जब हम लोग छोटे थे तो एक खेल खेलते थे। इस खेल में पाटे पर कुछ बच्चे चढ़ जाते। आमतौर पर इसे पांच लोग खेल सकते हैं। जैसा कि आप समझ सकते हैं कि चौकोर पाटे में चार खाने हो सकते हैं। एक बच्चा एक कोने में और बाकी तीन दूसरे तीन खानों में। पांचवा बच्चा बीच में खड़ा होता। एक बच्चा अधिक देर तक अपने स्थान पर खड़ा नहीं रह सकता था। यानि उसे कोना छोड़ना होता था और दूसरे कोने वाले से एक्सचेंज करना होता। इसी प्रयास के दौरान बीच में खड़ा बच्चा खाली हो रहे कोने में धंसकने की कोशिश करता। अगर कोना पकड़ने में सफल होता तो जो पिछड़ता वह बीच में आ जाता। इसे खुणा रोकणी यानि कोना रोकने का खेल कहते हैं।
इस खेल के बाद एक दूसरे खेल में जुड़ा वह था बॉस्केटबॉल। मैं तीन कोर्ट पर प्रेक्टिस किया करता था। कॉलेज में, रेलवे ग्राउंड में और पुष्करणा स्टेडियम में। मुझे तीनों जगह आसानी से प्रवेश मिल जाता था। इसके दो कारण थे। पहला कि मैं किसी ग्रुप का सदस्य नहीं था। तो जो भी टीम बनती मुझे आसानी से प्रवेश मिल जाता। खेलने वालों को तो बस खिलाड़ी चाहिए। यहां खुणा रोकणी से दूसरी बार साक्षात्कार हुआ। हर कोर्ट पर अपने कोने दबाए हुए लोग मिलते। कुछ किनारों पर होते तो कुछ बीच में खड़े भी मिलते। मैं खुद ही बीच में ही रहता। क्योंकि तीन कोर्ट में प्रवेश होने के कारण कभी किसी कोने से मोह नहीं रहा। खेल के आखिरी दिनों में मैंने छोटे बच्चों को सिखाना शुरू किया और पूर्व में सिखा रहे प्रशिक्षकों की दमनकारी नीतियों से हटकर हर किसी को कोर्ट पर खुला निमंत्रण दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि पहली बार पुष्करणा स्टेडियम की टीम जिला स्तरीय प्रतियोगिता में तीसरे चक्र तक पहुंची। आमतौर पर उसे प्रवेश ही नहीं मिलता था। पहली सफलता के बाद कई लोगों के कोने असुरक्षित हो गए। मेरा विरोध शुरू हो गया। मेरा ध्यान पहली बार कोना पकड़कर खड़े लोगों पर गया। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की लेकिन देर हो चुकी थी। मैं चाहे-अनचाहे भीषण वार कर चुका था। एक बार फिर मैंने पूरा पाटा ही छोड़ दिया। यानि ग्राउंड जाना बंद कर दिया। लेकिन एक सोच दिमाग में घर कर गई कि जो लोग जिन किनारों पर खड़े होते हैं उन्हें उन किनारों से प्यार हो जाता है। जब कोई बाहर से आता है और उन किनारों में कुछ बदलाव करने की कोशिश करता है तो किनारा पकड़कर बैठे लोगों को बहुत तकलीफ होती है।
अब ऐसा ही कुछ खेल ब्लॉगिंग में भी दिखाई दे रहा है…
…इति