कई बार व्यवस्था को दोष देने का जी करता है, लेकिन जब समस्या की तह तक जाने का प्रयास करता हूं और एक पत्रकार के रूप में समाज को देखता हूं तो पाता हूं कि समस्याएं कहीं नहीं है, बस जो इच्छा का नहीं है वही हो रहा है। उसे समस्या का रूप दिया जा रहा है। हो तो वही रहा है जिसकी हम कोशिश कर रहे हैं।
इन दिनों लोकतंत्र का उत्सव अपने परवान पर है। भारत को आजाद हुए आधी सदी से अधिक समय बीत चुका है, लेकिन राजतंत्र की उस गुलामियों से हम अब तक आजाद नहीं हो पाए हैं। राजतंत्र में आम जनता पर शासन के लिए शासकों ने राजा में ईश्वरीय गुण और संप्रभुता होने का दावा किया और लोगों ने सहजता से उसे मान भी लिया। वहीं लोकतंत्र में एक सरकार बना दी गई, और शासन करने वालों ने मनमर्जी के कानून बनाकर फिर से जनता पर शासन करना शुरू कर दिया।
दिखाई देने के लिए भले ही हमने ताकत के सूत्रों को बदल दिया है, लेकिन हकीकत देखी जाए तो हम आज भी वहीं हैं। बस शासन करने वाले लोगों के चेहरे बदल गए हैं। इसके लिए हम क्यों जिम्मेदार हैं, इसका कारण उन असक्षम लोगों में दिखाई देता है, जो काबिल न होते हुए भी काबिल लोगों का हक मारने का प्रयास कर रहे हैं।
समाज के निर्माण भले ही सुरक्षा के लिए हुआ, लेकिन राज्य का विकास अतिरिक्त उत्पादन को हड़पने के लिए ही हुआ। अब इस राज्य को जो भी चलाए, नतीजा वही होगा कि जो अतिरिक्त उत्पादन होगा, उसे हड़पने के लिए कुछ ताकतें लगातार काम करती रहेंगी।
चुनावों के दौरान देखता हूं कि लोग अपने नेता का चुनाव कभी अपनी जाति के आधार पर कर रहे हैं तो कभी क्षेत्रीय प्रभुत्व के आधार पर। आज नेता बड़ी गाड़ी में बैठकर आता है और दुपहिया वाहन खरीदने तक की हैसियत नहीं रखने वाले लोगों को सपने दिखाकर उन्हें लूटने का षड़यंत्र शुरू करता है। हर बार इसका एक नया रूप होता है। पिछले सूत्र फेल होते हैं तो नए सूत्र गढ़ लिए जाते हैं। जनता लालच के भरोसे फिर नेता के पीछे पीछे हो लेती है।
मैं सोचता हूं यह अनंत काल तक चलेगा, जब तक राज्य रहेगा, सत्ता रहेगी, संप्रभुता रहेगी, तब तक ऐसा ही चलेगा। सत्ता से ऐसी उम्मीद करना कि वह जनता के लिए काम करेगी एक मूर्खता है। जब हमने चुनाव ही ऐसे लोगों को किया है जो किसी समूह विशेष के स्वार्थ साधने का काम करेंगे तो ऐसे लोगों से सर्वजन हिताय की कैसे उम्मीद की जा सकती है।