बाजार का दबाव किस तरह सत्ता को बदल देता है इसका दूसरा उदाहरण मैंने अपनी जिंदगी में देखा है। पहला उदाहरण था भारतीय सुंदरियों का विश्व विजयी होना। भारत की उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के ठीक बाद यह घटना हुई।
यानि अचानक भारतीय सुंदरियां इतनी सुंदर और समझदार हो गई कि उन्होंने गोरी चमड़ी और उनके दीर्घकालीन प्रशिक्षणों तक को धता बजाते हुए विश्व की दो सबसे बड़ी स्पद्धाओं में ब्रह्माण्ड सुंदरी और विश्व सुंदरी के खिताब हासिल कर लिए। इसके बाद तो भारत की हर सुंदरी विश्व विजय का ख्वाब देखने लगी। सभी को पता था कि चेहरे का अधिक महत्व नहीं है।
सुंदर होने के लिए कुछ कैमिकल्स और कुछ प्रशिक्षण की जरूरत है बस। देसी कंपनियों के पास वह कैमिकल नहीं था और विदेशी कंपनियों के लिए विश्व स्तर की भारतीय सुंदरियों वकालत की। चाहे एड में ही सही। लेकिन असर हुआ और गारनियर से लेकर लोरियाल तक की कंपनियों ने बढ़ते बाजार में जमकर माल बेचा। माल इतना अधिक बिका कि फेयर एण्ड लवली को तो अपनी विज्ञापनो में यहां तक लिखना पड़ा कि केरल और तमिलनाडू की सुंदरियों को यह क्रीम गोरा नहीं बना पाएगी।
मुझे यही स्थिति ओबामा की विजय की लगती है। रेड इंडियन्स को खदेड़ने के बाद क्या आज तक एक भी ऐसा काला आदमी नहीं आया जो इतना बुद्धिमान हो कि वह अमरीकी शासन का नेतृत्व कर सके। नहीं मुझे ऐसा नहीं लगता। आज तक ओबामा से कहीं अधिक बुद्धिमान और श्रेष्ठ काले लोगों ने अमेरिका के लिए बहुत कुछ किया होगा और इस देश को आगे बढ़ाने के प्रयासों में कहीं कसर नहीं रखी होगी।
अब ऐसा क्या हो गया जो ओबामा को शीर्ष पर बिठाना पड़ गया। क्या तीसरी दुनिया के देशों से संवाद का यही एक रास्ता बचा था, क्या मंदी से टूटते अमरीका को किसी काले की जरूरत थी, क्या आम आदमी की राष्ट्रभक्ति पाने के लिए काले को लाया गया है, यह काला कितने प्रतिशत काला है, किन कालों का नेतृत्व करता है।
ये सब बातें आपस में गढ़मढ़ होती है और भारतीय होने के नाते चुप रहने की कोशिश करता हूं। क्योंकि आखिर ओबामा ने दुनिया के सबसे बड़े बाजारों में से एक भारत को चुना और पाकिस्तान को चेतावनी दी। फिर भी क्यों मुझे लगता है वर्णभेद, इस्लामी आतंकवाद और बाजार के दबाव ने ओबामा का भाग्य पहले ही तय कर दिया था। अब इंसान के रूप में खड़ा यह व्यक्ति तो निमित्त मात्र है।