आप भी कहेंगे कि ये क्या बात हुई, लेकिन मुझे अपना पक्ष तो स्पष्ट करने दीजिए। बीकानेर में छाते नहीं बिकते क्योंकि यहां बारिश नहीं होती। यह भी कोई खास बात नहीं है, लेकिन गौर करें तो पाएंगे कि बीकानेर में बेरहम गर्मी तो होती है, फिर छाते क्यों नहीं बिकते।
पिछले साल पत्रिका के एक वरिष्ठ साथी राहुल शर्माजी ने मुझे यह जानकारी दी थी। वे मूलत राजस्थान के हिण्डौनसिटी के हैं। पिछले साल छुट्टियों पर वे अपने गांव गए तो उनके पिता ने कहा कि बीकानेर में इतनी गर्मी पड़ती है तो छाते भी खूब बनते होंगे। कोई अच्छा सा छाता मिले तो अगली बार लेकर आना। राहुलजी ने बीकानेर आकर पता किया तो पता चला कि बीकानेर में कोई भी दुकान खासतौर पर छाता बनाने वालों की नहीं है। (मैं खुद बीकानेर का हूं, लेकिन मैंने कभी यह गौर नहीं किया, यहां तक कि सोचा भी नहीं)। वरिष्ठ साथी ने कई जगह चक्कर निकाले और कुछ दुकानों में जहां मिले तो वे भी दूसरे शहरों या राज्यों के बने हुए छाते बिक रहे थे। दुकानदारों ने भी बताया कि बीकानेर में छातों की बिक्री नहीं होती। कुछ लोग शौक के लिए बस खरीदकर ले जाते हैं। लौटकर आने वाले ग्राहक तो हैं ही नहीं।
पिछले एक महीने से तापमापी का पारा 45 से 49 के बीच घूम रहा है। मौसम विज्ञानियों की मानें तो आदर्श परिस्थितियों में मापे गए पारे की तुलना में सड़क पर तापमान इससे तीन या चार डिग्री ऊपर होता है। यानि बीकानेर में इस साल पारा कई बार पचास डिग्री के पार पहुंच चुका है, लेकिन फिर भी सिर पर छाता ताने लोगों को मैंने इस बार भी नहीं देखा। हां दिखाई दिए तो ये तीन बच्चे एक ही छाते को लेकर जा रहे थे। मैंने अपने मोबाइल कैमरे से यह “दुर्लभ” फोटो खींचा है।
पूर्वान्ह सवा ग्यारह बजे यह स्थिति हो चुकी थी कि जयनारायण व्यास कॉलोनी, जो पोश कॉलोनियों में से एक है, का बाजार सुनसान हो चुका था।
मुझे याद है बचपन में मेरे पड़नानाजी से उनकी उम्र के कुछ लोग मिलने आया करते थे तो वे छड़ी के बजाय छाता टेकते हुए आते थे। मैंने उन्हें कभी छाता सिर के ऊपर ताने हुए नहीं देखा। हमारे घर में भी बचपन से कभी छाता नहीं रहा। फैशन के तौर पर कभी आया भी तो बच्चों के खेल के भेंट ही चढ़ा। मैं समझ नहीं पाता कि बीकानेर की भीषण गर्मी से बचाव के लिए लोग छाते का इस्तेमाल क्यों नहीं करते। ठीक है यहां बारिश अधिक नहीं होती, लेकिन तपती धूप तो हमें परेशान करती ही है।
नए दौर के लोगों के लिए कहा जा सकता है कि तेज रफ्तार वाहनों ने छाते को बेकार कर दिया है, लेकिन आज से बीस साल पहले जब इतने वाहन नहीं थे, तब भी लोग छाते का इस्तेमाल इतना नहीं कर रहे थे, जितनी कि यहां गर्मी पड़ती है। इसके बजाय लोग सिर से पांव तक खुद को सूती कपड़ों से ढंककर बाहर निकलते हैं। महिलाएं तो अपना मुंह तक ओढ़ने से ढके रखती हैं।
इस बारे में एक जोरदार वाकया भी है। मेरे मामा उस जमाने में रिपोर्टर हुआ करते थे। दिल्ली के एक राष्ट्रीय अखबार की रिपोर्टर बीकानेर आई और उसने मई जून की भीषण गर्मी में ग्रामीण क्षेत्रों का दौर कर निष्कर्ष निकाला कि अभी राजस्थान और विशेषकर बीकानरे, जैसलमेर और बाड़मेर क्षेत्रों में महिलाओं की बड़ी दयनीय स्थिति है। यहां घूंघट प्रथा इतना विकराल रूप ले चुकी है कि महिलाओं को न सिर्फ सिर ढकने के लिए बाध्य किया जाता है, बल्कि पूरा मुंह गले तक ढककर महिलाएं बाहर निकलती हैं। मामाजी के सामने उस महिला पत्रकार ने अपनी बात रखी तो मामाजी ने माथा ठोंक लिया। उन्होंने पत्रकार से पूछा कि क्या आपने उन महिलाओं से बात की थी, या केवल देखकर ही अपना निष्कर्ष निकाल रही हैं। पत्रकार ने कहा कि वे स्थानीय भाषा जानती नहीं हैं सो देखकर ही निष्कर्ष निकाला है। अब मामाजी ने स्पष्ट किया कि बीकानेर में गर्मियों के दिनों में लगातार धूलभरी हवाएं चलती हैं। ऐसे में अगर महिला का मुंह खुला होगा तो चेहरे पर गर्म रेत के झोंके लगेंगे। इससे गर्मी भी अधिक लगेगी और चेहरे का भी नुकसान होगा। इससे बचने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं अपने ओढने से मुंह को भी पूरी तरह ढके रहती है। महिला पत्रकार के दिमाग की बत्ती जली तो उसने अपनी रिपोर्ट में आवश्यक सुधार किए।
और अब एक अनूठा प्रयोग
गर्मी है सो है, अब इससे बचने के लिए बीकानेर में कूलर का ही आसरा है। छठे वेतन आयोग का लाभ मिलने के बाद बीकानेर में एसी की ब्रिकी में भी जोरदार इजाफा हुआ है। तीन से पांच प्रतिशत आर्द्रता के बीच तेज गर्म हवाएं माहौल को बुरी तरह तपा देती हैं तो कूलर और एसी भी फेल साबित होते हैं। ऐेसे में प्रयोगधर्मी लोगों का दिमाग चालू रहता है। यही तो है थार की जीवटता। देखिए इसका एक नमूना। इसमें कूलर के आगे एक और पंखा लगा दिया है। हवा दूनी रफ्तार से आती है। हालांकि इससे शोर तो बहुत हो रहा था, लेकिन हवा इतनी तेज और नम थी कि माहौल में गर्मी का असर कुछ कम हो गया।