सैकडो साल पहले अरस्तू ने एक बार कहा कि कोई नहीं जानता कि बच्चों को अच्छा कैसे बनाया जाए। यकीन मानिए तब से अब तक हजारों लोग लाखों घण्टे लगाकर इस बारे में शोध कर चुके हैं लेकिन इसका कोई निश्चित जवाब नहीं खोजा जा चुका है। शिक्षा के कई स्तर है। एक ओर रविन्द्रनाथ का प्रयोग है जिसमें युवक-युवतियों को पेडों के नीचे बैठाकर प्रेमपूर्ण माहौल में पढाया जाता था। समस्या तब आई जब प्रेमपूर्ण वातावरण में युवकों और युवतियों को प्रेम तो बढने लगा लेकिन पढाई के बारे में कुछ कहना मुश्किल रह गया।
ठीक है
इसके साथ ही चल रहा था मैकाले का प्रयोग
इसमें कक्षा लोअर किंडर गार्डन से लगाकर मास्टर ऑफ द सब्जेक्ट तक की पढाई थी लेकिन एक अत्यंत मेधावी बालक चार साल की उम्र से बाईस साल की उम्र तक पढकर भी इंसान बन जाए इसकी संभावना कम ही दिखाई देती है। इस पद्धति की खासियत यह है कि यह पडाव दर पडाव होती है और हर साल आपको कुछ हासिल कर लेने का सुख सौभाग्य प्रदान करती है ऐसे में कोई अभिभावक या फिर विद्यार्थी साल दर साल मिल रही इस संतुष्टि को कैसे अलविदा कह सकता है। सरकार के लिए भी यह अधिक सहूलियत की चीज है कि पहले से तैयार सिस्टम को बनाए रखा जाए इसमें सोचने की जरूरत भी नहीं पडती।
अब बात रही कुंठा की
मान लिया शिक्षा की हर संभव पद्धति को लागू किया जाए और विद्वान से विद्वान लोग तैयार किए जाएं लेकिन ये लोग आखिर करते क्या हैं
मैं किसी रेंटिंग के चक्कर में न पडूं तो आपको बता सकता हूं कि यह पढाई बनाती है
अध्यापक
वकील
चिकित्सक
सेल्समैन
प्रशासनिक अधिकारी
इंजीनियर
और तीन चार जोड लीजिए लिस्ट खत्म हो जाएगी
तो मैं क्या कहना चाह रहा हूं
सही सवाल
मैं बता रहा हूं कि उक्त सभी कार्य नौकरीपेशा लोगों के हैं जो नहीं है वे स्वरोजगार के लिए उन्मुक्त करते हैं। यानि या तो रोजगार के लिए किसी का मुंह देखो या फिर जिंदगीभर मेहनत करके रोटी कमाओ
अमीर कैसे बनोगे, संतुष्ट कैसे होवोगे, शांत कैसे होवोगे, क्या पैसे के पीछे भागते रहोगे, लम्बी छुट्टियां कब मनाओगे, अपने मन का काम कब करोगे
आखिरी सवाल ज्यादा चुभोने वाला है इस जिन्दगी में मन का काम क्या होता है जो काम है वही करना पडेगा यही नियति है जिन्दगी ने इसी ओर धक्का मारा है तो इसी ओर जाएंगे जिन्दगी जब तक दूसरी बार धक्का नहीं मारेगी तब तक कैसे परिवर्तन हो सकता है। परिवर्तन के लिए परिस्थितियां जरूरी है।
अब आई बात समझ में देश, काल, समाज और अर्थ यानि पैसा तय करता है कि हम किस ओर जाएंगे न कि हमारी इच्छा। यानि ईश्वरवादी धर्मो के अनुसार सबकुछ पूर्वनियत है और यह सही है।
अब मेरी सोच यह है कि स्वतंत्रता की संभावना (freedom of will) कहां है। सबकुछ तो धक्के से चल रहा है।
वर्तमान में हमें मिल रही शिक्षा केवल इस धक्के को समझने और झेलने की क्षमता देती है ऐसे में कुंठा परत दर परत दिमाग में घर करती जाती है और आखिरी परिणाम होता है कि हम अपनी शक्तियों को भूलकर हथियार डाल देते हैं। इसे समझने के लिए मैं आपको एक प्रयोग करने के लिए आमंत्रित करूंगा
अपने घर के शांत स्थान पर कुछ देर के लिए आंखें बंद करके बैंठें और कल्पना करें कि आप कमरे के ही किसी ऊपरी कोने से खुद को देख रहे हैं अब बताएं कि क्या आपको दिखाई देने वाला व्यक्ति वही है जिसकी छवि आपने बचपन में अपने मन में गढी थी यदि नहीं तो कुंठाएं सिर उठा चुकी है।
अगला प्रयोग
परिस्थितियों से कितना लड सकते हैं
ऊपर बताई अवस्था में ही बैठे रहें और सोचें कि यह व्यक्ति अपने मन की करने के लिए कितने दिनों के लिए वर्तमान स्थिति से गायब हो सकता है हट सकता है बिना कमाए बिना किसी की चिंता किए बिना कोई व्यवस्था किए
इस लेख को पढकर एक बार हो सकता है आपको डिप्रेशन महसूस हो लेकिन परतें खुलने लगेंगी
श्ोष कल…