ओपन सोर्स ब्‍लॉगिंग का वक्‍त आ गया है

    पिछले दिनों चिठ्ठा चर्चा में चोरी पर पूरी एक पोस्‍ट बन गई थी। तब उसमें हो सकता है बहुत से लोगों का ध्‍यान गया हो लेकिन मुझे इस कमेंट ने बहुत प्रभावित किया। यह था कि आप खुद को स्‍वतंत्र महसूस करें मेरे लेखों को चोरी करने के लिए। निशांत मिश्राजी ने इसके प्रति ध्‍यान आकृष्‍ट किया था। मैं पहुंच गया वहां मिले जैन हैबिट्स के Leo Babauta। टाइटल था Open Source Blogging: Feel Free to Steal My Content.

    मुझे बात जम गई। पहले भी ब्‍लॉगिंग की रीति नीति और हां साहित्‍य को लेकर काफी चर्चा हो चुकी है। इन सबको देखते हुए मैं ओपन सोर्स ब्‍लॉगिंग को करारा जवाब मान सकता हूं। इस पोस्‍ट को पढ़ने के बाद मुझे भी लगा कि वास्‍तव में कॉपीराइट एक्‍ट और कुछ नहीं बस आपके विचारों को रोकने का एक साधन है। क्‍या हुआ अगर किसी व्‍यक्ति ने मेरा कोई लेख उठा लिया। अगर वह इस लेख को आगे प्रचारित करता है तो खुश होने की बात है कि मेरी क्रिएटिविटी (जितनी भी है) का आगे प्रसार हो रहा है। विचार लगातार आगे बढ़ रहा है। विचार तो ऐसी ही चीज है जितना आगे बढ़ेगा उतना ही प्रबल होगा।

    प्रिंट या अन्‍य प्रकाशन माध्‍यमों में कॉपीराइट लगाने की कोशिश अकसर प्रकाशक ही करता है न कि लेखक। लेखक को तो खुशी ही होती होगी जब कोई उसके ही विचारों को अधिक समृद्ध रूप में वापस उसके सामने लेकर आए। लेकिन प्रकाशकों को इससे नुकसान होता है। कुछ समय पहले पॉल कोएलो ने भी कुछ इसी तरह से अपनी नाराजगी जाहिर की थी। उनकी पुस्‍तक द एल्‍केमिस्‍ट की करोड़ो प्रतियां बिक जाने के बाद पॉल ने अपने प्रकाशकों को कहा कि अब इस किताब को मुफ्त जितना सस्‍ता या मुफ्त कर देना चाहिए। लेकिन प्रकाशकों ने उनकी सुनी नहीं। और किताब अब भी बिक रही है। पॉल ने प्रकाशकों से बदला लेने के लिए चार पुस्‍तकें और लिखी और उन्‍हें ऑनलाइन मुफ्त उपलब्ध करा दिया है। जब मैं बबूता को पढ़ रहा था तो मेरे दिमाग में लगातार पॉल ही घूम रहे थे। एल्‍केमिस्‍ट के बाद मुझे इले‍वन मिनट्स हाथ लगी तो मैंने सोचा कि पॉल ऐसे अंधे हैं जिनके हाथ एल्‍केमिस्‍ट का बटेर लग गया होगा। छोटे शहर में रहने का यही नुकसान है कि बाहर क्‍या चल रहा है पता ही नहीं चलता। चर्चा करने वाले दोस्‍त भी सब बाहर जा चुके हैं। ठीक है इसके बाद वैल्‍के‍रीज हाथ आई। इस पुस्‍तक ने फिर से पॉल के प्रति रुचि जगा दी। यहां के एक पुस्‍तक विक्रेता पर दबाव डालकर जहीर मंगवाई और पढ़ी, लेकिन मैं एक प्रतिशत भी विश्‍वास नहीं कर रहा था कि पॉल मुफ्त किताबें भी देंगे।

    इन पुस्‍तकों को आप भी यहां  से डाउनलोड कर सकते हैं। ये बिल्‍कुल मुफ्त हैं और पीडीएफ फार्मेट में उपलब्‍ध हैं। पॉल के इस कदम ने मुझे प्रकाशकों की सोच पर एक बार फिर सोचने के लिए मजबूर कर दिया। बहुत से लोग बहुत क्रिएटिव होते हैं लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो एक विचार मिलने पर उसकी इतनी शानदार पॉलिश करते हैं कि विचार पैदा करने वाला भी अचंभित रह जाता है। मैं ऐसे लोगों का उतना ही सम्‍मान करता हूं जितना कि विचार पैदा करने वाले का।

    बबूता की सलाह और पॉल के कदम से प्रेरित होकर मैंने भी अपने ज्‍योतिष दर्शन ब्‍लॉग पर लगाए गए डिस्‍क्‍लेमर को बदल दिया है। अब मेरे लेखों को आप कभी भी कहीं भी इस्‍तेमाल कर सकते हैं। जैसा कि निशांत जी कहते हैं अगर आप अपने ब्‍लॉग से दो पैसे भी नहीं कमा रहे हैं तो अपने लेखों को मुक्‍त कर दीजिए। ठीक है मैं पैसे नहीं कमा रहा लेकिन अपने सृजन को तो कीमती मानता ही हूं। इसके बावजूद अपने विचार को आगे बढ़ाने के लिए मैं चाहूंगा कि सौ से अधिक रीडर रोजाना वाले मेरे ब्‍लॉग से कोई पोस्‍ट कॉपी की जाए और उसे दो सौ रीडर रोज पढ़ें।

    शायद गणेश जी ने कहा तथास्‍तु…