आज कुछ ऐसा हाथ लगा कि सोचा सबको बताया जाए। यह है एक टिप्पणी। हमारे समीर भाई की टिप्पणी। जिनके बारे में ब्लॉगजगत में मशहूर है कि वे उम्दा, बढि़या, रोचक, लगे रहिए, आभार से अधिक कम ही लिखते हैं। प्रतिदिन सैकड़ों पोस्ट जो पढ़ने होते हैं। लेकिन इस बार समीरजी को एक इश्यू ने ऐसा झकझोरा कि उन्होंने पोस्ट के साइज की टिप्पणी दे मारी। वहां की टिप्पणी को में यहां उठा लाया। ताकि सभी लोग उसे देख परख सकें। कहीं टिप्पणी बक्से में गुम न हो जाए।
तो पहले मैं किस्सा बताने की कोशिश करता हूं। रवि रतलामीजी ने राष्ट्रीय ब्लॉग संगोष्ठी : छपास पीड़ा का इलाज मात्र हैं ब्लॉग? में ब्लॉग और साहित्य के बारे में गुड़ी मुड़ी चर्चा की। हमारे इस जगत के तूफानी लेखकों में से एक बालसुब्रमण्यमजी ने सवाल दागा कि क्या ब्लोग साहित्य है? इस पर शिव कुमार मिश्र जी ने कहा कि वही बात…ब्लॉग को साहित्य कहा जा सकता है या नहीं? पर बहस अब पुरानी हो चुकी है। इसी पोस्ट तक आते आते समीरजी ब्लॉग और साहित्य के बीच गुल्ली डंडा करते हुए उकता गए और दे मारी मैराथन टिप्पणी। आप ऊपर दिए तीनों लिंक पर जाकर किस्सा समझें और बाद में समीरजी की टिप्पणी पढ़ें। पहले यह किस्सा मुझे मालूम नहीं था। कुछ पता था। इसी दौरान एक पोस्ट मैंने भी लिख मारी कि ब्लॉग साहित्य नहीं है। कन्फर्म। यहां तक आते आते तो समीरजी हाथ पर हाथ रखकर बैठने को तैयार हो गए थे। लेकिन उससे पहले की पोस्ट और उस पर कमेंट का अवलोकन करने के लिए प्रस्तुत है।
समीर भाई शिव कुमार मिश्रजी की पोस्ट में कहते हैं
कोई मुझे साहित्य की स्पष्ट परिभाषा बतलाने का कष्ट करे तो आजीवन आभारी रहूँगा और आगे से लेखन को उस परिभाषा की कसौटी में कस कस कर निचोड़ कर ब्लॉग को अरगनी मान सूखने फैला दिया करुँगा. जब हिट्स की चटक धूप में सूख जायेगा तो प्रतिक्रियाओं में मिले अंगारों को इस्तेमाल कर इस्त्री करके किताब की शक्ल में लाऊँगा..सब करुँगा..बस कोई मुझे साहित्य की स्पष्ट परिभाषा बतलाने का कष्ट करे.
साहित्य न हुआ, बीरबल की खिचड़ी हो गई-किसी को पता ही नहीं कितना पकाना है. कभी जैसे राहुल साकृत्यायन और किपलिंग को कह दिया कि पक गई पक गई..अभी खाये भी ठीक से नहीं कि कहने लगे नहीं पकी, नहीं पकी. मजाक बना कर रख दिया है. क्यूँ?
हे प्रभु, क्या जमाना आया है कि अब चार लोग चश्मा लगा कर बतायेंगे कि क्या साहित्य है और क्या नहीं..पाठक क्या घास छिलने को बनें हैं.
मानो आप हमें चपत लगा लगा कर साहित्य रचवा भी लो सिखा पढ़ा कर-फिर पाठक, उनको भी चपत लगाओगे क्या कि चल अब पढ़ इन्हें, ये साहित्यकार हैं. जी लेने दो, महाराज और आप भी जिओ. समय सबके पास लिमिटेड है, लेखक के पास भी और पाठक के पास भी, उस पर से बीच में बैठे आप छाना बीनी में लगे हैं, जबकि सबसे कम समय आप ही के पास है (औसत के हिसाब से):). ये सब छोड़ कर, माना आप ही कागज लुग्दी में साहित्य रच रहे हो, तो रचते काहे नहीं भई. यहाँ क्या करने तराजू लिये चले आ रहे हो? यहाँ तो इलेक्ट्राँनिक तराजू है. बटन दबाओ, झट छपो और पाठक बोले. कागज लुग्दी वाला बट्टा बाट और काँटा मारी की कम ही गुंजाईश है, इससे तो परेशान नहीं हो गये कहीं.
खैर जो मन आये सो करो. हमारे शिव बाबू हम सब की बात कह दिये हैं. वे सो गये हैं और अब हम भी चले सोने!! राम राम जी की!!