यह कहानी एक ऐसे स्पिनर की है जिसके टैलेण्ट की भ्रूण हत्या हो गई। वास्तव में यह एक बचाव प्रक्रिया थी या हत्या इस बारे में मैं आज तीन दशक बाद भी कंफ्यूज हूं।
*** इस घटना का सही सही दिन मुझे याद नहीं है, लेकिन महज सात या आठ साल की उम्र में एक दिन बीकानेरी भीषण दोपहरी में जब लू बज रही थी, मैं गली में क्रिकेट खेलने में मशगूल था। मुझे बैटिंग करने में अधिक रुचि नहीं थी। बॉलिंग में भी मेरी च्वाइस स्पिन की थी। मैंने अपना ओवर पूरा किया और फील्डिंग के लिए नाली के पास जाकर खड़ा हो ही रहा था कि मेरी ममेरी बहिन ने आकर कहा कि बाऊजी बुला रहे हैं। बाऊजी यानी मेरे पड़नाना डॉ. माधोदासजी व्यास। मैं उनके पास पहुंचा तो वे कुछ पढ़ रहे थे। चमकती चांद के पीछे सफेद बालों की लट और मोटा चश्मा। उन्होंने बिना सिर उठाए मुझे पूछा कहां थे। मैंने कहा खेल रहा था। उन्होंने दोबारा पूछा क्या खेल रहे थे, मैंने जवाब दिया क्रिकेट खेल रहा था।
*** बाऊजी ने सिर को एक तरफ इस तरह झटका जैसे मैं महामूर्खता का काम कर रहा होउं। मैंने पूछा क्यों क्रिकेट खेलने में क्या समस्या है। वे बोले यह कोई खेल नहीं है। यह तो गुलाम देशों को अंग्रेजों का दिया गुलामी का प्रतीक है। हालांकि मैं जाति से जोशी हूं, लेकिन ननिहाल में रहता था, सो आस पास के लोग “जोशी राजा” कहते थे (प्यार से कुछ लोग अब भी कहते हैं)। अब एक राजा गुलामी को कैसे सहन कर सकता है। वह भी सात आठ साल का राजा। बात दिल में चुभ गई। मैं अड़ गया, बोला सिद्ध करो। बस यहीं चूक हो गई। हिन्दी विभाग के प्रोफेसर रहे डॉ. व्यास (बाऊजी) को इसी काम में सबसे ज्यादा मजा आता था। उन्होंने पूछा बताओ कौन कौनसे देश की टीमें क्रिकेट खेलती हैं। मैंने नाम गिनाए, और बाऊजी ने बताया कि कौनसा देश कब अंग्रेजों का गुलाम बना।
*** मैं भ्रमित हो रहा था कि किसी देश को गुलाम बनाने के बाद क्रिकेट जैसे खेल की छाप छोड़ने की क्या जरूरत है। तो बाऊजी ने बताया कि अंग्रेज ग्रेट ब्रिटेन से आए थे, वहां का मौसम अपेक्षाकृत ठण्डा है। अंग्रेजों ने दूसरे मुल्कों पर कब्जे करने शुरू किए तो वहां अपने आदमी भी रखने पड़े। गर्म देशों में ऐसे अंग्रेजों का समय बहुत मुश्किल से निकल पा रहा था। पैसे वसूल करने के बाद उन्हें कुछ काम तो करना पड़ता नहीं था, ऐसे में दिन बिताने के लिए उन्होंने बेहद धीमे खेल को शुरू किया। क्रिकेट मूल रूप से कई दिन तक चलने वाला खेल था। बाद में इसका एक दिवसीय प्रारूप भी लाया गया।
*** इस तरह मुझे समझ में आया कि अंग्रेजों के समय बिताने (टाइम पास) का खेल हमारे देश का सबसे पॉपुलर खेल बन चुका था। उस समय तक कपिल देव ने वर्ड कप भी जीत लिया था, ऐसे में क्रिकेट का फीवर अपने चरम पर था। बाऊजी ने बताया कि इस खेल में न तो किसी प्रकार का मानसिक विकास होता और न शारीरिक। उनका इशारा पारंपरिक कुश्ती और शतरंज की ओर था। उन्होंने बताया कि चीन, जापान, अमरीका, फ्रांस जैसे देश या तो आजाद रहे या उन्होंने अंग्रेजों की गुलामी को अपने जेहन पर हावी नहीं होने दिया। इसी का परिणाम है कि उन देशों में क्रिकेट की टीमें नहीं हैं। इसके बाद मेरे छोटे से दिमाग में चार पांच सवाल और आए, उनके जवाब भी बाऊजी ने उसी अंदाज में दिए। उसी दिन क्रिकेट से मेरा मन फट गया। अगले दिन टीमें बंट रही थी, तो मैंने साफ मना कर दिया। मैं बोला यह गुलामों का खेल है मैं नहीं खेलूंगा। मैं पहले भी ऐसी सनकी घोषणाएं करता रहा था, सो बिना बहस या मान मुन्नौवल के प्रेम से किनारे बैठा दिया गया।
*** इसके बाद मैंने कभी क्रिकेट तो नहीं खेला। इस घटना के करीब बारह साल बाद मैंने दोबारा खेलना शुरू किया। इस बार मैंने आजाद ख्याल देश के खेल बॉस्केटबॉल का चुनाव किया। हालांकि फिरकी मेरी फितरत रही है सो बॉस्केटबॉल को बोर्ड पर फिरकी की तरह घुमाकर काउंट करता था। हालांकि मेरी इस हरकत से कोच बहुत नाराज होते। बोलते जहां खेलने जाओगे वहां ऐसा बोर्ड नहीं मिला तो तुम्हारी फिरकी ही हार का कारण बन जाएगी। पर…
*** यूनिवर्सिटी खेलने के लिए कॉलेज की टीम के साथ रवाना होने से पहले बाऊजी से मिलने गया। उन्हें बताया कि मैं खेल में हिस्सा लेने हनुमानगढ़ जा रहा हूं। उन्होंने पूछा क्या खेलते हो, तो मैंने बताया कि बॉस्केटबॉल खेलता हूं। उन्होंने बारह साल पुराने उसी अंदाज में सिर को झटका और कहा “यह क्या खेलते हो? यह तो हब्शियों का खेल है!”
मैंने सिर पकड़ लिया। मैं बागी हो चुका था, कहा इस खेल में तो कोई गुलामी की बदबू नहीं है। तो उन्होंने कहा कि यह हमारा खेल भी नहीं है। इस बार सावधान रहा। बहस को बढ़ाए बिना बातचीत के रुख को इधर उधर घुमाया और वहां से निकल आया। बाद में चार साल तक इस खेल को जी भरकर खेला। लेकिन आज भी सोचता हूं कि अगर बाऊजी की बात नहीं सुनता को अच्छा स्पिनर बन सकता था, अगर सुन ली तो वास्तव में एक गुलामों के खेल को अलविदा कहकर अच्छा किया?