसी के राजपरिवार में पार्श्वनाथ जी का जन्म हुआ। दुर्भिक्ष में कई वैज्ञानिक तथा अन्य शास्त्र नष्ट हो गये।

(११) शिशुनाग काल-पाल बिगण्डेट की पुस्तक बर्मा की बौद्ध परम्परा में बुद्ध निर्वाण से अजातशत्रु काल में एक नये वर्ष का आरम्भ कहा गया है (बर्मी में इत्यान = निर्वाण)। इसके १४८ वर्ष पूर्व अन्य वर्ष आरम्भ हुआ था जिसे बर्मी में कौजाद (शिशुनाग?) कहा है। बुद्ध निर्वाण (२७-३-१८०७ ई.पू.) से १४८ वर्ष पूर्व १९५४ ई.पू. में शिशुनाग का शासन समाप्त हुआ।

(१२) नन्द शक-महापद्मनन्द का अभिषेक सभी पुराणों का विख्यात कालमान है। यह परीक्षित जन्म के १५०० (१५०४) वर्ष बाद हुआ था। इसमें १५०० को पार्जिटर ने १०५० कर दिया जिससे कलि आरम्भ को बाद का किया जा सके।खारावेल शिलालेख में भी लिखा है कि नन्द अभिषेक के त्रिवसुशत (८०३) वर्ष के बाद उसके शासन के ४ वर्ष पूर्ण हुये जब उसने प्राची नहर की मरम्मत करायी। यह नन्द काल में बनी थी। यहां ’त्रिवसु शत’ को ’त्रिवर्ष शत’ कर इतिहासकारों ने १०३ या ३००वर्ष आदि मनमाने अर्थ किये हैं।

 यावत् परीक्षितो जन्म यावत् नन्दाभिषेचनम् । तावत् वर्ष सहस्रं च ज्ञेयं पञ्चशतोत्तरम् ॥ (विष्णु पुराण, ४/२४/१०४) यहां पञ्चशतोत्तरम् (१५००) को पञ्चाशतोत्तरम् कर दिया है।

आर्यभटीय (१/५)-काहो मनवो ढ, मनुयुगाः श्ख, गतास्ते च, मनुयुगाः छ्ना च।

कल्पादेर्युगपादा ग च, गुरु दिवसाच्च, भारतात् पूर्वम्॥

धूसीकाल (३१७९)-युतः शाकः कल्यब्द इति कीर्तितः॥ (वाक्यकरण, १/२)

गतवर्षान्त कोलम्बवर्षाः तरळगा (३९२६) स्थिताः।

कल्यब्दा धीस्थकाला (३१७९) ढ्याः शकाब्दा वा भवन्ति ते॥ (पुतुमन सोमयाजी, करण पद्धति)

भागवत पुराण (१२/२/३)-यस्मिन् कृष्णो दिवं यातस्तस्मिन्नेव तदाहनि। प्रतिपन्नं कलियुगमिति प्राहुः पुराविदः॥

(१/१५/३७) यदा मुकुन्दो भगवानिमां महीं जहौ स्वतन्त्रा श्रवणीय सत्कथः।

तदाहरे वा प्रतिबुद्धचेतसामधर्महेतुः कलिरन्ववर्तत॥

लल्ल-शिष्यधीवृद्धिदतन्त्र(१/१२)-नवाद्रिचन्द्रानलसंयुतोभवेच्छकक्षितीशाब्दगणो गतः कलेः।

दिवाकरघ्नो गतमाससंयुतः कुवह्निनिघ्नस्तिथिभिः समन्वितः॥

भास्कर-२ (सिद्धान्त शिरोमणि १/२८)-याताः षण्मनवो युगानि भमितान्यन्यद्युगाङ्घ्रित्रयं,

नन्दाद्रीन्दुगुणा (१३७९) स्तथा शकनृपस्यान्ते कलेर्वत्सराः।

(१३) शूद्रक शक-यह ७५६ ई.पू. में आरम्भ हुआ। जेम्स टाड ने सभी राजपूत राजाओं को विदेशी शक मूल का सिद्ध करने के लिये उनकी बहुत सी वंशावलियां तथा ताम्रपत्र आदि नष्ट किये तथा राजस्थान कथा (Annals of Rajsthan) में अग्निवंशी राजाओं का काल थोड़ा बदल कर प्रायः ७२५ ई.पू. कर दिया।

काञ्चुयल्लार्य भट्ट-ज्योतिष दर्पण-पत्रक २२ (अनूप संस्कृत लाइब्रेरी, अजमेर एम्.एस नं ४६७७)-

बाणाब्धि गुणदस्रोना (२३४५) शूद्रकाब्दा कलेर्गताः॥७१॥ गुणाब्धि व्योम रामोना (३०४३) विक्रमाब्दा कलेर्गताः॥

इस समय असुर (असीरिया के नबोनासर आदि) आक्रमण को रोकने के लिये ४ प्रमुख राजवंशों का संघ आबू पर्वत पर विष्णु अवतार बुद्ध की प्रेरणा से बना। इन राजाओं को अग्रणी होने के कारण अग्निवंशी कहा गया-परमार, प्रतिहार, चालुक्य तथा चाहमान।

भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व (१/६)-

एतस्मिन्नेवकाले तु कान्यकुब्जो द्विजोत्तमः। अर्बुदं शिखरं प्राप्य ब्रह्महोममथाकरोत्॥४५॥

वेदमन्त्रप्रभावाच्च जाताश्चत्वारि क्षत्रियाः। प्रमरस्सामवेदी च चपहानिर्यजुर्विदः॥४६॥

त्रिवेदी च तथा शुक्लोऽथर्वा स परिहारकः॥४७॥ अवन्ते प्रमरो भूपश्चतुर्योजन विस्तृता।।४९॥

प्रतिसर्ग (१/७)-चित्रकूटगिरिर्देशे परिहारो महीपतिः। कालिंजर पुरं रम्यमक्रोशायतनं स्मृतम्॥१॥

राजपुत्राख्यदेशे च चपहानिर्महीपतिः॥२॥ अजमेरपुरं रम्यं विधिशोभा समन्वितम्॥३॥

शुक्लो नाम महीपालो गत आनर्तमण्डले। द्वारकां नाम नगरीमध्यास्य सुखिनोऽभवत्॥४॥

४ राजाओं का संघ होने के कारण यह कृत संवत् भी कहा जाता है तथा इन्द्राणीगुप्त को सम्मान के लिये शूद्रक कहा गया-शूद्र ४ जातियों का सेवक है।

(१४) चाहमान शक-दिल्ली कॆ चाहमान राजा ने ६१२ ईसा पूर्व में असीरिया की राजधानी निनेवे को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया, जिसका उल्लेख बाइबिल में कई स्थानों पर है। इसके नष्टकर्त्ता को सिन्धु पूर्व के मधेस (मध्यदेश, विन्ध्य तथा हिमालय के बीच) का शासक कहा गया है।

 http://bible.tmtm.com/wiki/NINEVEH_%28Jewish_Encyclopedia%29-

The Aryan Medes, who had attained to organized power east and northeast of Nineveh, repeatedly invaded Assyria proper, and in 607 succeeded in destroying the city

Media-From BibleWiki (Redirected from Medes)-They appear to have been a branch of the Aryans, who came from the east bank of the Indus, …

इस समय जो शक आरम्भ हुआ उसका उल्लेख वराहमिहिर की बृहत् संहिता में है तथा कालिदास, ब्रह्मगुप्त ने भी इसी का पालन किया है। वराहमिहिर-बृहत् संहिता (१३/३)-

आसन् मघासु मुनयः शासति पृथ्वीं युधिष्ठिरे नृपतौ। षड्-द्विक-पञ्च-द्वि (२५२६) युतः शककालस्तस्य राज्ञस्य॥

(१५) श्रीहर्ष शक (४५६ ईसा पूर्व)-इसका उल्लेख अलबरूनि ने किया है। शूद्रक के बाद ३०० वर्ष तक मालवगण चला-जिसे मेगस्थनीज ने ३०० वर्षों का गणराज्य कहा है। लिच्छवी तथा गुप्त राजाओं ने इसका प्रयोग किया है पर इसे निरक्षर इतिहासकारों ने हर्षवर्धन (६०५-६४६ इस्वी) से जोड़ दिया है।

(१६) विक्रम संवत्-५७ ईसा पूर्व में उज्जैन के परमार वंशी राजा विक्रमादित्य (८२ ईसा पूर्व-१९ ईस्वी) ने आरम्भ किया। उनका राज्य (परोक्षतः) अरब तक था तथा जुलिअस सीजर के राज्य में भी उनके संवत् के ही अनुसार सीजर के आदेश के ७ दिन बाद विक्रम वर्ष १० के पौष कृष्ण मास के साथ वर्ष का आरम्भ हुआ।

History of the Calendar, by M.N. Saha and N. C. Lahiri (part C of the Report of The Calendar Reforms Committee under Prof. M. N. Saha with Sri N.C. Lahiri as secretary in November 1952-Published by Council of Scientific & Industrial Research, Rafi Marg, New Delhi-110001, 1955, Second Edition 1992.

 Page, 168-last para-“Caesar wanted to start the new year on the 25th December, the winter solstice day. But people resisted that choice because a new moon was due on January 1, 45 BC. And some people considered that the new moon was lucky. Caesar had to go along with them in their desire to start the new reckoning on a traditional lunar landmark.”

यहां बिना गणना के मान लिया गया है कि वर्ष आरम्भ के दिन शुक्ल पक्ष का आरम्भ था, पर वह विक्रम सम्वत् के पौष मास का आरम्भ था। केवल विक्रम वर्ष में ही चान्द्र मास का आरम्भ कृष्ण पक्ष से होता है. बाकी सभी शुक्ल पक्ष से आरम्भ होते हैं। इसी विक्रमादित्य के दरबार में कालिदास, वराहमिहिर आदि ९ रत्न विख्यात थे।

(१७) शालिवाहन शक-विक्रमादित्य के देहान्त के बाद ५० वर्ष तक भारत विदेशी आक्रमणों का शिकार रहा। तब उनके पौत्र शालिवाहन ने उनको पराजित कर सिन्धु के पश्चिम भगा दिया। उनके काल में प्राकृत भाषाओं का प्रयोग राजकार्य में आरम्भ हुआ। इनके काल मॆ ईसा मसीह ने कश्मीर में शरण लिया (हजरत बाल) ।

(१८) कलचुरि या चेदि शक (२४६ इसवी),

(१९) वलभी भंग (३१९ ईस्वी)-गुप्त राजाओं की परवर्त्ती शाखा गुजरात के वलभी में शासन कर रही थी जिसका अन्त इस समय हुआ। निरक्षर इतिहासकार इसके १ वर्ष बाद गुप्त काल का आरम्भ कहते हैं।


Arun Upadhyay IPS Formar DGP Cuttack, Orissa

लेखक : अरुण उपाध्‍याय, आईपीएस, पूर्व डीजीपी कटक उड़ीसा